Declining Quality of India’s Legislative Process: Impact of Passing 70% Bills Without Committee Review in 2025
“भारत की घटती विधायी गुणवत्ता: 2025 में 70% विधेयक बिना समिति परीक्षण के पारित होने के प्रभाव”
प्रस्तावना
भारत की संसदीय प्रणाली विश्व की सबसे विशाल और बहुस्तरीय लोकतांत्रिक संरचनाओं में से एक है। तथापि, पिछले एक दशक में संसद की विधायी प्रक्रिया में एक चिंताजनक प्रवृत्ति उभरी है—विधेयकों को बिना विभागीय स्थायी समितियों (Departmentally Related Standing Committees – DRSCs) के परीक्षण के सीधे पारित करना। PRS Legislative Research के आंकड़े बताते हैं कि 16वीं लोकसभा (2014–2019) में जहाँ केवल 25% विधेयक बिना समिति परीक्षण के पारित हुए थे, वहीं 17वीं लोकसभा (2019–2024) में यह संख्या बढ़कर 60% हो गई। 18वीं लोकसभा के प्रारंभिक तीन सत्रों (जून 2024–अगस्त 2025) के दौरान यह आँकड़ा और बढ़कर 70% तक पहुँच गया। वर्ष 2025 के तीनों सत्रों (बजट, मानसून और शीतकालीन) के दौरान कुल 47 विधेयकों में से केवल 14 ही समिति को भेजे गए।
यह प्रवृत्ति न केवल संख्यात्मक रूप से चिंताजनक है, बल्कि यह भारत के लोकतांत्रिक विधिनिर्माण की गुणवत्ता, पारदर्शिता और जवाबदेही की मूलभूत संरचनाओं पर गंभीर प्रभाव छोड़ती है।
स्थायी समितियाँ: संवैधानिक दर्शन और प्रक्रियात्मक भूमिका
स्थायी समितियों की स्थापना वर्ष 1993 में इस उद्देश्य से हुई कि जटिल विधेयकों पर विस्तृत, बहु-आयामी विमर्श हो सके। समिति प्रणाली को “मिनी-पार्लियामेंट” कहा जाता है क्योंकि यह देश के विविध हितधारकों—विशेषज्ञों, उद्योग, श्रमिक संगठनों, नागरिक समाज, मंत्रालयों और प्रभावित समुदायों—के विचारों को विधेयक में समाहित करने का अवसर प्रदान करती है।
पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी (2004) ने कहा था कि “किसी भी महत्वपूर्ण विधेयक को स्थायी समिति के परीक्षण के बिना पारित नहीं किया जाना चाहिए, जब तक कि परिस्थितियाँ अत्यंत असाधारण न हों।”
स्थायी समितियों के प्रमुख कार्य:
- मंत्रालयों व विभागों से विस्तृत विवरण माँगना
- विशेषज्ञों/हितधारकों से मौखिक व लिखित साक्ष्य लेना
- विधेयक की clause-by-clause समीक्षा
- सुधारात्मक संशोधन सुझाना या विधेयक लौटाना
जब 70% विधेयक इस प्रक्रिया से बाहर रह जाते हैं, तो समिति प्रणाली अपवाद बन जाती है—और इसका क्षरण लोकतांत्रिक गहराई को प्रभावित करता है।
2025 के प्रमुख उदाहरण
2025 में कई बहु-प्रभावी विधेयक बिना व्यापक विमर्श के पारित हुए:
- Waqf (Amendment) Bill, 2025 – संवेदनशील धार्मिक संस्थानों से संबंधित होने के बावजूद समिति को नहीं भेजा जा रहा था लेकिन विपक्ष के विरोध के बाद JPC का गठन हुआ था जिसने कई संशोधन प्रस्तावित किए थे।
- Disaster Management (Amendment) Bill, 2025 – आपदा प्रबंधन जैसे तकनीकी विषय पर भी कोई विशेषज्ञ इनपुट नहीं लिया गया।
- Broadcasting Services (Regulation) Bill, 2025 – OTT और डिजिटल मीडिया जैसे जटिल क्षेत्रों के लिए आवश्यक बहु-हितधारक परामर्श पूरी तरह गायब।
- Finance Bill, 2025 – 40 से अधिक गैर-वित्तीय संशोधन समाहित, फिर भी समिति प्रक्रिया से मुक्त।
ये उदाहरण इस व्यापक प्रवृत्ति की पुष्टि करते हैं कि अत्यधिक त्वरित विधिनिर्माण अब सामान्य होता जा रहा है।
इस प्रवृत्ति के दूरगामी प्रभाव
1. नीतिगत गुणवत्ता में गिरावट
जब विधेयक विशेषज्ञ समीक्षा के बिना पारित होते हैं, तो तकनीकी त्रुटियाँ, अस्पष्ट प्रावधान और क्रियान्वयन में जटिलताएँ बढ़ जाती हैं।
उदाहरण:
- कृषि कानून (2020) समिति परीक्षण के बिना पारित हुए और व्यापक विरोध के बाद वापस लेने पड़े।
- डेटा संरक्षण विधेयक कई बार संशोधित हुए क्योंकि प्रारंभिक संस्करणों में संतुलन नहीं था।
2. हितधारक परामर्श का क्षय
धार्मिक, सामाजिक, डिजिटल और क्षेत्रीय हित समूहों की चिंताएँ विधेयक प्रक्रिया से बाहर रह जाती हैं। इससे नीतियों में वैधता का संकट पैदा होता है।
3. न्यायिक हस्तक्षेप की संभावना
सुप्रीम कोर्ट ने अनेक निर्णयों में विधायी मनमानी पर चिंता जताई है (जैसे Rojer Mathew vs South Indian Bank, 2019)। बिना परीक्षण के पारित कानूनों में संवैधानिक चुनौतियों की संभावना बढ़ जाती है, जिससे नीति-स्थिरता प्रभावित होती है।
4. संसदीय मर्यादा और बहस का संकुचन
18वीं लोकसभा में प्रति विधेयक औसत चर्चा समय घटकर केवल 45 मिनट रह गया है—जबकि 15वीं लोकसभा में यह 3 घंटे से अधिक था। इससे सदन विमर्श का मंच कम और अनुमोदन-यंत्र अधिक बन जाता है।
अंतरराष्ट्रीय तुलना
भारत की तुलना में अन्य संवैधानिक लोकतंत्रों में समिति परीक्षण अधिक सशक्त है:
- यूनाइटेड किंगडम: 90% से अधिक विधेयक Public Bill Committees द्वारा जांचे जाते हैं।
- जर्मनी: बुंडेस्टाग समितियों की शक्ति इतनी है कि सरकार अनुशंसाओं को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती।
- दक्षिण अफ्रीका: कोई भी विधेयक पोर्टफोलियो समिति की विस्तृत जांच के बिना आगे नहीं बढ़ता।
भारत में इसके विपरीत समिति प्रणाली का व्यवस्थित अवमूल्यन चिंताजनक है।
सुधार के संभावित मार्ग
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नियमों में संशोधन
लोकसभा नियम 331G और राज्यसभा नियम 270 में संशोधन करके समिति प्रक्रिया को अधिकांश विधेयकों के लिए अनिवार्य बनाना आवश्यक है। -
समय-सीमा निर्धारण
समितियों को 60–90 दिन की बाध्यकारी समयावधि दी जाए, ताकि देरी के बहाने से बचा जा सके। -
अध्यक्षता में संतुलन
समिति अध्यक्षों में विपक्ष की भागीदारी सुनिश्चित की जाए, जिससे समीक्षा प्रक्रिया निष्पक्ष बने। -
नागरिक समाज की व्यापक भागीदारी
प्री-लेजिसलेटिव कंसल्टेशन पॉलिसी (2014) को कानूनी दायित्व बनाया जाए, न कि एक वैकल्पिक प्रक्रिया।
निष्कर्ष
वर्ष 2025 में 70% विधेयकों का बिना स्थायी समिति परीक्षण के पारित होना केवल एक प्रक्रियात्मक कमज़ोरी नहीं, बल्कि भारत के संसदीय लोकतंत्र की गहराई में उभरती संरचनात्मक समस्या है। यह स्थिति कार्यपालिका की शक्ति को बढ़ाती है, हितधारकों की आवाज़ को कमजोर करती है और नीतिगत गुणवत्ता को कम करती है।
लोकतांत्रिक शासन की आत्मा विचार-विमर्श में निहित है। गति और कुशलता महत्वपूर्ण हैं, किंतु वे deliberation और accountability के स्थानापन्न नहीं हो सकते। यदि समिति प्रणाली को पुनर्सशक्त नहीं किया गया, तो संसद का मूल उद्देश्य—जनता की ओर से विवेकपूर्ण और विचारशील कानून निर्माण—कमज़ोर पड़ जाएगा।
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