एससीओ शिखर सम्मेलन और भारतीय विदेश नीति का बदलता संतुलन
प्रस्तावना
भारत की विदेश नीति ऐतिहासिक रूप से "रणनीतिक स्वायत्तता" और "संतुलन" के सिद्धांतों पर आधारित रही है। किंतु हाल के वर्षों में यह नीति अमेरिका और पश्चिमी देशों की ओर झुकी हुई दिखाई दी थी। ऐसे समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सात वर्षों बाद चीन की यात्रा करना और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन में सक्रिय भागीदारी यह संकेत देता है कि भारत अपनी विदेश नीति में पुनः संतुलन साधने की दिशा में बढ़ रहा है। यह बदलाव न केवल एशिया बल्कि वैश्विक शक्ति संतुलन की राजनीति में भी महत्वपूर्ण है।
संदर्भ और पृष्ठभूमि
2020 के गलवान संघर्ष और उसके बाद बने अविश्वास के माहौल ने भारत-चीन संबंधों को गहरे संकट में डाल दिया था। लंबे समय तक वार्ता और सैन्य स्तर पर पीछे हटने की प्रक्रिया के बाद, 2024 से दोनों देशों ने संबंध सामान्य करने की पहल शुरू की। इस पृष्ठभूमि में तियानजिन में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भेंट एक ऐतिहासिक क्षण के रूप में देखी जा रही है। यह पहली बार था जब दोनों नेता खुले तौर पर "नए विश्वास" और "आर्थिक साझेदारी" की बात करते दिखाई दिए।
भारतीय विदेश नीति में बदलाव
एससीओ शिखर सम्मेलन में भारत की सक्रियता कई स्तरों पर बदलाव का संकेत देती है:
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अमेरिका पर निर्भरता का पुनर्मूल्यांकन
हाल के महीनों में अमेरिका द्वारा लगाए गए टैरिफ और प्रतिबंधों ने भारत में यह भावना मजबूत की है कि वाशिंगटन पर अत्यधिक निर्भरता दीर्घकालिक हितों के लिए हानिकारक हो सकती है। ऐसे में नई दिल्ली ने बीजिंग और मॉस्को के साथ अपने पुराने समीकरणों को फिर से सक्रिय करना उचित समझा। -
रणनीतिक स्वायत्तता की पुनः पुष्टि
भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी भी गुट का स्थायी सदस्य नहीं बनेगा, बल्कि अपने हितों के आधार पर साझेदारी करेगा। बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का विरोध जारी रखना इसी नीति की पुष्टि करता है। -
आर्थिक कूटनीति की प्राथमिकता
प्रत्यक्ष उड़ानों, वीज़ा सुविधा और व्यापारिक संबंधों को पुनर्जीवित करने की दिशा में समझौते भारत की आर्थिक प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं।
चुनौतियाँ और द्वंद्व
हालाँकि, इस कूटनीतिक पुनर्संतुलन के साथ कई चुनौतियाँ भी जुड़ी हैं:
- चीन का पाकिस्तान समर्थन : ऑपरेशन सिंदूर और पाकिस्तान स्थित आतंकी ढांचों पर चीन की अप्रत्यक्ष शह भारत के लिए चिंता का विषय बनी हुई है।
- बहुपक्षीय संस्थाओं में अड़चनें : एनएसजी सदस्यता और संयुक्त राष्ट्र सुधारों पर चीन की अड़चनें भारत के हितों के विरुद्ध हैं।
- एससीओ के भीतर विविध एजेंडे : आतंकवाद से लेकर गाज़ा और ईरान संकट तक, कई मुद्दों पर भारत को संतुलन साधना पड़ रहा है।
रणनीतिक संदेश
एससीओ शिखर सम्मेलन से तीन महत्वपूर्ण संदेश उभरते हैं:
- एशिया में शक्ति संतुलन – भारत और चीन के बीच संवाद बहाली यह संकेत है कि एशियाई शक्ति समीकरण केवल टकराव पर आधारित नहीं रहेगा, बल्कि प्रतिस्पर्धा और सहयोग का मिश्रण होगा।
- वैश्विक दक्षिण के नेतृत्व की आकांक्षा – भारत "सभ्यतागत संवाद" और विकासशील देशों की आवाज़ बनने की कोशिश कर रहा है।
- बहुपक्षीयता का नया मॉडल – अमेरिका और पश्चिम के दबावों से इतर, भारत यूरेशियाई मंचों पर सक्रिय भागीदारी कर अपनी स्वतंत्र पहचान बना रहा है।
निष्कर्ष
एससीओ शिखर सम्मेलन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत अब अपनी विदेश नीति को एकतरफा झुकाव से हटाकर "बहुध्रुवीय कूटनीति" की ओर ले जा रहा है। यह बदलाव न केवल भारत की सुरक्षा और आर्थिक हितों के लिए आवश्यक है, बल्कि वैश्विक राजनीति में उसकी "मध्यस्थ और संतुलनकारी शक्ति" की भूमिका को भी मजबूत करता है।
हालाँकि, वास्तविक परीक्षा इस बात की होगी कि भारत चीन के साथ सीमा विवाद और पाकिस्तान पर उसके रुख जैसे कठिन मुद्दों पर अपने राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित रखते हुए कैसे आगे बढ़ता है। संतुलन साधने की यह कला ही आने वाले वर्षों में भारतीय विदेश नीति की पहचान बनेगी।
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