Vande Mataram 1937 Controversy: Nehru’s Secular Vision and the Politics of National Symbols in India
वन्दे मातरम् का 1937 में संक्षिप्तीकरण: राष्ट्रवाद, समावेशिता और राजनीतिक स्मृति का ऐतिहासिक विश्लेषण
परिचय
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की आत्मा को अगर किसी एक गीत ने सबसे गहराई से व्यक्त किया, तो वह था वन्दे मातरम्। 1876 में बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यह गीत केवल एक साहित्यिक सृजन नहीं था—यह भारत के उभरते राष्ट्रवाद का घोष बन गया। आनन्दमठ उपन्यास में शामिल यह रचना मातृभूमि को देवी स्वरूप में प्रस्तुत करती है, जो अपनी संतान के उद्धार के लिए जागृत होती है। इस गीत ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारियों, कवियों और नेताओं को प्रेरणा दी।
रवीन्द्रनाथ टैगोर से लेकर महात्मा गांधी तक, सबने इसे जन-जागरण का प्रतीक माना। लेकिन जैसे-जैसे भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई आगे बढ़ी, यह गीत धार्मिक प्रतीकों और राजनीतिक वास्तविकताओं के बीच विवाद का विषय बनने लगा। 1937 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसके कुछ अंशों को हटाने का ऐतिहासिक निर्णय लिया—एक ऐसा फैसला जिसने राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और समावेशिता के बीच संतुलन के प्रश्न को जन्म दिया।
7 नवम्बर 2025 को जब बंकिमचन्द्र की 150वीं जयंती मनाई गई, तो यह मुद्दा एक बार फिर राजनीतिक बहसों के केंद्र में आ गया। बीजेपी ने इसे सांस्कृतिक विरासत बनाम धर्मनिरपेक्ष संशोधन का मामला बताया, जबकि कांग्रेस ने इसे भारत की विविधता का सम्मान कहा। इस लेख में हम 1937 के उस ऐतिहासिक निर्णय के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भों का विश्लेषण करेंगे।
स्वतंत्रता आंदोलन में वन्दे मातरम् की भूमिका
वन्दे मातरम् का पहला सार्वजनिक गान 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने किया था। यह गीत जल्दी ही भारत की राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा बन गया। 1905 के बंग-भंग विरोधी आंदोलन में यह प्रतिरोध का नारा बना—“वन्दे मातरम्” केवल एक उद्घोष नहीं, बल्कि औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ जन-एकता का प्रतीक बन गया।
लेकिन इस गीत की धार्मिक प्रतीकात्मकता—मातृभूमि को देवी दुर्गा के रूप में दर्शाना—धीरे-धीरे विवाद का कारण भी बनी। मुसलमान नेताओं को लगा कि यह गीत इस्लाम के एकेश्वरवाद से टकराता है। 1920 के दशक में जब कांग्रेस पूरे भारत में हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रयास कर रही थी, तब यह मुद्दा संवेदनशील बन गया।
ब्रिटिश अधिकारी भी इस असहमति को हवा देते रहे। वे इसे “हिंदू राष्ट्रवाद” के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते थे। इस प्रकार, वन्दे मातरम् का राजनीतिक जीवन राष्ट्रवादी एकता और धार्मिक विविधता के बीच संतुलन की निरंतर परीक्षा बन गया।
1937: नेहरू और कांग्रेस का ऐतिहासिक निर्णय
1937 का फैजपुर अधिवेशन भारतीय राजनीति में निर्णायक था। उस समय कांग्रेस ने प्रांतीय चुनावों में हिस्सा लेने और सत्ता-साझेदारी की रणनीति अपनाई थी। नेहरू, जो संगठन के अध्यक्ष थे, धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के पक्षधर थे। उनके अनुसार, राष्ट्रीय प्रतीक किसी भी धर्म या पंथ से ऊपर होने चाहिए।
फैजपुर में कांग्रेस कार्यसमिति ने निर्णय लिया कि वन्दे मातरम् के केवल पहले दो छंद ही आधिकारिक रूप से गाए जाएंगे—वही छंद जिनमें मातृभूमि के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव है, परंतु देवी-दुर्गा की स्तुति नहीं।
इस निर्णय के पीछे दो प्रमुख तर्क थे—
- सांप्रदायिक एकता की रक्षा: नेहरू और गांधी दोनों मानते थे कि स्वतंत्रता आंदोलन का आधार हिंदू-मुस्लिम एकता होनी चाहिए।
- राष्ट्रीय प्रतीक की समावेशिता: एक ऐसा गीत जो हर भारतीय के लिए अपनाने योग्य हो, न कि किसी एक धार्मिक परंपरा तक सीमित।
सुभाषचंद्र बोस ने इस निर्णय का विरोध किया था। उनका तर्क था कि बंकिमचन्द्र की रचना को खंडित करना उसकी आत्मा को क्षति पहुँचाना है। नेहरू ने 1937 के एक पत्र में लिखा कि “वन्दे मातरम् के देवी-स्वरूप वाले छंद मुस्लिम समुदाय को असहज कर सकते हैं, इसलिए हमें राष्ट्रीय प्रतीकों में सावधानी बरतनी होगी।”
इतिहासकार सुमित सरकार के अनुसार, यह निर्णय “व्यावहारिक धर्मनिरपेक्षता” का उदाहरण था—जहाँ भावना से अधिक एकता को प्राथमिकता दी गई।
विचारधारात्मक बहस और उसके परिणाम
1937 के इस निर्णय ने भारतीय राष्ट्रवाद के भीतर एक गहरी वैचारिक रेखा खींच दी। स्वतंत्रता के बाद 1949 में संविधान सभा ने जन गण मन को राष्ट्रगान के रूप में चुना, जबकि वन्दे मातरम् को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया गया—एक प्रकार का संतुलन।
संविधान के अनुच्छेद 51A में नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों में “राष्ट्रीय ध्वज और गीत का सम्मान” शामिल किया गया। लेकिन यह विवाद समाप्त नहीं हुआ। कुछ लोग आज भी मानते हैं कि गीत का मूल संस्करण ही भारतीय अस्मिता की सच्ची अभिव्यक्ति है, जबकि अन्य इसे धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए अनुपयुक्त मानते हैं।
2025 में जब इसकी 150वीं जयंती मनाई गई, तो इस ऐतिहासिक बहस को एक बार फिर राजनीतिक रंग मिल गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे “राष्ट्रीय चेतना का अमर प्रतीक” बताया, जबकि बीजेपी प्रवक्ताओं ने कांग्रेस पर “संस्कृति-विरोधी” होने का आरोप लगाया।
कांग्रेस ने पलटवार करते हुए आरएसएस की 1920–40 के दशक की भूमिका और संविधान के प्रति उसके रुख की याद दिलाई।
इन आरोप-प्रत्यारोपों के बीच एक बात स्पष्ट है—वन्दे मातरम् आज भी केवल गीत नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक स्मृति का दर्पण है, जिसमें हर युग अपने अर्थ खोजता है।
विचार और विमर्श: समावेशिता बनाम पहचान
यह प्रश्न अब भी प्रासंगिक है—क्या किसी सांस्कृतिक प्रतीक को अधिक समावेशी बनाना उसकी आत्मा को कमजोर करता है? नेहरू का दृष्टिकोण व्यावहारिक था; वे मानते थे कि भारत की विविधता को टिकाए रखने के लिए प्रतीकों को समायोजित करना जरूरी है। वहीं, राष्ट्रवादी दृष्टिकोण यह कहता है कि भारत की आत्मा उसी बहुलतावादी धर्म-संस्कृति में है, जिससे बंकिम ने प्रेरणा ली थी।
सच यह है कि वन्दे मातरम् दोनों भावों को एक साथ समेटे हुए है—भक्ति और तर्क, आस्था और तर्कशीलता। यही इसे भारतीयता का प्रतीक बनाता है।
निष्कर्ष: प्रतीक से परे राष्ट्रवाद की परिभाषा
1937 का संक्षिप्तीकरण भारतीय राष्ट्रवाद की परिपक्वता का संकेत था—जहाँ भावनात्मक उत्कर्ष को व्यावहारिक समावेशिता के साथ संतुलित किया गया। यह निर्णय न तो राष्ट्रवाद की कमजोरी थी, न ही परंपरा का अपमान; बल्कि यह एक ऐसा प्रयास था जिसने भारत को अपनी विविधता में एकता की दिशा दी।
आज जब हम 150 वर्ष बाद इस गीत को दोबारा सुनते हैं, तो यह केवल अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि भविष्य के लिए एक प्रेरणा है। वन्दे मातरम् की शक्ति उसके छंदों में नहीं, उसकी आत्मा में है—वह आत्मा जो हमें याद दिलाती है कि भारत की माता केवल एक देवी नहीं, बल्कि करोड़ों विविध संतानों की साझा चेतना है।
समय आ गया है कि हम इसे विवादों से मुक्त करें और उस मूल भावना को पुनः अपनाएं, जिसने पहली बार भारतीयों को एक स्वर में कहा था—
“वन्दे मातरम्!”
वन्दे मातरम् कोई पत्थर की मूर्ति नहीं हैं, जो खंडित हो जाए तो महत्वहीन हो जाए।
यह एक जीवंत माँ हैं —जो बदलती हैं,देश काल की परिस्थितियों में ढलती हैं, पर सदैव जीवंत रहती हैं।
(लेखक का दृष्टिकोण शैक्षणिक और विश्लेषणात्मक है, UPSC और समसामयिक विमर्श हेतु उपयुक्त।)
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