राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस): विवादों का इतिहास, कानूनी स्थिति और समकालीन भारत में वैचारिक तनाव
परिचय
भारत की राजनीतिक और वैचारिक संरचना में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) एक ऐसा संगठन है जिसने लगभग एक शताब्दी से सत्ता, संस्कृति और समाज के बीच की सीमाओं को परिभाषित किया है।
1925 में नागपुर में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित, आरएसएस का घोषित उद्देश्य था – “हिंदू समाज को संगठित कर राष्ट्रनिर्माण”।
लेकिन समय के साथ इसकी गतिविधियाँ, विचारधारा और प्रभाव भारतीय लोकतंत्र में गहरे विवाद का विषय बन गए।
नवंबर 2025 तक दो घटनाओं ने एक बार फिर आरएसएस को राष्ट्रीय बहस के केंद्र में ला दिया है —
- महात्मा गांधी की हत्या से जुड़े राहुल गांधी के बयान पर चल रहा मानहानि मामला, और
- संगठन की अपंजीकृत कानूनी स्थिति को लेकर कांग्रेस और अन्य दलों द्वारा उठाए गए सवाल।
ये विवाद केवल कानूनी या राजनीतिक नहीं हैं, बल्कि वे भारत की आत्मा—धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद—के बीच चल रहे वैचारिक संघर्ष के प्रतीक हैं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: आरएसएस, हिंदुत्व और गांधी हत्या का विवाद
30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या भारतीय इतिहास की सबसे निर्णायक घटनाओं में से एक थी।
गोडसे आरएसएस और हिंदू महासभा दोनों से जुड़े थे, और गांधी के मुस्लिमों के प्रति नरम रुख तथा विभाजन के बाद हिंदू राष्ट्रवाद के विरोध से नाराज़ थे।
ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार —
- गोडसे 1932 में सांगली शाखा में आरएसएस से जुड़े थे।
- बाद में वे हिंदू महासभा में सक्रिय हुए, लेकिन उनके भाई गोपाल गोडसे के अनुसार उन्होंने “आरएसएस कभी नहीं छोड़ा”।
- 1969 की कपूर आयोग रिपोर्ट ने आरएसएस की प्रत्यक्ष संलिप्तता के सबूत न मिलने की बात कही, लेकिन यह भी माना कि संगठन गांधी-विरोधी भावनाओं को रोकने में विफल रहा।
हत्या के बाद तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने 4 फरवरी 1948 को आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया।
पटेल ने लिखा — “आरएसएस ने घृणा और हिंसा का वातावरण बनाया, जिसने गांधीजी की हत्या का मार्ग प्रशस्त किया।”
हालांकि 1949 में आरएसएस ने संविधान के प्रति निष्ठा और अहिंसा का संकल्प देकर यह प्रतिबंध हटवाया, परंतु गांधी हत्या का कलंक संगठन की ऐतिहासिक स्मृति में स्थायी रूप से दर्ज हो गया।
राहुल गांधी बनाम आरएसएस: मानहानि का मुकदमा और ऐतिहासिक सत्य की राजनीति
2014 में महाराष्ट्र के भिवंडी में राहुल गांधी ने कहा था —
“आरएसएस के लोगों ने गांधीजी को गोली मारी।”
इस कथन को लेकर आरएसएस कार्यकर्ता राजेश कुंटे ने उनके खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर किया, जो 2025 तक भी जारी है।
कुंटे ने अदालत में यह स्वीकार किया कि “कुछ आरएसएस कार्यकर्ताओं ने गांधी हत्या का जश्न मनाया था”, हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि संगठन के स्तर पर ऐसा कोई निर्देश नहीं था।
यह बयान स्वयं संघ के भीतर मौजूद विरोधाभासों को उजागर करता है—जहाँ एक ओर नेतृत्व गांधी के प्रति सम्मान की बात करता है, वहीं इतिहास के कई पन्ने हिंसक राष्ट्रवाद की झलक देते हैं।
राहुल गांधी ने अपने बचाव में कहा कि उनका वक्तव्य “आरएसएस से जुड़े व्यक्तियों” पर था, संगठन पर नहीं।
फिर भी, यह मुकदमा एक प्रतीक बन चुका है —
👉 एक ओर आरएसएस इतिहास को पुनर्लेखित करना चाहता है,
👉 दूसरी ओर विपक्ष उस इतिहास की वैचारिक पुनर्स्थापना को चुनौती दे रहा है।
इस विवाद का राजनीतिक आयाम यह भी है कि भाजपा अपने वैचारिक स्रोत के रूप में आरएसएस का गौरवगान करती है, जबकि कांग्रेस गांधी की विरासत के प्रतीक के रूप में नैतिक वैधता का दावा करती है।
अपंजीकृत संगठन और पारदर्शिता का विवाद
2025 में कर्नाटक के मंत्री प्रियंक खड़गे ने आरएसएस की कानूनी स्थिति पर सवाल उठाया —
“जब आरएसएस इतना विशाल संगठन है, तो यह पंजीकृत क्यों नहीं है? इसके फंड और अकाउंट्स की पारदर्शिता कहाँ है?”
इस पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जवाब दिया —
“हिंदू धर्म भी पंजीकृत नहीं है, क्या उसे भी बैन कर देंगे?”
भागवत का यह तर्क आरएसएस को सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में प्रस्तुत करता है, जबकि आलोचक इसे राजनीतिक संगठन के रूप में काम करने वाला अपंजीकृत नेटवर्क मानते हैं।
कानूनी रूप से, भारत में किसी संगठन का अपंजीकृत रहना अपराध नहीं है, लेकिन इससे वित्तीय जवाबदेही और सार्वजनिक पारदर्शिता की कमी बनी रहती है।
आरएसएस के पास कोई औपचारिक बैंक खाता या लेखा परीक्षण रिपोर्ट नहीं है; इसके फंड ‘गुरु दक्षिणा’ और स्वैच्छिक योगदानों से आते हैं।
कई विश्लेषक मानते हैं कि यह स्थिति एफसीआरए (Foreign Contribution Regulation Act) जैसे कानूनों की निगरानी से बच निकलने का रास्ता बन जाती है।
यह विवाद केवल तकनीकी नहीं, बल्कि नैतिक शासन और लोकतांत्रिक जवाबदेही से जुड़ा प्रश्न है —
क्या एक संगठन जो राजनीतिक प्रभाव रखता है, उसे पारदर्शिता से मुक्त रहना चाहिए?
वैचारिक विश्लेषण: हिंदुत्व बनाम गांधीवादी भारत
आरएसएस का वैचारिक ढाँचा “हिंदू राष्ट्र” की परिकल्पना पर आधारित है, जबकि गांधी का भारत “सर्व धर्म समभाव” और साझा संस्कृति की नींव पर टिका था।
माधव सदाशिव गोलवलकर की पुस्तक “We or Our Nationhood Defined” (1939) में जर्मन नस्लीय शुद्धता की सराहना और धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति संदेह प्रकट होता है।
यह दृष्टिकोण गांधी की उस सोच से टकराता है, जिसमें भारत एक नैतिक समुदाय था—जहाँ सत्य, करुणा और अहिंसा राजनीतिक जीवन के केंद्र में थे।
आलोचक तर्क देते हैं कि आज का “न्यू इंडिया” इसी वैचारिक संघर्ष का आधुनिक रूप है:
- एक ओर गांधी का बहुलवादी, नैतिक और धर्मनिरपेक्ष भारत;
- दूसरी ओर गोलवलकर का सांस्कृतिक रूप से एकरूप, हिंदू राष्ट्र।
शिक्षा, मीडिया और राजनीति में इतिहास के पुनर्लेखन के प्रयास—जैसे एनसीईआरटी द्वारा गोडसे के उल्लेख हटाना—इस संघर्ष को और तीव्र करते हैं।
कानूनी और लोकतांत्रिक निहितार्थ
भारत का संविधान आरएसएस को संगठन के रूप में अस्तित्व का अधिकार देता है, परंतु उसके प्रभाव और जवाबदेही की सीमाएँ अब धुंधली हो चुकी हैं।
भाजपा के अनेक वरिष्ठ नेता—मोदी, अडवाणी, नड्डा—संघ पृष्ठभूमि से आते हैं।
इसलिए आरएसएस, भले ही “राजनीतिक दल” नहीं कहलाता, परंतु शासन की नीतियों, शिक्षा, विदेश नीति और सांस्कृतिक विमर्श में इसकी छाया गहराई तक मौजूद है।
यह स्थिति लोकतंत्र के लिए एक दुविधा उत्पन्न करती है —
क्या एक “अपंजीकृत सांस्कृतिक संगठन” जो राजनीति को प्रभावित करता है, संविधानिक रूप से उत्तरदायी है?
क्या उसकी गतिविधियों को आरटीआई या ऑडिट से परे रहना चाहिए?
इन प्रश्नों का उत्तर भारत के भविष्य के लोकतांत्रिक ढाँचे को परिभाषित करेगा।
निष्कर्ष
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय समाज में एक जटिल और विरोधाभासी भूमिका निभाता है —
यह एक ओर राष्ट्रनिर्माण, सेवा और संगठन का प्रतीक है;
तो दूसरी ओर, सांप्रदायिक विभाजन, ऐतिहासिक पुनर्लेखन और पारदर्शिता की कमी का पर्याय भी बन गया है।
राहुल गांधी का मुकदमा और आरएसएस की अपंजीकृत स्थिति—दोनों घटनाएँ यह दिखाती हैं कि इतिहास केवल बीते समय की बात नहीं, बल्कि राजनीतिक शक्ति का वर्तमान उपकरण है।
भारत की लोकतांत्रिक यात्रा तभी संतुलित रह सकती है जब ऐतिहासिक सत्य और वैचारिक ईमानदारी दोनों की रक्षा की जाए।
गांधी की हत्या का विवाद केवल एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं, बल्कि एक विचार की परीक्षा है —
क्या भारत अपने मूल आदर्श “सत्य, अहिंसा और बहुलता” को जीवित रख पाएगा, या वह वैचारिक एकरूपता की अंधी दौड़ में अपनी आत्मा खो देगा?
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Note: लेखक का उद्देश्य शुद्ध अकादमिक है इसका वर्तमान राजनीतिक रस्साकस्सी से कोई लेना देना नहीं है।
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