JNU Student Union Election 2025: Left Unity’s Clean Sweep Reflects Revival of Progressive Campus Politics in India
जेएनयू छात्र संघ चुनाव 2025: विचारधारा की वापसी और लोकतांत्रिक स्पंदन की पुनर्पुष्टि
नई दिल्ली। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) एक बार फिर लाल रंग में रंग गया है। 2025 के छात्र संघ चुनावों में लेफ्ट यूनिटी (आइसा–एसएफआई–डीएसएफ गठबंधन) ने चारों केंद्रीय पदों पर ऐतिहासिक विजय दर्ज कर छात्र राजनीति के मानचित्र पर अपनी पुनर्प्रतिष्ठा की है। यह जीत केवल चुनावी परिणाम नहीं, बल्कि उस वैचारिक प्रतिरोध का प्रतीक है जो पिछले कुछ वर्षों से शिक्षा में व्यापारीकरण, लोकतांत्रिक संस्थानों पर नियंत्रण और विचारों की एकरूपता के खिलाफ चल रहा है।
कैंपस में लोकतंत्र का उत्सव
जेएनयू में 4 नवंबर को हुए मतदान में लगभग 67% छात्रों ने भाग लिया—यह संख्या अपने आप में छात्र समुदाय की राजनीतिक सजगता का प्रमाण है। टॉर्चलाइट जुलूस, रातभर चलने वाली बहसें और दीवारों पर लिखे नारे केवल प्रचार का हिस्सा नहीं थे, बल्कि एक जीवंत लोकतंत्र की झलक थे।
मतगणना पूरी रात चली और सुबह परिणामों ने यह स्पष्ट कर दिया कि लेफ्ट यूनिटी की पकड़ अब भी जेएनयू में मजबूत है। अध्यक्ष पद पर अदिति मिश्रा (आइसा), उपाध्यक्ष पद पर किजहाकूट गोपिका बाबू (एसएफआई), महासचिव पद पर सुनील यादव (डीएसएफ) और संयुक्त सचिव पद पर दानिश अली (आइसा) की जीत ने यह दिखा दिया कि वैचारिक एकजुटता और मुद्दों पर केंद्रित राजनीति अभी भी छात्रों के बीच सबसे विश्वसनीय मानी जाती है।
चुनाव के मुद्दे: संघर्ष बनाम सत्तानिष्ठा
इस चुनाव में फीस वृद्धि, हॉस्टल संकट, फंड कटौती, आरक्षण नीति और जेंडर इक्विटी प्रमुख मुद्दे रहे। लेफ्ट यूनिटी ने लगातार यह रेखांकित किया कि शिक्षा का व्यापारीकरण और बजट में 50% तक की कटौती छात्रों के अधिकारों पर आघात है।
दूसरी ओर, एबीवीपी ने राष्ट्रवाद, अनुशासन और "शैक्षणिक उत्कृष्टता" के नाम पर अभियान चलाया। लेकिन छात्रों के लिए सवाल साफ था—क्या विश्वविद्यालय की आत्मा केवल डिग्रियों में सिमट सकती है या वह विचारों और संघर्ष की प्रयोगशाला भी है?
वोटों की भाषा में विचारधारा का संदेश
वोटों का अंतर दिलचस्प है। अदिति मिश्रा ने अध्यक्ष पद पर एबीवीपी के विकास पटेल को 414 वोटों से हराया, जबकि महासचिव पद पर मुकाबला 74 वोटों के अंतर से तय हुआ। यह दिखाता है कि जेएनयू की राजनीति केवल ‘वर्चस्व’ नहीं बल्कि ‘प्रतिस्पर्धा’ का भी मंच है।
एबीवीपी की हार के बावजूद उसका बढ़ता वोट प्रतिशत यह संकेत देता है कि दक्षिणपंथी विचारधारा कैंपस में कुछ जमीन बना रही है, परंतु छात्रों का बहुमत अब भी सामाजिक न्याय, लैंगिक समानता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में खड़ा है।
महिलाओं की निर्णायक भूमिका
इस बार दो प्रमुख पदों पर महिलाओं की जीत ने जेएनयू की प्रगतिशील विरासत को और मजबूती दी है। यह सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं—यह उस विमर्श का विस्तार है जिसमें कैंपस राजनीति लैंगिक समानता को नारे से आगे, नीतिगत मांग के रूप में देखती है।
जेएनयू लंबे समय से "समानता के प्रयोगशाला" के रूप में जाना जाता रहा है, और यह चुनाव इस परंपरा की पुनर्पुष्टि है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में 2025 की जीत
1970 के दशक से जेएनयू छात्र राजनीति वामपंथी विचारधारा का गढ़ रही है। 2016 के “देशद्रोह विवाद” से लेकर 2019 के फीस हाइक आंदोलन और 2020 के हिंसक हमले तक, इस विश्वविद्यालय ने भारतीय लोकतंत्र में असहमति की आवाज को जिंदा रखा।
2025 की यह जीत उसी परंपरा का विस्तार है—एक स्पष्ट संदेश कि वैचारिक विविधता को कुचलने की कोशिशों के बावजूद छात्रों ने आलोचनात्मक सोच और स्वतंत्र अभिव्यक्ति को चुना है।
राष्ट्रीय छात्र राजनीति के लिए संकेत
जेएनयू का चुनाव अक्सर देशभर के कैंपसों में विचारधारात्मक रुझानों का संकेतक माना जाता है। यह परिणाम केवल दिल्ली तक सीमित नहीं; यह इलाहाबाद, हैदराबाद, पटना, और कोलकाता के विश्वविद्यालयों में चल रहे छात्र आंदोलनों को भी ऊर्जा देगा।
लेफ्ट यूनिटी की क्लीन स्वीप से यह संकेत मिला है कि आर्थिक असमानता, बेरोजगारी, और शैक्षणिक असुरक्षा के बीच वामपंथी विमर्श छात्रों के बीच पुनः प्रासंगिक हो रहा है।
एबीवीपी के लिए आत्ममंथन का क्षण
पिछले वर्ष संयुक्त सचिव पद जीतकर एबीवीपी ने जो उम्मीद जगाई थी, वह इस बार पूरी तरह धराशायी हो गई। संगठन के लिए यह परिणाम आत्ममंथन का अवसर है—क्या जेएनयू जैसे वैचारिक कैंपस में केवल राष्ट्रवादी विमर्श पर्याप्त है, या यहाँ सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर संवेदनशील दृष्टिकोण की आवश्यकता है?
भविष्य की दिशा
नव-निर्वाचित छात्रसंघ के सामने चुनौतियाँ कम नहीं—हॉस्टल की कमी, अनुसंधान फंड में गिरावट, आरक्षण का समुचित अनुपालन और विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ संवाद। लेकिन जिस उत्साह और वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ इस टीम ने जीत दर्ज की है, उससे उम्मीद की जा सकती है कि जेएनयू आने वाले वर्षों में भी छात्र आंदोलनों का नैतिक केंद्र बना रहेगा।
निष्कर्ष: लाल रंग सिर्फ झंडे का नहीं, विचार का है
जेएनयू छात्रसंघ चुनाव 2025 ने यह साबित कर दिया कि विश्वविद्यालय केवल शिक्षा के नहीं, बल्कि विचारों के भी मंदिर हैं। लेफ्ट यूनिटी की जीत, चाहे वैचारिक सहमति से हो या एबीवीपी की नीतिगत कमजोरी से, एक बात स्पष्ट करती है—छात्र राजनीति अब भी भारतीय लोकतंत्र का सबसे सजीव और ईमानदार चेहरा है।
कैंपस फिर से लाल है, बहसें जारी हैं, और लोकतंत्र अब भी साँस ले रहा है — यही जेएनयू की आत्मा है।
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