India–Pakistan Religious Diplomacy: Pakistan’s Reaction to Ayodhya Ram Temple Flag and India’s Strong Response
भारत-पाकिस्तान संबंधों में धार्मिक कूटनीति: अयोध्या राम मंदिर की धर्म-ध्वजा स्थापना पर पाकिस्तान की प्रतिक्रिया और भारत का प्रतिवाद
परिचय
दक्षिण एशिया की राजनीति में धर्म लंबे समय से केवल आस्था का विषय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय पहचान और कूटनीतिक रणनीति का प्रमुख घटक रहा है। विशेष रूप से भारत-पाकिस्तान संबंधों में धार्मिक प्रतीकवाद अक्सर राजनीतिक तनाव को गहरा करने का माध्यम बन जाता है। 25 नवंबर 2025 को अयोध्या के श्री राम जन्मभूमि मंदिर के शिखर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा केसरिया धर्म-ध्वजा की स्थापना इसी संदर्भ का एक महत्वपूर्ण क्षण था। यह समारोह केवल मंदिर निर्माण के पूर्ण होने का उत्सव ही नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक विरासत के पुनर्स्थापन का प्रतीक भी बनकर सामने आया।
जहां इस घटना ने भारत में आनंद और सांस्कृतिक गर्व का वातावरण निर्मित किया, वहीं पाकिस्तान ने इसे कठोर भाषा में आलोचना का विषय बनाया। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने इस समारोह को भारत में मुस्लिम विरासत पर “हमला” और अल्पसंख्यकों पर “बढ़ते दमन” के रूप में पेश किया, जबकि भारत ने इसके उत्तर में पाकिस्तान की “नैतिक पात्रता” पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया। इस घटनाक्रम ने एक बार फिर दर्शाया कि दक्षिण एशिया में धार्मिक प्रतीक कितनी आसानी से कूटनीतिक बहसों को उग्र बना सकते हैं।
ऐतिहासिक संदर्भ: राम जन्मभूमि विवाद से मंदिर निर्माण तक
राम जन्मभूमि का प्रश्न भारत के धार्मिक-राजनीतिक इतिहास का सबसे जटिल अध्याय रहा है। हिंदू परंपराओं में इस स्थल को भगवान राम का जन्मस्थान माना जाता है, जबकि 16वीं शताब्दी में बनी बाबरी मस्जिद की उपस्थिति ने इस स्थल पर धार्मिक विवाद को जन्म दिया। 1992 में मस्जिद का विध्वंस भारत के इतिहास में गहरे सांप्रदायिक घाव छोड़ गया और इस घटना ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी विवाद को उभारा।
9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए ऐतिहासिक फैसले ने दशकों पुराने विवाद का समाधान किया—विवादित भूभाग मंदिर निर्माण के लिए हिंदू पक्ष को मिला और मुस्लिम पक्ष को मस्जिद निर्माण हेतु अन्य स्थान पर भूमि आवंटित की गई।
इसके बाद 2020 में मंदिर निर्माण का कार्य आरंभ हुआ और 22 जनवरी 2024 को प्राण-प्रतिष्ठा के साथ यह मंदिर औपचारिक रूप से जनता को समर्पित हुआ। 25 नवंबर 2025 का धर्म-ध्वजा स्थापना समारोह मंदिर के पूर्ण स्वरूप के उद्घोष का अंतिम चरण था।
22 फीट ऊँची यह केसरिया ध्वजा सूर्य चिह्न, ओम और कोविदार वृक्ष की आकृति से अलंकृत थी—जो सनातन परंपरा में साहस, पवित्रता और सूर्यवंशी परंपरा के प्रतीक माने जाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने इस क्षण को “सभ्यतागत ऊर्जा के पुनरुत्थान” के रूप में परिभाषित किया, जो भारतीय सांस्कृतिक चेतना की निरंतरता का संदेश देता है।
पाकिस्तान की प्रतिक्रिया: आरोप, राजनीति और प्रतीकवाद
अयोध्या के समारोह के तुरंत बाद पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने एक आधिकारिक बयान जारी किया और इस घटना की कड़ी आलोचना की। पाकिस्तान ने इसे—
- भारत में मुस्लिम सांस्कृतिक विरासत के “मिटाए जाने” का उदाहरण,
- अल्पसंख्यकों पर बढ़ते दबाव का संकेत,
- और हिंदुत्व आधारित राजनीति के विस्तार का प्रमाण बताया।
अपने बयान में पाकिस्तान ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस को “गंभीर ऐतिहासिक अन्याय” बताते हुए भारत पर इस्लामोफोबिया और घृणा-भाषण को बढ़ावा देने का आरोप लगाया। साथ ही उसने अंतरराष्ट्रीय समुदाय, विशेषकर संयुक्त राष्ट्र और OIC से आग्रह किया कि वे भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा को लेकर हस्तक्षेप करें।
यह प्रतिक्रिया पाकिस्तान की दीर्घकालिक रणनीति से मेल खाती है, जिसके अंतर्गत वह भारत के घरेलू धार्मिक मामलों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर “मुस्लिम उत्पीड़न” के नैरेटिव से जोड़ता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान के ऐसे बयान घरेलू चुनौतियों—आर्थिक संकट, आतंकवाद, राजनीतिक अस्थिरता—से ध्यान हटाने का भी माध्यम होते हैं। साथ ही, वैश्विक स्तर पर भारत की सॉफ्ट-पावर और आर्थिक उभार का प्रतिरोध करने का प्रयास भी इनमें छिपा रहता है।
भारत की प्रतिक्रिया: कूटनीतिक दृढ़ता और नैतिक प्रतिपक्ष
भारत के विदेश मंत्रालय ने अगले ही दिन पाकिस्तान के आरोपों को “भ्रामक और अवांछनीय” बताते हुए कड़े शब्दों में खारिज कर दिया। मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि—
- पाकिस्तान, जिसका अपना इतिहास अल्पसंख्यकों पर अत्याचारों से भरा है, नैतिक रूप से भारत का मूल्यांकन करने की स्थिति में नहीं है।
- अयोध्या मंदिर निर्माण पूरी तरह न्यायिक प्रक्रिया का परिणाम है, और यह भारत का पूर्णत: आंतरिक मामला है।
भारत ने पाकिस्तान में हिंदू, ईसाई और अहमदिया समुदायों पर होने वाले लगातार अत्याचारों और जबरन धर्मांतरण जैसे मामलों का उल्लेख करते हुए पाकिस्तान के “दोहरी नीति” को उजागर किया।
भारत की प्रतिक्रिया इस बात का संकेत थी कि वह अपने सांस्कृतिक अधिकारों और न्यायिक निर्णयों के प्रति किसी प्रकार की बाहरी आलोचना को अस्वीकार्य मानता है। इसके साथ ही उसने पाकिस्तान के मानवाधिकार रिकॉर्ड को अंतरराष्ट्रीय मंच पर चुनौती देने की रणनीति को भी आगे बढ़ाया।
तुलनात्मक विश्लेषण: आरोपों और वास्तविकताओं के बीच विरोधाभास
भारत और पाकिस्तान दोनों का रुख उनके-अपने ऐतिहासिक अनुभवों और घरेलू राजनीतिक दबावों से प्रभावित है। पाकिस्तान अपने आलोचनात्मक रुख में बाबरी विध्वंस को केंद्रीय संदर्भ बनाता है, परंतु अपने यहाँ अल्पसंख्यक धार्मिक स्थलों की स्थितियों पर मौन रहता है।
दूसरी ओर, भारत पाकिस्तान को उसके मानवाधिकार उल्लंघनों के आधार पर आलोचना से वंचित करने का प्रयास करता है, जबकि स्वयं पर लगने वाले आरोपों को संप्रभुता के प्रश्न के रूप में प्रस्तुत करता है।
यह दृष्टिकोण दक्षिण एशियाई कूटनीति की उस प्रवृत्ति को दर्शाता है, जहां धार्मिक प्रतीकवाद और राजनीतिक अवसरवाद एक-दूसरे से गहरे रूप से जुड़े रहते हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों के रियलिज़्म सिद्धांत के अनुसार, दोनों राज्य अपने-अपने हितों की रक्षा के लिए नैतिक या धार्मिक विमर्श का उपयोग रणनीतिक रूप से करते हैं।
वृहद निहितार्थ: क्षेत्रीय राजनीति, सांस्कृतिक पहचान और वैश्विक प्रतिक्रिया
अयोध्या की धर्म-ध्वजा स्थापना पर यह विवाद भारत-पाकिस्तान संबंधों में तनाव की एक और कड़ी जोड़ता है। कश्मीर, आतंकवाद, सीमा-विवाद जैसे विषय पहले ही दोनों देशों के बीच अविश्वास का वातावरण बनाए हुए हैं।
पाकिस्तान की UN में अपील इस मुद्दे को वैश्विक विमर्श का हिस्सा बनाने का प्रयास तो करती है, लेकिन भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा—G20, BIMSTEC, क्वाड जैसे मंचों पर बढ़ता प्रभाव—ऐसे प्रयासों का प्रभाव सीमित कर देता है।
सांस्कृतिक दृष्टि से राम मंदिर का पूर्ण होना भारतीय पहचान के वैश्विक प्रसार का प्रतीक बन गया है। विश्व-भर में फैले हिंदू समुदायों के लिए यह न केवल आस्था, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक कूटनीति का भी महत्वपूर्ण आधार बन रहा है।
निष्कर्ष
अयोध्या में धर्म-ध्वजा की स्थापना और उस पर पाकिस्तान की प्रतिक्रिया, तथा भारत का सशक्त प्रतिवाद—ये सभी दक्षिण एशियाई भू-राजनीति के जटिल स्वरूप को उजागर करते हैं।
जहां पाकिस्तान इसे मुस्लिम विरासत के लिए खतरा बताता है, वहीं भारत इसे सांस्कृतिक और कानूनी न्याय की पराकाष्ठा मानता है। दोनों पक्ष अपने-अपने नैरेटिव में नैतिक ऊँचाई का दावा करते हैं, किंतु मूलतः वे अपने राष्ट्रीय हितों को साधने की कोशिश करते हैं।
भविष्य में ऐसे धार्मिक-राजनीतिक विवादों का समाधान केवल पारस्परिक सम्मान, संवाद और संवेदनशीलता से ही संभव है। धार्मिक प्रतीक—यदि विवेक और संतुलन के साथ उपयोग किए जाएँ—तो ये संघर्ष का कारण नहीं, बल्कि शांति और सांस्कृतिक समन्वय के साधन भी बन सकते हैं।
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