मध्य प्रदेश में सोयाबीन खेती का संकट: चुनौतियाँ और समाधान
भूमिका
मध्य प्रदेश, जिसे “भारत का सोयाबीन राज्य” कहा जाता है, देश के कुल सोयाबीन उत्पादन का लगभग 55–60% योगदान देता है। प्रदेश की कृषि अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा इसी फसल पर निर्भर है। सोयाबीन न केवल किसानों के लिए नकदी फसल है, बल्कि देश की तिलहन आत्मनिर्भरता के लिए भी इसका महत्व अत्यधिक है।
किन्तु, पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में लगातार संकट गहराता जा रहा है। उत्पादन लागत बढ़ने, समर्थन मूल्य के कमजोर क्रियान्वयन, बीज की गुणवत्ता में गिरावट, जलवायु अस्थिरता, और आयात की चुनौती ने किसानों को हताश कर दिया है। परिणामस्वरूप, युवा किसान खेती से विमुख हो रहे हैं और शहरी रोजगार की ओर पलायन कर रहे हैं।
यह लेख इसी संकट की जड़ों का विश्लेषण करता है और उसके व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करता है।
1. संकट की पृष्ठभूमि और प्रमुख चुनौतियाँ
(क) MSP का अप्रभावी क्रियान्वयन
सोयाबीन किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) एक सुरक्षा कवच के समान है। परंतु, मध्य प्रदेश में यह कवच अब खोखला साबित हो रहा है।
कई जिलों में सरकारी खरीद केंद्रों की कमी, लंबी कतारें, तकनीकी खामियाँ और बिचौलियों की सक्रियता के कारण किसान MSP का लाभ नहीं उठा पाते। परिणामस्वरूप, वे खुले बाजार में औने-पौने दामों पर फसल बेचने को विवश हो जाते हैं।
यह स्थिति न केवल उनकी आय को घटाती है, बल्कि खेती के प्रति उनका विश्वास भी कमजोर करती है।
(ख) बीज की गुणवत्ता और अनुसंधान का अभाव
सोयाबीन उत्पादन में बीज की गुणवत्ता निर्णायक भूमिका निभाती है।
प्रदेश के कई हिस्सों में किसान या तो पुराने बीजों का पुनः उपयोग करते हैं या अनधिकृत कंपनियों से बीज खरीदते हैं, जिससे अंकुरण दर घट जाती है।
इसके अलावा, रोग-प्रतिरोधी और उच्च उत्पादकता वाले बीजों के विकास में अनुसंधान संस्थानों का समन्वय और विस्तार भी अपेक्षाकृत सीमित है।
इससे उत्पादन घटता है और किसानों की आर्थिक स्थिति और कमजोर होती जाती है।
(ग) लागत बढ़ोतरी और लाभांश में गिरावट
उर्वरक, कीटनाशक, डीजल और मजदूरी की कीमतें निरंतर बढ़ रही हैं, जबकि सोयाबीन के बाजार मूल्य में अस्थिरता बनी हुई है।
इस लागत-लाभ असंतुलन ने खेती को अलाभकारी बना दिया है।
छोटे और सीमांत किसान, जिनकी आय का बड़ा हिस्सा इसी फसल पर निर्भर है, ऋणग्रस्तता की स्थिति में फँस रहे हैं।
युवा किसान इस परिदृश्य को देखकर खेती को जोखिमपूर्ण और अप्रतिष्ठित पेशा मानने लगे हैं।
(घ) आयात नीति और वैश्विक प्रतिस्पर्धा का प्रभाव
हाल के वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्राज़ील जैसे देशों से सस्ते सोयाबीन व सोयामील के आयात की संभावनाएँ बढ़ी हैं।
यह प्रवृत्ति भारतीय उत्पादकों के लिए गंभीर खतरा बन सकती है क्योंकि वैश्विक बाजार के सस्ते दाम स्थानीय उत्पाद के मूल्य को नीचे धकेल देते हैं।
इससे “मेक इन इंडिया” जैसी पहल को भी झटका लगता है, और किसानों की प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति कमजोर पड़ती है।
(ङ) युवा किसानों का खेती से विमुख होना
खेती में अनिश्चितता, आय का अभाव, सामाजिक प्रतिष्ठा की कमी और तकनीकी पिछड़ापन युवाओं को कृषि से दूर ले जा रहा है।
कृषि विश्वविद्यालयों में अध्ययन करने वाले अनेक युवा आधुनिक एग्री-स्टार्टअप्स की ओर रुख कर रहे हैं, परंतु पारंपरिक खेती में लौटने की प्रवृत्ति घट रही है।
यह प्रवृत्ति न केवल कृषि क्षेत्र के लिए, बल्कि ग्रामीण समाज की स्थिरता के लिए भी चुनौती बन सकती है।
2. संभावित समाधान: संकट से अवसर की ओर
(क) MSP व्यवस्था में सुधार और पारदर्शिता
सरकार को खरीद प्रणाली में तकनीकी पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी।
ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT), और ई-नाम (e-NAM) प्लेटफॉर्म के माध्यम से किसानों को सीधे MSP भुगतान किया जाए।
साथ ही, ग्रामीण मंडियों और मोबाइल खरीद केंद्रों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए ताकि किसानों को परिवहन लागत और बिचौलियों की निर्भरता से राहत मिले।
(ख) बीज सुधार और अनुसंधान को प्राथमिकता
कृषि विश्वविद्यालयों और निजी क्षेत्र के बीच साझेदारी बढ़ाकर उन्नत, जलवायु-सहनशील और रोग-प्रतिरोधी बीज विकसित किए जाने चाहिए।
“सीड बैंक” मॉडल को ग्राम स्तर तक लागू किया जा सकता है, जिससे गुणवत्ता-युक्त बीज स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हों।
साथ ही, किसानों को बीज पहचान और परीक्षण की प्रशिक्षण सुविधा भी प्रदान की जानी चाहिए।
(ग) लागत नियंत्रण और जैविक नवाचार
खेती की लागत घटाने के लिए जैविक खाद, बायोपेस्टिसाइड और सौर सिंचाई को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
राज्य सरकार यदि “सौर कृषक मिशन” जैसी योजना का विस्तार करे तो सिंचाई लागत में भारी कमी आएगी।
इसके अतिरिक्त, सामूहिक खेती (cluster farming) और सहकारी मॉडल से पैमाने की अर्थव्यवस्था (economy of scale) प्राप्त कर लागत घटाई जा सकती है।
(घ) आयात नीति का पुनर्संतुलन
सरकार को सस्ते विदेशी सोयाबीन पर आयात शुल्क बढ़ाने या न्यूनतम मूल्य नीति लागू करने पर विचार करना चाहिए।
साथ ही, स्थानीय प्रसंस्करण उद्योगों (processing units) को बढ़ावा देकर मूल्य श्रृंखला (value chain) को घरेलू स्तर पर सशक्त किया जा सकता है।
यह नीति “आत्मनिर्भर भारत” के तिलहन मिशन के अनुरूप होगी।
(ङ) युवा किसानों को तकनीकी और आर्थिक प्रोत्साहन
युवाओं को कृषि-तकनीकी नवाचारों से जोड़ना आवश्यक है।
“एग्री-स्टार्टअप ग्रांट”, “फार्म इनक्यूबेशन सेंटर”, और “कृषि डिजिटल फेलोशिप” जैसे कार्यक्रम खेती को आकर्षक बना सकते हैं।
सोयाबीन आधारित वैल्यू-ऐडेड प्रोडक्ट्स (जैसे सोया दूध, सोया तेल, प्रोटीन पाउडर आदि) में निवेश को बढ़ावा देकर युवा उद्यमियों को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
3. नीति-स्तरीय सुधार की दिशा में
राज्य सरकार और केंद्र सरकार को मिलकर “सोयाबीन मिशन–2030” जैसी दीर्घकालिक नीति बनानी चाहिए।
इस मिशन में उत्पादन, प्रसंस्करण, विपणन और निर्यात—चारों स्तरों पर एकीकृत रणनीति शामिल हो।
साथ ही, किसानों के लिए जलवायु जोखिम बीमा, सस्ती फसल ऋण योजना, और मूल्य स्थिरीकरण कोष जैसी व्यवस्थाएँ भी अनिवार्य की जानी चाहिए।
उपसंहार
मध्य प्रदेश में सोयाबीन खेती का संकट केवल एक आर्थिक समस्या नहीं, बल्कि ग्रामीण विकास, खाद्य सुरक्षा और सामाजिक स्थिरता से जुड़ा व्यापक प्रश्न है।
यदि सरकार, कृषि वैज्ञानिक, निजी क्षेत्र और किसान समुदाय मिलकर समन्वित प्रयास करें, तो यह संकट एक अवसर में बदला जा सकता है।
सुधारित MSP, गुणवत्तापूर्ण बीज, लागत नियंत्रण, और युवाओं की सहभागिता से न केवल सोयाबीन क्षेत्र, बल्कि समूची कृषि अर्थव्यवस्था पुनर्जीवित हो सकती है।
सोयाबीन को पुनः “सुनहरी फसल” बनाने का यही सही समय है—जहाँ नीति, नवाचार और किसान एक साथ आगे बढ़ें।
संदर्भ
Jigish, A. M. (The Hindu 25 Oct 2025). “Madhya Pradesh is India's largest soybean producer, but young farmers are losing interest in farming.”
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