Supreme Court’s Historic Opinion (2025): Clarifying Governors’ Powers, Legislative Process, and the Protection of India’s Federal Balance
सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक मत : राज्यपालों की शक्तियाँ, संघीय संतुलन और संवैधानिक मर्यादा का न्यायिक पुनर्पुष्टि
प्रस्तावना
भारत का संविधान केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति-संतुलन का ऐसा तंत्र निर्मित करता है, जहाँ सहयोग, संवाद और संवैधानिक मर्यादा सर्वोपरि हैं। इसी को “सहकारी संघवाद” कहा जाता है। परंतु जब राज्यपाल—जो स्वयं केंद्र के नामित प्रतिनिधि होते हैं—विधायी प्रक्रिया में बिना उचित कारण हस्तक्षेप या लंबी देरी करते हैं, तो यह संतुलन डगमगाने लगता है। हाल के वर्षों में कई राज्यों में यही घर्षण सामने आया, जिससे यह प्रश्न उठा कि राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों की सीमा क्या है, और न्यायपालिका की भूमिका कहाँ तक है?
20 नवंबर 2025 को सर्वोच्च न्यायालय की पाँच-सदस्यीय संविधान पीठ ने इन्हीं जटिल प्रश्नों पर राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143(1) के तहत भेजे गए संदर्भ पर अपना मत दिया। यह मत न केवल संवैधानिक व्याख्या का नया मानदंड है, बल्कि संघवाद और न्यायिक संयम के सिद्धांतों को भी सुदृढ़ करता है।
विवाद का उद्भव : संघवाद की परीक्षा
तमिलनाडु, केरल, पंजाब, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल जैसे कई राज्यों में हाल के वर्षों में मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच गंभीर टकराव देखने को मिला। आरोप था कि राज्यपाल महीनों—कभी-कभी वर्षभर तक—विधेयक लंबित रखते हैं और उन्हें “पॉकेट वीटो” जैसा व्यवहार मिलता है, जबकि संविधान में यह व्यवस्था नहीं है।
तमिलनाडु में दस से अधिक विधेयक बिना कारण लंबित रहे। केरल में विश्वविद्यालय प्रशासन संबंधी विधेयकों पर राज्यपाल की कथित निष्क्रियता चर्चा में रही। इन घटनाओं ने सिद्ध किया कि संवैधानिक मौन का दुरुपयोग संघीय व्यवस्था को कमजोर कर सकता है।
बार-बार ऐसे विवाद सामने आने पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अक्टूबर 2025 में 14 प्रश्नों वाला संदर्भ सर्वोच्च न्यायालय को भेजा कि—
- अनुच्छेद 200 में “जितनी शीघ्र संभव हो” का वास्तविक अर्थ क्या है?
- राज्यपाल किन परिस्थितियों में विधेयक राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं?
- क्या न्यायालय समय-सीमा निर्धारण कर सकता है?
- क्या अत्यधिक विलंब न्यायिक समीक्षा में आएगा?
पक्ष-विपक्ष की दलीलें : दो संवैधानिक दृष्टिकोणों का संघर्ष
राज्यों का पक्ष
वरिष्ठ वकीलों ने तर्क दिया कि—
- अनिश्चितकालीन विलंब विधायी स्वायत्तता को पंगु बनाता है।
- “जितनी शीघ्र संभव हो” का अर्थ उचित और सीमा-बद्ध समय है।
- फ्लोर टेस्ट जैसे मामलों में न्यायालय ने पहले भी समय-सीमा निर्धारित की है।
- देर से निर्णय लेना भी एक प्रकार की शक्ति का दुरुपयोग है।
केंद्र का पक्ष
महान्यायवादी ने कहा—
- राज्यपाल की शक्ति अनुच्छेद 163 के तहत विवेकाधीन है।
- समय-सीमा तय करना न्यायालय का क्षेत्र नहीं बल्कि संसद का अधिकार है; ऐसा करना न्यायिक विधायन (Judicial Legislation) होगा।
- संविधान की मंशा ही यही थी कि कुछ लचीला समय रखा जाए।
सर्वोच्च न्यायालय का मत : संविधान की मर्यादा, न्यायिक संयम और संतुलन
संविधान पीठ (CJI बी.आर. गवई,जस्टिस सूर्यकांत,जस्टिस विक्रम नाथ,जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा व जस्टिस ए.एस. चंदुरकर) ने एकमत से जो निर्णय दिया, वह भारतीय संघवाद की दिशा तय करने वाला माना जा रहा है।
1. समय-सीमा निर्धारित करने से स्पष्ट इनकार
न्यायालय ने कहा—
“अनुच्छेद 200 और 201 में समय-सीमा जोड़ना न्यायालय का कार्य नहीं। संविधान ने समय जान-बूझकर खुला छोड़ा है।”
इससे न्यायालय ने न्यायिक संयम का सर्वोत्तम उदाहरण पेश किया।
2. नई व्याख्या : “जितनी शीघ्र संभव हो”
न्यायालय ने इसे एक उद्देश्यपूर्ण मानक (Objective Standard) में बदला:
- सामान्य विधेयक → कुछ सप्ताह का समय पर्याप्त
- जटिल या संघीय प्रभाव वाले विधेयक → स्वाभाविक रूप से अधिक समय
इसे लचीला परंतु अनुशासित मानक कहा जा सकता है।
3. राज्यपालों के लिए “स्पीकिंग ऑर्डर” अनिवार्य
यह निर्णय ऐतिहासिक है।
अब राज्यपाल मौन नहीं रह सकते।
- किसी विधेयक को रोकने
- उसे पुनर्विचार हेतु भेजने
- या राष्ट्रपति के पास आरक्षित करने
—हर स्थिति में स्पष्ट, तर्कयुक्त और लिखित कारण देना होगा।
यह राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की परिधि में ले आता है।
4. न्यायिक समीक्षा की सीमित परन्तु उपलब्ध व्यवस्था
न्यायालय ने यह दरवाज़ा खुला रखा—
- यदि छह माह से अधिक अकारण विलंब हो
- या राज्यपाल का आदेश तर्कहीन या दुर्भावनापूर्ण हो
—तो राज्य सरकारें रिट याचिका दाखिल कर सकती हैं।
पर न्यायालय सीधे हस्तक्षेप तभी करेगा जब राज्यपाल का निर्णय मनमाना, असंगत या दुर्भावनापूर्ण साबित हो।
निर्णय का व्यापक महत्व : भारतीय संघवाद की दिशा बदलने वाला क्षण
1. संघीय संतुलन की मजबूती
राज्यपालों को याद दिलाया गया कि—
“विवेकाधीन शक्ति, मनमानी नहीं; यह संवैधानिक विश्वास (Fiduciary Duty) है।”
यह संघवाद को राजनीतिक टकराव से संस्थागत संतुलन की ओर ले जाता है।
2. न्यायपालिका की सीमाओं का सम्मान
फ्लोर टेस्ट या गठबंधन विवादों की तरह इसमें समय-सीमा तय न करके न्यायालय ने माना कि—
“हर संवैधानिक मौन को न्यायपालिका नहीं भर सकती।”
यह सशक्त लोकशाही की पहचान है।
3. संसद के लिए मार्गदर्शन
यदि देश समय-सीमा चाहता है तो—
“संशोधन संसद करे, न्यायालय नहीं।”
यह विधानमंडल की सर्वोच्चता का पुनर्पुष्टि है।
4. संवैधानिक नैतिकता का पुनर्जागरण
न्यायालय ने बार-बार कहा कि संविधान की आत्मा व्यक्ति की नीयत, मर्यादा और नैतिकता पर टिकी है।
राज्यपालों के लिए यह स्पष्ट संदेश है कि पद सत्ता का नहीं, मूल्यों का प्रतीक है।
निष्कर्ष : संवैधानिक शालीनता की ओर लौटने का आह्वान
20 नवंबर 2025 का यह मत केवल एक कानूनी राय नहीं, बल्कि भारतीय संघवाद के लिए एक नैतिक और संस्थागत मार्गदर्शक है। न्यायालय ने न तो अपने अधिकारों का अतिक्रमण किया और न ही राज्य सरकारों की चिंताओं को अनदेखा किया।
यह निर्णय उस विचार को पुष्ट करता है कि—
संविधान की शक्ति उसके मौन में नहीं, उसे लागू करने वालों की नीयत में निहित है।
अब चुनौती राज्यपालों और केंद्र के सामने है कि वे “संवैधानिक नैतिकता” को केवल ग्रंथों का शब्द नहीं, शासन-व्यवहार का हिस्सा बनाएं।
न्यायालय ने अपनी भूमिका निभा दी है—
अब संघीय शिष्टाचार और राजनीतिक परिपक्वता की परीक्षा कार्यपालिका पर है।
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