JNU and the Decline of Free Speech: A Legal and Administrative Analysis of India’s Premier University Crisis (2025)
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में मुक्त भाषण की गिरती साख: एक कानूनी और प्रशासनिक विश्लेषण
परिचय: संवाद से डर तक की यात्रा
भारत में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) लंबे समय तक उस वैचारिक ऊर्जा का प्रतीक रहा है, जिसने राष्ट्र को सोचने, असहमत होने और परिवर्तन की दिशा में बढ़ने की प्रेरणा दी। 1969 में स्थापित यह विश्वविद्यालय अपने पहले तीन दशकों में स्वतंत्र चिंतन, छात्र राजनीति और सामाजिक चेतना का केंद्र रहा। "विचारों का संघर्ष" यहां उतना ही स्वाभाविक था जितना कक्षा में पढ़ाई का क्रम। किंतु पिछले एक दशक में यह संस्थान धीरे-धीरे संवाद से डर की संस्कृति की ओर बढ़ता दिख रहा है।
हाल ही में द इंडियन एक्सप्रेस की 2025 की जांच ने यह स्पष्ट किया कि जिस विश्वविद्यालय को कभी ‘मुक्त भाषण की प्रयोगशाला’ कहा जाता था, वह आज कानूनी मुकदमों, अनुशासनात्मक कार्रवाइयों और प्रशासनिक अविश्वास के जाल में उलझ चुका है। रिपोर्ट के अनुसार, 2011 से अब तक JNU दिल्ली उच्च न्यायालय में 600 से अधिक मामलों का पक्षकार रहा है। यह आंकड़ा सिर्फ प्रशासनिक असंतुलन का नहीं, बल्कि एक गहरे संस्थागत संकट का संकेत देता है—जहां संवाद की जगह अब कानूनी प्रतिवादों ने ले ली है।
कानूनी विवादों की बढ़ती परछाई
विश्वविद्यालयों में कानूनी मामलों का होना असामान्य नहीं है, किंतु JNU का मामला अनूठा है। द इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, 2011 से 2025 तक दायर किए गए मामलों में छात्र, शिक्षक, गैर-शैक्षणिक कर्मचारी, और स्वयं प्रशासन—सभी पक्ष रहे हैं। इनमें वेतन विवाद, नियुक्ति प्रक्रियाएं, अनुशासनात्मक सजा, छात्र निलंबन, आरटीआई मुद्दे और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ी याचिकाएं प्रमुख हैं।
सबसे नाटकीय दौर 2016 से 2022 के बीच आया, जब प्रो. एम. जगदीश कुमार कुलपति थे। इस अवधि में अकेले 118 मामले अदालत में पहुंचे, जिनमें से अधिकांश छात्र आंदोलनों और ‘देशद्रोह’ प्रकरण से संबंधित थे। 2016 का वह कुख्यात प्रसंग जब कुछ छात्रों पर देशद्रोह के आरोप लगाए गए, विश्वविद्यालय की राजनीतिक छवि को दो हिस्सों में बाँट दिया—एक पक्ष "राष्ट्र-विरोध" के नाम पर सख्ती चाहता था, तो दूसरा "मुक्त अभिव्यक्ति" की रक्षा के लिए खड़ा था।
इन विवादों ने न केवल JNU के कैंपस वातावरण को अस्थिर किया, बल्कि एक व्यापक राष्ट्रीय विमर्श को भी जन्म दिया—क्या विश्वविद्यालयों में असहमति देशद्रोह हो सकती है?
प्रशासनिक शांति या भय का वातावरण?
2022 के बाद जब प्रो. संतिश्री धूलिपुड़ी पंडित ने कुलपति पद संभाला, तब उम्मीद की गई कि विवादों का दौर समाप्त होगा और संवाद का नया अध्याय खुलेगा। वास्तव में, कैंपस पर विरोध-प्रदर्शन अब पहले की तरह दिखाई नहीं देते। परंतु यह मौन स्वैच्छिक नहीं है—यह दंडात्मक नीतियों की उपज है।
रिपोर्ट बताती है कि पिछले कुछ वर्षों में JNU प्रशासन ने 30 लाख रुपये से अधिक के जुर्माने छात्रों से वसूले हैं। जुर्मानों के कारणों में पोस्टर चिपकाना, नारे लगाना, धरना देना, या प्रशासनिक भवन के बाहर बैठना शामिल हैं—यानी वही गतिविधियां जो कभी इस विश्वविद्यालय की लोकतांत्रिक पहचान थीं।
छात्र संगठनों का कहना है कि अब विश्वविद्यालय में "अनुशासन" शब्द का अर्थ नियंत्रण बन गया है। हर असहमति को “विघटनकारी व्यवहार” के रूप में देखा जाता है।
कानूनीकरण बनाम संवाद की संस्कृति
जब किसी विश्वविद्यालय में हर विवाद अदालत तक पहुँचने लगे, तो यह उसके आंतरिक लोकतंत्र की विफलता का संकेत है। JNU में ऐसा प्रतीत होता है कि प्रशासनिक संवाद की जगह अब कानूनी उपायों ने ले ली है। छात्रों या शिक्षकों की शिकायतें सुलझाने की बजाय नोटिस, चेतावनी, और अदालत में जवाब दाखिल करना एक सामान्य प्रक्रिया बन चुकी है।
यह प्रवृत्ति दो स्तरों पर खतरनाक है:
- संवैधानिक विरोधाभास – भारतीय संविधान अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। लेकिन जब विश्वविद्यालय स्वयं इस स्वतंत्रता को सीमित करता है, तो वह संविधान की आत्मा से विचलित होता है।
- शैक्षणिक ठहराव – डर और दमन का वातावरण रचनात्मकता को कुचल देता है। शिक्षक और छात्र दोनों ही अपने विचार साझा करने में झिझक महसूस करते हैं, जिससे ज्ञान का प्रवाह बाधित होता है।
कानूनी विशेषज्ञों का मत है कि विश्वविद्यालयों में बढ़ता मुकदमेबाजी का चलन न केवल संसाधनों की बर्बादी है, बल्कि यह "संस्थागत संवाद" के प्रति अविश्वास को भी दर्शाता है।
दंडात्मक अनुशासन की राजनीति
JNU प्रशासन का दावा है कि इन कदमों से "कैंपस में व्यवस्था" बनी है। पर वास्तविकता में यह भय आधारित व्यवस्था है। जुर्मानों की सूची में वे छात्र भी हैं जिन्होंने सामाजिक न्याय, फीस वृद्धि, या लैंगिक भेदभाव जैसे मुद्दों पर आवाज उठाई थी।
इससे दो अहम परिणाम सामने आए हैं:
- मुक्त भाषण का क्षरण – छात्र अब सवाल पूछने या प्रदर्शन करने से कतराते हैं। यह एक ऐसे “आत्म-सेंसरशिप” के दौर को जन्म देता है, जो लोकतांत्रिक शिक्षा के लिए घातक है।
- विश्वविद्यालय की बौद्धिक साख में गिरावट – अंतरराष्ट्रीय स्तर पर JNU की पहचान एक ‘विचारों की प्रयोगशाला’ के रूप में रही है। किंतु आज यह छवि धूमिल हो रही है। शैक्षणिक उत्कृष्टता से अधिक प्रशासनिक विवाद चर्चा का विषय बन गए हैं।
मूल प्रश्न: क्या असहमति अपराध है?
यह स्थिति एक व्यापक नैतिक प्रश्न उठाती है—क्या लोकतांत्रिक भारत में असहमति अब अपराध मानी जाएगी? विश्वविद्यालय, खासकर JNU जैसे संस्थान, समाज को विचारशील नागरिक देते हैं। यदि वहां असहमति की गुंजाइश खत्म हो गई, तो लोकतंत्र का चरित्र कमजोर पड़ेगा।
JNU की स्थिति यह भी दिखाती है कि कैसे राजनीतिक विचारधाराएं विश्वविद्यालयी प्रशासन में प्रवेश कर शैक्षणिक स्वतंत्रता को सीमित कर सकती हैं। यह प्रवृत्ति केवल JNU तक सीमित नहीं है; देश के अन्य विश्वविद्यालय भी धीरे-धीरे इस मार्ग पर बढ़ रहे हैं।
संविधानिक और नैतिक दृष्टिकोण से विश्लेषण
संविधान के अनुच्छेद 19(2) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर "यथोचित प्रतिबंध" की अनुमति देता है—लेकिन "यथोचित" की सीमा क्या है, यह प्रशासन नहीं बल्कि न्यायालय और लोकतांत्रिक विवेक तय करता है। जब विश्वविद्यालय प्रशासन अपने ही छात्रों पर अत्यधिक वित्तीय दंड लगाए या हर असहमति को अनुशासनहीनता बताए, तो यह अनुच्छेद की आत्मा के विपरीत है।
इसके अलावा, शिक्षा नीति के नैतिक उद्देश्यों की दृष्टि से देखें तो विश्वविद्यालयों को संवाद, सहिष्णुता और विवेक के केंद्र होने चाहिए। JNU में जिस प्रकार जुर्मानों और नोटिसों की संस्कृति पनप रही है, वह न केवल शैक्षणिक बल्कि नैतिक अधःपतन का भी द्योतक है।
आगे की राह: पुनर्संवाद की आवश्यकता
यदि JNU अपनी बौद्धिक विरासत को बचाना चाहता है, तो उसे प्रशासनिक नियंत्रण के बजाय संवाद की परंपरा को पुनर्जीवित करना होगा। कुछ संभावित उपाय:
- आंतरिक शिकायत समाधान तंत्र (Internal Mediation Forum) – ताकि छोटे विवाद अदालत के बजाय विश्वविद्यालय स्तर पर सुलझाए जा सकें।
- दंड के बजाय परामर्श की नीति – छात्रों को गलती पर दंडित करने की बजाय मार्गदर्शन दिया जाए।
- फैकल्टी-स्टूडेंट संवाद समिति – नियमित अंतराल पर दोनों पक्षों के बीच खुली बैठकें हों, ताकि असंतोष को आवाज मिल सके।
- राजनीतिक तटस्थता की गारंटी – विश्वविद्यालय प्रशासन को किसी राजनीतिक विचारधारा से ऊपर उठकर निर्णय लेना चाहिए।
निष्कर्ष: एक विश्वविद्यालय का मौन, एक लोकतंत्र का संकेत
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का मौन केवल एक संस्थान की कहानी नहीं है—यह भारत के लोकतंत्र की आत्मा पर एक प्रश्नचिह्न है। जब मुक्त भाषण पर जुर्माना लगता है और असहमति पर मुकदमा, तो यह केवल छात्र राजनीति का मुद्दा नहीं रह जाता, बल्कि नागरिक स्वतंत्रता का भी हो जाता है।
JNU की जो पहचान रही है—विचारों की बहुलता और संवाद की संस्कृति—उसे पुनर्जीवित करने का दायित्व अब विश्वविद्यालय प्रशासन, शिक्षकों और छात्रों तीनों पर समान रूप से है। यदि यह पुनर्संवाद न हुआ, तो भारत के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक का इतिहास आने वाली पीढ़ियों के लिए केवल “कैसे विचारों का मौन बनाया गया”—इस कहानी में सिमट कर रह जाएगा।
संदर्भ
- The Indian Express Investigation, 2025.
- Fines Data Report, 2025.
- दिल्ली उच्च न्यायालय अभिलेख, 2011–2025 (सारांशित डेटा)
- शिक्षा मंत्रालय वार्षिक रिपोर्ट, 2024–25
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