Deepak Prakash Sworn in as Bihar Minister in Jeans Without Fighting Election – Dynastic Politics or Fresh Blood?
बिहार में दीपक प्रकाश की नियुक्ति : वंशवादी राजनीति, संवैधानिक उपबंध और लोकतांत्रिक आदर्शों का अंतर्विरोध
भूमिका
21 नवंबर 2025 को बिहार में उपेंद्र कुशवाहा के पुत्र दीपक प्रकाश को बिना किसी निर्वाचित पद पर रहते हुए मंत्री नियुक्त किया गया। शपथ ग्रहण के दौरान उनकी अनौपचारिक वेशभूषा चर्चा का विषय बनी, परंतु यह घटना महज़ व्यक्तिगत शैली का मामला नहीं है। यह भारतीय लोकतंत्र में वंशवादी राजनीति, संवैधानिक प्रावधानों के लचीले उपयोग और जन-प्रतिनिधित्व के अवमूल्यन के गहरे संकट को उजागर करती है।
1. संवैधानिक व्यवस्था : उद्देश्य और विचलन
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 164(4) यह अनुमति देता है कि कोई गैर-विधायक व्यक्ति छह माह तक मंत्री रह सकता है, बशर्ते वह इस अवधि के भीतर विधानमंडल का सदस्य बन जाए।
मूल उद्देश्य—विशेषज्ञता एवं प्रशासनिक दक्षता वाले तकनीकी विशेषज्ञों को सरकार में शामिल करना—स्पष्टतः लोकतांत्रिक शासन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए था।
परंतु व्यवहार में यह प्रावधान धीरे-धीरे राजनीतिक परिवारों के उत्तराधिकार को वैधानिक स्वरूप प्रदान करने का साधन बन गया। पिछले कई दशकों में कई उदाहरण—संजय गांधी से लेकर उभरते क्षेत्रीय दलों के वारिसों तक—संकेत देते हैं कि जनादेश प्राप्त किए बिना सत्ता में प्रवेश की प्रवृत्ति निरंतर सशक्त हुई है।
यह विचलन संविधान की उस भावना के प्रतिकूल है, जिसमें लोकतांत्रिक वैधता नागरिकों की प्रत्यक्ष स्वीकृति से उत्पन्न मानी गई है।
2. वंशवादी राजनीति के संरचनात्मक प्रभाव
वंशवाद केवल सत्ता का पारिवारिक हस्तांतरण नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक अवसर-समानता के लिए एक दीर्घकालिक चुनौती है। इसके प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हैं—
(क) अवसरों की सीमितता
राजनीतिक परिवारों के बाहर के युवाओं के लिए उच्च स्तर के पदों तक पहुँचना अत्यंत कठिन हो जाता है। इससे राजनीतिक पूल संकुचित होता है और प्रतिभा का व्यापक उपयोग बाधित होता है।
(ख) संगठनात्मक योग्यता का ह्रास
पार्टी के भीतर वर्षों कार्य करने वाले कार्यकर्ता नेतृत्व-निर्माण की प्रक्रिया से बाहर होते जाते हैं। इससे राजनीतिक दल ‘संगठन आधारित दल’ से ‘परिवार आधारित दल’ में रूपांतरित होने लगते हैं।
(ग) जन-प्रतिनिधित्व का क्षरण
जब कोई व्यक्ति बिना प्रत्यक्ष जनाधार के (और कई बार न्यूनतम राजनीतिक अनुभव के साथ) मंत्री पद तक पहुँचता है, तो यह लोकप्रिय संप्रभुता को चुनौती देता है।
(घ) क्षेत्रीय दलों में वंशवाद का गहरा प्रभाव
राष्ट्रीय दलों के विपरीत, कई क्षेत्रीय दल राजनीतिक ब्रांडिंग के लिए परिवार-आधारित पहचान पर अधिक निर्भर होते हैं। कुशवाहा परिवार का उदाहरण इसी व्यापक संरचना का हिस्सा है।
3. ‘नई पीढ़ी’ का तर्क : विश्लेषणात्मक मूल्यांकन
वंशवाद के समर्थन में अक्सर तर्क दिया जाता है कि राजनीति में नई पीढ़ी का प्रवेश आवश्यक है।
यह तर्क तभी लोकतांत्रिक रूप से मान्य है जब यह नई पीढ़ी—
- पार्टी के भीतर प्रतिस्पर्धी प्रक्रिया,
- सार्वजनिक सहभागिता,
- राजनीतिक सामाजिककरण,
के माध्यम से अपने लिये स्थान अर्जित करे।
यदि राजनीतिक पूँजी केवल वंशानुक्रम से आती हो, तो यह ‘परिवर्तन’ नहीं, बल्कि ‘उत्तराधिकार’ ही है। दीपक प्रकाश का मामला इसी प्रकार का उदाहरण है, जहाँ अनुभव और सार्वजनिक मान्यता की तुलना में पारिवारिक प्रभाव अधिक निर्णायक रहा।
4. वेशभूषा विवाद : प्रतीकवाद और सार्वजनिक संदेश
शपथ ग्रहण में पहनी गई जींस-शर्ट पर विवाद सतही दिखाई दे सकता है, परंतु लोकतांत्रिक प्रतीकवाद के संदर्भ में इसका महत्व है।
मंत्री पद मात्र प्रशासनिक भूमिका नहीं, बल्कि एक संवैधानिक गरिमा का प्रतिनिधित्व करता है।
बिना जनादेश के मंत्री बने व्यक्ति द्वारा अनौपचारिक वेशभूषा अपनाना इस गरिमा के प्रति संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है। यह इस बहस को और प्रबल करता है कि पद किसे और किस प्रक्रिया से मिल रहा है।
5. आगे की राह : सुधारों की आवश्यकता
यदि भारतीय लोकतंत्र को वंशवाद की पकड़ से मुक्त कर सशक्त बनाना है, तो निम्नलिखित सुधार आवश्यक प्रतीत होते हैं—
(क) अनुच्छेद 164(4) का पुनर्संरचना
इस प्रावधान को स्पष्ट रूप से तकनीकी विशेषज्ञों तक सीमित किया जाए, ताकि इसका उपयोग संवैधानिक मंशा के अनुरूप हो सके।
(ख) राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र
भारत में Intra-party democracy law की आवश्यकता लंबे समय से महसूस की जा रही है। पदों के चयन, टिकट वितरण और नेतृत्व-निर्माण में पारदर्शिता लोकतांत्रिक संस्कृति को मजबूत करेगी।
(ग) उप-चुनाव प्रक्रिया की सख्ती
छह माह के अंदर निर्वाचन की अनिवार्यता को अधिक कठोर बनाया जाए, ताकि यह अवधि दल-बदल या सत्ता संरक्षण का साधन न बने।
समापन
दीपक प्रकाश की मंत्री पद पर नियुक्ति कोई एकांत घटना नहीं, बल्कि उस प्रवृत्ति का नवीनतम उदाहरण है जहाँ सत्ता का वैध आधार जन-समर्थन नहीं, बल्कि वंशानुक्रम बनता जा रहा है।
यदि भारतीय लोकतंत्र को वास्तव में “जनता द्वारा, जनता के लिए” बनाए रखना है, तो राजनीतिक नेतृत्व के निर्माण की प्रक्रिया को अधिक समावेशी, प्रतिस्पर्धी और पारदर्शी बनाना अनिवार्य है। अन्यथा, आने वाले वर्षों में हर राज्य और हर दल में नए “राजनैतिक उत्तराधिकारी” लोकतंत्र की मूल भावना को चुनौती देते रहेंगे।
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