Attack on the Supreme Court: A Test of Judicial Dignity, Religious Tolerance, and Democracy in India
संपादकीय: सुप्रीम कोर्ट पर हमला — न्यायिक गरिमा, धार्मिक असहिष्णुता और लोकतंत्र की परीक्षा
6 अक्टूबर 2025 का दिन भारतीय न्यायिक इतिहास में एक अभूतपूर्व और दुखद घटना के रूप में दर्ज हो गया। देश की सर्वोच्च अदालत — सुप्रीम कोर्ट — जहां संविधान की आत्मा जीवित रहती है, वहां मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई पर एक अधिवक्ता द्वारा जूता फेंकने का प्रयास किया गया। यह केवल एक व्यक्ति की उन्मत्त हरकत नहीं थी, बल्कि उस मानसिकता का प्रतीक बन गया है जो असहमति को असभ्यता और हिंसा के माध्यम से व्यक्त करने लगी है।
🔹 न्यायपालिका पर हमला: संस्थागत गरिमा का हनन
सुप्रीम कोर्ट में इस प्रकार का कृत्य भारतीय लोकतंत्र की नींव को झकझोर देता है। न्यायपालिका केवल एक संस्था नहीं, बल्कि संविधान की आत्मा का रक्षक है। जब न्यायालय पर ही हमला होता है, तो यह न केवल किसी व्यक्ति पर आघात होता है, बल्कि संवैधानिक संतुलन पर भी सीधा प्रहार होता है।
सीजेआई गवई ने इस तनावपूर्ण क्षण में जिस संयम, मर्यादा और धैर्य का परिचय दिया, वह भारत की न्यायिक परंपरा की सर्वोच्चता को पुनः स्थापित करता है। यह उनका व्यक्तिगत नहीं, बल्कि संवैधानिक आचरण का प्रदर्शन था — जहाँ भावनाओं के स्थान पर विवेक ने विजय पाई।
🔹 धार्मिक भावनाएँ बनाम न्यायिक विवेक
घटना के पीछे की पृष्ठभूमि भी उतनी ही चिंताजनक है। यह कांड उस समय हुआ जब मध्य प्रदेश के खजुराहो मंदिर में विष्णु मूर्ति से संबंधित विवाद की सुनवाई चल रही थी।
सीजेआई द्वारा कही गई एक टिप्पणी — “अगर आप भगवान विष्णु के प्रबल भक्त हैं, तो उनसे प्रार्थना कीजिए, ध्यान लगाइए” — को सोशल मीडिया पर तोड़-मरोड़कर धार्मिक अपमान के रूप में प्रसारित किया गया।
यह न केवल डिजिटल असत्य प्रचार (disinformation) का उदाहरण है, बल्कि यह दिखाता है कि कैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म न्यायिक संस्थाओं के प्रति घृणा और भ्रम फैलाने के माध्यम बन रहे हैं।
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता की आधारशिला पर टिका है। न्यायालय धर्म से ऊपर उठकर निर्णय देता है — और यही उसकी विश्वसनीयता का मूल है। न्यायाधीशों को धार्मिक या भावनात्मक दबाव में लाने की कोशिशें अंततः Rule of Law को कमजोर करती हैं।
🔹 बार काउंसिल और संस्थागत जवाबदेही
दिल्ली बार काउंसिल और बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा आरोपी वकील राकेश किशोर की प्रैक्टिस निलंबित करना त्वरित और आवश्यक कदम था।
यह संदेश देना आवश्यक है कि अदालत की अवमानना केवल शब्दों से नहीं, बल्कि आचरण से भी होती है।
फिर भी, यह घटना यह भी दिखाती है कि कोर्ट परिसरों की सुरक्षा व्यवस्था, और अधिवक्ताओं में संविधान-संवेदनशील आचरण का प्रशिक्षण, दोनों को पुनर्विचार की आवश्यकता है।
बार काउंसिल को चाहिए कि अधिवक्ता प्रशिक्षण में न्यायिक आचरण, शिष्टाचार और डिजिटल जिम्मेदारी को अनिवार्य पाठ्यक्रम बनाया जाए।
🔹 राजनीतिक प्रतिक्रिया और लोकतंत्र का दायरा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस घटना की कठोर निंदा करते हुए कहा कि "यह हर भारतीय के लिए आक्रोश का विषय है, ऐसी हरकतों का हमारे समाज में कोई स्थान नहीं।"
वहीं, विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने इसे “संविधान पर हमला” करार दिया। दोनों ही वक्तव्य अपने-अपने दृष्टिकोण से सही हैं — क्योंकि यह घटना किसी राजनीतिक मतभेद की नहीं, बल्कि संवैधानिक आदर्शों के उल्लंघन की थी।
यह तथ्य भी गौर करने योग्य है कि लोकतंत्र में असहमति विचार और संवाद के माध्यम से प्रकट की जाती है, न कि असहिष्णुता और हिंसा से। जब असहमति हिंसक रूप लेती है, तो वह स्वतः ही लोकतांत्रिक विमर्श की आत्मा को नष्ट कर देती है।
🔹 मीडिया, मिथ्या सूचना और नैतिकता
यह घटना मीडिया और सोशल प्लेटफॉर्म्स के लिए भी नैतिक परीक्षा का क्षण है।
जब किसी न्यायिक टिप्पणी को संदर्भ से काटकर प्रसारित किया जाता है, तो वह सिर्फ न्यायपालिका को ही नहीं, समाज के धार्मिक और भावनात्मक संतुलन को भी अस्थिर करती है।
समाज को यह समझना होगा कि “सूचना की स्वतंत्रता” का अर्थ “भ्रम फैलाने की स्वतंत्रता” नहीं है।
न्यायिक पत्रकारिता और सोशल मीडिया मॉडरेशन की जिम्मेदारी अब पहले से अधिक बढ़ गई है। सुप्रीम कोर्ट के प्रति झूठी या भ्रामक सूचनाओं का प्रसार Contempt of Court के दायरे में आना चाहिए — ताकि भविष्य में कोई इस मर्यादा का उल्लंघन न कर सके।
🔹 लोकतंत्र की आत्मा: सहिष्णुता और संवाद
भारत का लोकतंत्र केवल चुनावों से नहीं चलता; यह संवाद, सहिष्णुता और विवेक पर आधारित है।
यह घटना हमें यह याद दिलाती है कि संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा की रक्षा करना हर नागरिक का कर्तव्य है।
असहमति एक अधिकार है, किंतु उसे व्यक्त करने का तरीका ही लोकतंत्र की परिपक्वता दर्शाता है।
🔹 निष्कर्ष: न्यायपालिका की गरिमा, समाज की परिपक्वता
यह घटना केवल एक व्यक्ति की गलती नहीं, बल्कि हमारे समाज की मानसिकता के क्षरण का भी प्रतिबिंब है।
धार्मिक आस्था, यदि विवेक से न जुड़ी हो, तो वह अंधभक्ति में बदल जाती है — और यही अंधभक्ति लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
हमें यह समझना होगा कि न्यायपालिका पर हमला राष्ट्र पर हमला है।
हमें एकजुट होकर यह सुनिश्चित करना होगा कि —
“न्याय, विवेक और सहिष्णुता — यही भारतीय लोकतंत्र की पहचान बने रहें।”
🔸 संभावित UPSC प्रश्न
- न्यायपालिका पर सार्वजनिक अवमानना की घटनाएँ लोकतंत्र की नींव को कैसे प्रभावित करती हैं? चर्चा कीजिए।
- धार्मिक असहिष्णुता और न्यायिक स्वतंत्रता — क्या दोनों में टकराव बढ़ रहा है? उदाहरण सहित विश्लेषण कीजिए।
- सोशल मीडिया के युग में न्यायिक गरिमा की रक्षा के लिए किन सुधारों की आवश्यकता है?
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