राष्ट्रीय हित ही सर्वोपरि: भारत की बदलती कूटनीतिक दिशा
प्रस्तावना : : न मित्र स्थायी, न शत्रु
अंतरराष्ट्रीय राजनीति का यथार्थवादी दृष्टिकोण बार-बार यह स्पष्ट करता है कि विश्व राजनीति में न कोई स्थायी मित्र होता है और न ही कोई स्थायी शत्रु। यदि कुछ स्थायी है, तो वह है प्रत्येक राष्ट्र का राष्ट्रीय हित (National Interest)। बदलती वैश्विक परिस्थितियों में यही राष्ट्रीय हित कूटनीतिक रुख, विदेश नीति के निर्णय और अंतरराष्ट्रीय समीकरणों को निर्धारित करता है।
वर्तमान समय में भारत की विदेश नीति इसी सिद्धांत का मूर्त रूप प्रतीत हो रही है। जहाँ एक ओर भारत और अमेरिका के बीच कुछ असहजता और मतभेद देखने को मिल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भारत और चीन, सीमा विवाद और गहरी अविश्वास की खाई के बावजूद संवाद और संबंध सुधारने की दिशा में आगे बढ़ते नज़र आ रहे हैं। यह परिदृश्य एक बार फिर यह रेखांकित करता है कि भावनात्मक स्तर पर मित्रता या शत्रुता से परे जाकर, अंतरराष्ट्रीय राजनीति का आधार केवल और केवल हित-आधारित यथार्थवाद है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारत के विदेश नीति इतिहास में यह कथन अनेक बार सत्य सिद्ध हुआ है।
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शीतयुद्ध काल:
- भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के माध्यम से यह संदेश दिया कि वह किसी स्थायी मित्रता या शत्रुता में विश्वास नहीं करता, बल्कि अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को बनाए रखना चाहता है।
- एक ओर भारत सोवियत संघ के साथ रक्षा और आर्थिक सहयोग बढ़ाता रहा, तो दूसरी ओर अमेरिका और पश्चिमी देशों से भी तकनीकी और औद्योगिक साझेदारी करता रहा।
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पोस्ट-1991 युग:
- शीतयुद्ध के अंत के बाद भारत ने अमेरिका के साथ संबंधों को नई ऊँचाई पर पहुँचाया।
- रूस के साथ ऐतिहासिक साझेदारी कायम रही, लेकिन भारत ने चीन और आसियान देशों से भी गहरे आर्थिक रिश्ते बनाए।
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21वीं सदी का परिदृश्य:
- 2008 के सिविल न्यूक्लियर डील से भारत–अमेरिका संबंधों में अभूतपूर्व प्रगाढ़ता आई।
- इसी काल में भारत–चीन आर्थिक सहयोग भी तेज़ी से बढ़ा, भले ही सीमा विवाद समानांतर रूप से चलता रहा।
- यह दिखाता है कि भारत ने हर समय व्यावहारिकता और हित को प्राथमिकता दी।
भारत–अमेरिका समीकरण: असहजता और अवसर
भारत और अमेरिका के बीच संबंधों को 21वीं सदी में "रणनीतिक साझेदारी" की संज्ञा दी गई है। दोनों देशों ने रक्षा, ऊर्जा, प्रौद्योगिकी, आतंकवाद-रोधी सहयोग और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में साझेदारी बढ़ाई। QUAD इसका उदाहरण है।
लेकिन हाल के समय में असहजता भी स्पष्ट हुई है:
- व्यापारिक मतभेद: अमेरिका ने भारत पर शुल्क संबंधी दबाव बनाए रखा। भारत भी आत्मनिर्भरता और घरेलू उद्योग को प्राथमिकता देता है, जिससे टकराव की स्थिति बनी।
- तकनीकी सहयोग: आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, सेमीकंडक्टर और रक्षा तकनीक ट्रांसफर जैसे मुद्दों पर अमेरिका का दृष्टिकोण हमेशा खुला और पारदर्शी नहीं रहा।
- भूराजनीतिक दृष्टि: अमेरिका का ध्यान रूस–यूक्रेन युद्ध और ताइवान पर अधिक केंद्रित है, जिससे भारत को अपेक्षित प्राथमिकता नहीं मिल रही।
- दक्षिण एशिया नीति: पाकिस्तान के साथ अमेरिका का बदलता व्यवहार भारत के लिए चिंताजनक है।
भारत की असंतुष्टि इसी तथ्य को उजागर करती है कि अमेरिका मित्र है, लेकिन स्थायी और निःशर्त मित्र नहीं।
भारत–चीन समीकरण: प्रतिस्पर्धा और संवाद का द्वंद्व
भारत–चीन संबंधों का आधार "सहयोग और टकराव" दोनों है।
- सीमा विवाद और सैन्य तनाव: गलवान घाटी की झड़प (2020) और LAC पर लगातार तनातनी ने संबंधों को गहराई से प्रभावित किया।
- आर्थिक परस्परता: चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। लाखों करोड़ रुपये का द्विपक्षीय व्यापार इस तथ्य को रेखांकित करता है कि तनाव के बावजूद आर्थिक हित दोनों देशों को जोड़ते हैं।
- बहुपक्षीय मंच: BRICS, SCO और G20 जैसे मंचों पर भारत–चीन एक-दूसरे के बिना संतुलन स्थापित नहीं कर सकते।
- चीन का भू-रणनीतिक दृष्टिकोण: भारत के पड़ोस में चीन की सक्रियता (CPEC, BRI, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव) भारत के लिए चिंता का विषय है। फिर भी, संवाद की आवश्यकता भारत की रणनीतिक विवशता है।
यही कारण है कि भारत "विरोध और सहयोग" दोनों ध्रुवों को साथ लेकर चलने का प्रयास कर रहा है।
राष्ट्रीय हित की स्थिरता
यह परिदृश्य इस कथन को पुष्ट करता है कि राष्ट्रीय हित ही स्थायी है।
- सुरक्षा हित:
- चीन से सीमा पर शांति और अमेरिका से रक्षा तकनीक का सहयोग—दोनों भारत की सुरक्षा जरूरत हैं।
- आर्थिक हित:
- अमेरिका भारत को निवेश और प्रौद्योगिकी देता है, जबकि चीन भारत का बड़ा व्यापारिक साझेदार है।
- भूराजनीतिक हित:
- बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में भारत को दोनों ध्रुवों से संवाद बनाए रखना होगा।
- रणनीतिक स्वायत्तता:
- किसी एक खेमे में झुकाव भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को कमजोर कर सकता है।
बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था और भारत की भूमिका
आज का वैश्विक परिदृश्य शीतयुद्ध जैसी द्विध्रुवीयता से हटकर बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ रहा है। इसमें:
- अमेरिका और चीन के बीच शक्ति संघर्ष चल रहा है।
- रूस–यूक्रेन युद्ध ने पश्चिमी दुनिया और रूस को आमने-सामने ला दिया है।
- यूरोप ऊर्जा और सुरक्षा संकट से जूझ रहा है।
- एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका नए शक्ति केंद्र बन रहे हैं।
इस स्थिति में भारत का लक्ष्य है:
- अमेरिका से तकनीकी व रक्षा सहयोग।
- चीन के साथ व्यापार और सीमित सहयोग।
- रूस से ऊर्जा और रक्षा सहयोग।
- यूरोप, जापान और ASEAN के साथ आर्थिक संबंध।
यही मल्टी-अलाइनमेंट (Multi-Alignment) नीति है, जो भारत की विदेश नीति का वर्तमान चेहरा है।
UPSC के दृष्टिकोण से निहितार्थ
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यथार्थवाद बनाम आदर्शवाद
- UPSC GS-II में यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि भारत की विदेश नीति किस हद तक आदर्शवाद पर आधारित है और किस हद तक यथार्थवाद पर।
- वर्तमान परिदृश्य यह दिखाता है कि यथार्थवादी दृष्टिकोण प्रबल है।
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रणनीतिक स्वायत्तता
- UPSC Essay और GS-II दोनों में भारत की "Strategic Autonomy" पर चर्चा अपेक्षित है।
- यह स्वायत्तता ही भारत को अमेरिका और चीन दोनों के साथ संतुलन साधने का अवसर देती है।
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बहुध्रुवीयता में भारत की भूमिका
- GS-II/IR में प्रश्न आ सकता है कि भारत किस प्रकार बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में एक "Balancing Power" की भूमिका निभा रहा है।
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सुरक्षा–विकास संतुलन
- UPSC GS-III में यह पूछा जा सकता है कि भारत कैसे अपने आर्थिक विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा को समानांतर रूप से आगे बढ़ा रहा है।
निष्कर्ष
अंतरराष्ट्रीय संबंधों की जटिलताओं को देखते हुए यह स्पष्ट है कि मित्रता और शत्रुता कभी स्थायी नहीं होती। स्थायी होता है तो केवल राष्ट्रीय हित।
भारत की वर्तमान विदेश नीति इसका जीवंत उदाहरण है—जहाँ अमेरिका से मतभेदों के बावजूद साझेदारी कायम है और चीन से तनाव के बावजूद संवाद जारी है। यह व्यावहारिकता ही भारत की शक्ति है।
भारत का लक्ष्य होना चाहिए कि वह रणनीतिक लचीलापन बनाए रखे, बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में एक सशक्त ध्रुव बने, और अपने राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखते हुए वैश्विक शांति और स्थिरता में रचनात्मक योगदान करे।
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