महाराष्ट्र सरकार का निर्णय: कार्य घंटे बढ़ाने पर बहस
(UPSC GS पेपर 2 एवं 3 के दृष्टिकोण से संपादकीय विश्लेषण)
प्रस्तावना
हाल ही में महाराष्ट्र मंत्रिमंडल ने एक अहम निर्णय लिया है, जिसके तहत निजी क्षेत्र में कार्यरत कर्मचारियों के अधिकतम कार्य घंटे 9 से बढ़ाकर 10 घंटे प्रतिदिन करने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। यह बदलाव केवल राज्य स्तरीय औद्योगिक नीति तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे जुड़े श्रम अधिकार, सामाजिक सुरक्षा, श्रमिक कल्याण और आर्थिक उत्पादकता जैसे व्यापक मुद्दे भी उठते हैं। UPSC की दृष्टि से यह निर्णय राज्य नीति, श्रम कानून सुधार, श्रम बाजार लचीलापन, तथा सामाजिक न्याय से संबंधित प्रश्नों को समझने का अवसर प्रदान करता है।
पृष्ठभूमि: भारत में श्रम कानून और कार्य समय
- भारतीय श्रम कानून ऐतिहासिक रूप से श्रमिक कल्याण पर आधारित रहे हैं।
- Factories Act, 1948 और बाद में आए Occupational Safety, Health and Working Conditions Code, 2020 के तहत कार्य समय और कार्य की परिस्थितियों को नियमित किया गया है।
- सामान्यतः कार्य घंटे 8 घंटे प्रतिदिन और 48 घंटे प्रति सप्ताह तय किए जाते हैं।
- कोरोना महामारी के बाद कई राज्यों ने श्रम सुधारों के नाम पर कार्य घंटे बढ़ाने की कोशिश की थी, जिसका औचित्य "आर्थिक पुनरुद्धार" बताया गया।
संभावित सकारात्मक प्रभाव
-
औद्योगिक उत्पादकता में वृद्धि
- लंबे कार्य घंटे से कंपनियों को उत्पादन बढ़ाने और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में टिकने में मदद मिल सकती है।
- Ease of Doing Business रैंकिंग और निवेश आकर्षण में सकारात्मक संकेत।
-
श्रम बाजार की लचीलापन
- यह कदम निवेशकों को श्रम कानूनों के अधिक लचीलेपन का संदेश देगा।
- "China+1" रणनीति के तहत महाराष्ट्र खुद को एक बेहतर निवेश गंतव्य के रूप में प्रस्तुत कर सकता है।
-
आर्थिक विकास की संभावना
- यदि उद्योग अधिक कार्य घंटे निकाल पाते हैं तो इससे GDP वृद्धि दर और निर्यात क्षमता को बढ़ावा मिल सकता है।
नकारात्मक प्रभाव और चुनौतियाँ
-
श्रमिकों के स्वास्थ्य और मानसिक तनाव
- लगातार लंबे कार्य घंटे से श्रमिकों में थकान, उत्पादकता में गिरावट, दुर्घटनाओं की संभावना और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है।
- WHO की रिपोर्ट के अनुसार, 55 घंटे से अधिक कार्य सप्ताह से अत्यधिक कार्य-जनित बीमारियों का खतरा बढ़ता है।
-
श्रमिक अधिकारों का हनन
- यह कदम श्रमिक कल्याण के बुनियादी सिद्धांतों और ILO Convention on Working Hours के खिलाफ माना जा सकता है।
- "सामाजिक न्याय" के संवैधानिक मूल्य और अनुच्छेद 42 (कार्य की उचित परिस्थितियाँ और मातृत्व राहत) पर सवाल उठ सकते हैं।
-
आर्थिक असमानता में वृद्धि
- निजी क्षेत्र में श्रमिक और नियोक्ता के बीच शक्ति-संतुलन असमान है।
- इससे "श्रमिक शोषण" और "अनौपचारिक श्रम" की समस्या और गहरी हो सकती है।
संवैधानिक और नैतिक दृष्टिकोण
- अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार श्रमिकों की कार्य परिस्थितियों से गहराई से जुड़ा है।
- अनुच्छेद 39 (राज्य की नीति निदेशक तत्व) सामाजिक-आर्थिक न्याय और श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा का दायित्व राज्य को देता है।
- नैतिक दृष्टि से, आर्थिक लाभ के नाम पर श्रमिक कल्याण की अनदेखी लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध जाती है।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य
- यूरोपीय देशों में "वर्क-लाइफ बैलेंस" पर जोर है और कार्य घंटे कम करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
- OECD देशों में औसत कार्य घंटे भारत की तुलना में कम हैं, परंतु उनकी उत्पादकता कहीं अधिक है।
- जापान जैसे देशों में "करोशी" (अत्यधिक काम से मृत्यु) की समस्या ने सरकारों को नीतियाँ बदलने पर मजबूर किया।
UPSC दृष्टिकोण से संभावित प्रश्न
-
GS पेपर 2 (Governance & Social Justice)
- श्रम सुधारों और सामाजिक न्याय के बीच संतुलन कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है?
- क्या लंबी कार्य अवधि संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन है?
-
GS पेपर 3 (Economy)
- श्रम बाजार में लचीलापन और आर्थिक विकास के बीच संबंध।
- क्या कार्य घंटे बढ़ाने से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित होगा?
-
Essay Paper
- “आर्थिक विकास बनाम श्रमिक कल्याण: भारत की नीति दुविधा”
निष्कर्ष
महाराष्ट्र सरकार का निर्णय केवल एक राज्य स्तरीय श्रम नीति नहीं है, बल्कि यह आर्थिक सुधार और सामाजिक न्याय के बीच संतुलन की एक बड़ी बहस को जन्म देता है।
जहाँ एक ओर यह उद्योग और निवेश के लिए सकारात्मक संकेत हो सकता है, वहीं दूसरी ओर श्रमिकों के स्वास्थ्य, जीवन की गुणवत्ता और अधिकारों पर नकारात्मक असर भी डाल सकता है।
UPSC के दृष्टिकोण से यह मुद्दा हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि भारत में आर्थिक विकास की राह किस हद तक श्रमिकों के अधिकारों और कल्याण की कीमत पर तय होनी चाहिए।
Comments
Post a Comment