महिलाओं की सुरक्षा: शहरी भारत में एक चुनौतीपूर्ण परिदृश्य
क्या कोई शहर वास्तव में सुरक्षित तब कहा जा सकता है, जब उसकी आधी आबादी (महिलाएँ) रात ढलते ही घरों में कैद हो जाएँ?
राष्ट्रीय वार्षिक रिपोर्ट एवं सूचकांक (एनएआरआई) 2025 इसी असहज प्रश्न को हमारे सामने रखती है। 31 शहरों में 12,770 महिलाओं के सर्वेक्षण पर आधारित यह रिपोर्ट केवल अपराध-सांख्यिकी नहीं, बल्कि महिलाओं की रोज़मर्रा की अनुभूतियों का सामाजिक आईना है।
शहरों का सुरक्षा मानचित्र
कोहिमा, विशाखापट्टनम, भुवनेश्वर, आइजोल, गंगटोक, ईटानगर और मुंबई—ये वे शहर हैं जो महिलाओं के लिए अपेक्षाकृत सुरक्षित माने गए।
वहीं पटना, जयपुर, फरीदाबाद, दिल्ली, कोलकाता, श्रीनगर और रांची सबसे निचली श्रेणी में आए।
यह विभाजन केवल कानून-व्यवस्था का सवाल नहीं है, बल्कि उस शहरी संस्कृति, सामाजिक सामंजस्य और संस्थागत प्रतिबद्धता का प्रतिबिंब है जो महिलाओं की स्वतंत्रता को परिभाषित करता है।
आंकड़े जो सोचने पर मजबूर करते हैं
- 60% महिलाओं ने अपने शहर को "सुरक्षित" माना, लेकिन 40% ने असुरक्षा जताई।
- रात होते ही सुरक्षा की धारणा ध्वस्त हो जाती है—सड़कें और सार्वजनिक परिवहन भय के स्थल बन जाते हैं।
- 2024 में 7% महिलाओं ने सार्वजनिक स्थानों पर उत्पीड़न का सामना किया, पर तीन में से केवल एक ने ही रिपोर्ट की।
- कार्यस्थलों पर 91% महिलाएँ सुरक्षित महसूस करती हैं, किंतु आधे से अधिक को यह तक पता नहीं कि POSH नीति लागू है या नहीं।
क्या यह परिदृश्य हमें यह नहीं सोचने पर विवश करता कि स्मार्ट सिटी केवल तकनीकी ढाँचे से नहीं, बल्कि सुरक्षित और न्यायपूर्ण सामाजिक वातावरण से बनती है?
पूर्वोत्तर बनाम महानगर
रिपोर्ट की सबसे दिलचस्प झलक पूर्वोत्तर के शहरों की है।
कोहिमा, आइजोल, गंगटोक और ईटानगर जैसे शहरों में महिलाओं की सार्वजनिक उपस्थिति सामान्य है। वहाँ लिंग समानता और सामुदायिक भागीदारी महिलाओं की सुरक्षा को सहज बनाते हैं।
इसके विपरीत, दिल्ली या पटना जैसे बड़े शहर, अपनी चमक-दमक के बावजूद, बुनियादी ढाँचों—जैसे स्ट्रीट लाइट, सुरक्षित परिवहन और पुलिस गश्त—में पिछड़ जाते हैं।
यह अंतर दर्शाता है कि महिला सुरक्षा केवल आकार और संसाधनों का नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण और राजनीतिक प्राथमिकताओं का प्रश्न है।
संविधान और नीति का आईना
महिलाओं की सुरक्षा संविधान की आत्मा से जुड़ा प्रश्न है।
अनुच्छेद 14, 15 और 21 सिर्फ कानूनी प्रावधान नहीं, बल्कि महिलाओं के जीवन और स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी हैं।
एनएआरआई की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि उसने एनसीआरबी के ‘ठंडे आँकड़ों’ से आगे बढ़कर ‘अनुभूत असुरक्षा’ को आवाज़ दी।
नीति-निर्माताओं के लिए यह संकेत है कि केवल क़ानून बनाना पर्याप्त नहीं—
- POSH कानून का वास्तविक क्रियान्वयन,
- सुरक्षित सार्वजनिक परिवहन,
- और महिला पुलिस बल की पर्याप्त उपस्थिति ही महिलाओं के भरोसे को पुनर्स्थापित कर सकती है।
समसामयिक खतरे
अब असुरक्षा केवल सड़क तक सीमित नहीं है।
साइबर बुलिंग, डिजिटल उत्पीड़न और ऑनलाइन धोखाधड़ी महिलाओं के लिए नए खतरे हैं।
यह चुनौती चार आयामों—शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, वित्तीय और डिजिटल—में सामने आती है।
क्या हमारी नीतियाँ इन नए मोर्चों पर पर्याप्त तैयार हैं? यही वह प्रश्न है जो रिपोर्ट हमें पूछने पर विवश करती है।
एक साझा जिम्मेदारी
राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष विजया राहतकर का कथन स्मरणीय है—
"हम हमेशा प्रणाली को दोष देते हैं, लेकिन क्या हमने हेल्पलाइन का उपयोग किया, जागरूकता अभियानों में भाग लिया, या सार्वजनिक स्थलों को सुरक्षित बनाने में अपनी भूमिका निभाई?"
सच यह है कि महिलाओं की सुरक्षा केवल सरकार या पुलिस का एजेंडा नहीं।
यह नागरिक समाज, समुदायों और प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी है।
निष्कर्ष: एक सुरक्षित भविष्य की ओर
भारत 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने का सपना देख रहा है। लेकिन यह सपना अधूरा रहेगा, यदि हमारी बेटियाँ, बहनें और सहकर्मी रात के अंधेरे में स्वतंत्रता से नहीं चल सकेंगी।
एनएआरआई 2025 हमें चेतावनी भी देता है और रास्ता भी दिखाता है।
सुरक्षा केवल अपराध कम करने का नाम नहीं है, बल्कि महिलाओं को भयमुक्त वातावरण में जीने, काम करने और सपने देखने का अवसर देने का वादा है।
जब तक यह वादा पूरा नहीं होता, तब तक शहरी भारत का विकास अधूरा है।
Country ki aadhi abadi agar dar ke Saye me ji rahi hai....har pal astrakhan ka bhav rahta ho...to vikash ki baat vyarth hai
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