ग़ाज़ा और अमेरिकी नीति: साम्राज्यवादी मानसिकता की पुनरावृत्ति
✍️ Arvind Singh PK Rewa
प्रस्तावना
डोनाल्ड ट्रंप के दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के साथ ही वैश्विक राजनीति में एक नई हलचल शुरू हो गई है। किसी दिन अमेरिका–चीन संबंधों को लेकर बयानबाज़ी सुर्खियों में रहती है, तो किसी दिन रूस या कनाडा पर उसकी नीतियों की चर्चा होती है। इसी क्रम में अब ग़ाज़ा पट्टी को लेकर ट्रंप के कथित बयान ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है।
ख़बरों के अनुसार, ट्रंप ने कहा कि “ग़ाज़ा अब अमेरिका का है।” यदि यह कथन सत्य है, तो यह न केवल अंतरराष्ट्रीय कानूनों की अवहेलना है, बल्कि उपनिवेशवादी मानसिकता के पुनर्जागरण का संकेत भी है। यह परिस्थिति अमेरिका की वैश्विक भूमिका, नैतिक वैधता और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के पालन पर गंभीर प्रश्न खड़े करती है।
1. ग़ाज़ा पट्टी का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
ग़ाज़ा पट्टी, जिसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय फिलिस्तीन का हिस्सा मानता है, दशकों से संघर्ष और अशांति का प्रतीक रही है।
1948 में इज़राइल की स्थापना के साथ ही यह क्षेत्र विवादों का केंद्र बन गया।
1967 के छह-दिवसीय युद्ध में इज़राइल ने इस पर कब्ज़ा किया, यद्यपि 2005 में उसने अपनी सेनाएँ हटा लीं, परन्तु ग़ाज़ा अब भी इज़राइली नाकेबंदी और नियंत्रण में है।
यह दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है, जहाँ लाखों लोग मानवीय संकट और सीमित संसाधनों के बीच जीवन यापन कर रहे हैं।
ऐसे में यदि अमेरिका वास्तव में ग़ाज़ा पर कब्ज़े की योजना बना रहा है, तो यह एक और उपनिवेशवादी हस्तक्षेप होगा, जो न केवल क्षेत्रीय स्थिरता को प्रभावित करेगा बल्कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को भी चुनौती देगा।
2. साम्राज्यवाद की वापसी: ट्रंप की बयानबाज़ी का संकेत
ट्रंप का यह कथित बयान केवल राजनीतिक बयानबाज़ी नहीं, बल्कि साम्राज्यवाद की पुनरावृत्ति का संकेत देता है।
19वीं और 20वीं सदी में यूरोपीय शक्तियों ने “सभ्यता” के नाम पर एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में उपनिवेश बनाए थे।
आज जब विश्व समुदाय संप्रभुता और आत्मनिर्णय के अधिकार को सर्वोच्च मानता है, तब किसी महाशक्ति द्वारा किसी अन्य क्षेत्र पर कब्ज़े की बात करना लोकतांत्रिक मूल्यों का अपमान है।
3. अमेरिकी हस्तक्षेप की परंपरा
अमेरिका का इतिहास बताता है कि उसने बार-बार विदेशी भूमि में हस्तक्षेप किया है—चाहे वियतनाम हो, अफगानिस्तान, इराक या सीरिया।
हर बार उसने “शांति और स्थिरता” बनाए रखने का तर्क दिया, पर परिणाम अधिकतर विनाश, राजनीतिक अस्थिरता और मानवाधिकार संकट ही रहा।
ग़ाज़ा पर कब्ज़े की बात उसी मानसिकता की पुनरावृत्ति है, जो “सुरक्षा” के नाम पर अन्य देशों की संप्रभुता को कुचलती रही है।
4. अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन
संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 2(4) के अनुसार, किसी भी राष्ट्र द्वारा बलपूर्वक किसी दूसरे क्षेत्र पर कब्ज़ा अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन है।
ग़ाज़ा को अधिकांश देश फिलिस्तीन का अंग मानते हैं। ऐसे में अमेरिका का कथित कब्ज़ा न केवल अवैध बल्कि अनैतिक भी होगा।
साथ ही, 1949 के जिनेवा सम्मेलन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी क्षेत्र की जनसंख्या को जबरन विस्थापित करना युद्ध अपराध की श्रेणी में आता है।
ट्रंप द्वारा फिलिस्तीनियों को मिस्र या जॉर्डन भेजने का सुझाव न केवल अमानवीय है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के प्रतिकूल भी है।
5. फिलिस्तीनी जनता के अधिकारों की अनदेखी
ग़ाज़ा के लोग दशकों से नाकेबंदी, युद्ध और गरीबी का सामना कर रहे हैं।
वे अपने आत्मनिर्णय और स्वतंत्र अस्तित्व के अधिकार के लिए संघर्षरत हैं।
1948 में “नकबा” यानी फिलिस्तीनियों के महाविस्थापन की त्रासदी आज भी उनकी सामूहिक चेतना का हिस्सा है।
अमेरिकी कब्ज़े की कोई भी संभावना उनके लिए एक और “नकबा” साबित हो सकती है — एक नई पीढ़ी का विस्थापन और एक बार फिर न्याय से वंचित होना।
6. अमेरिका की दोहरी नीति और इज़राइल गठजोड़
अमेरिका लोकतंत्र और मानवाधिकारों का मुखर समर्थक होने का दावा करता है, परंतु उसकी नीतियाँ अकसर इस दावे का खंडन करती हैं।
रूस द्वारा यूक्रेन के क्षेत्रों पर कब्ज़े की वह आलोचना करता है, लेकिन इज़राइल की कार्रवाईयों पर मौन रहता है।
अमेरिका–इज़राइल गठजोड़ दशकों पुराना है। इज़राइल को मिलने वाली अरबों डॉलर की अमेरिकी सहायता उसे सैन्य अभियान चलाने में सक्षम बनाती है।
यदि अमेरिका ग़ाज़ा पर कब्ज़े की बात करता है, तो यह निस्संदेह उसी गठजोड़ का विस्तार होगा, जिससे फिलिस्तीनी जनता के अधिकार और अधिक कमजोर होंगे।
7. संभावित परिणाम और वैश्विक प्रभाव
अमेरिकी कब्ज़े की किसी भी कोशिश के गंभीर दुष्परिणाम होंगे:
- मध्य पूर्व में अस्थिरता: फिलिस्तीनी प्रतिरोध और उग्र हो जाएगा, जिससे पूरा क्षेत्र हिंसा के दायरे में आ सकता है।
- वैश्विक असंतोष: मुस्लिम जगत और वैश्विक दक्षिण के देशों में अमेरिका के खिलाफ रोष बढ़ेगा।
- आतंकवाद को बढ़ावा: इस तरह के कदम चरमपंथी संगठनों को नई ऊर्जा देंगे, जिससे वैश्विक सुरक्षा को खतरा होगा।
- राजनयिक संबंधों पर असर: अरब देशों के साथ अमेरिका के रिश्ते कमजोर पड़ सकते हैं।
8. समाधान की राह: युद्ध नहीं, वार्ता
ग़ाज़ा और व्यापक इज़राइल–फिलिस्तीन संघर्ष का समाधान सैन्य हस्तक्षेप में नहीं, बल्कि संवाद और कूटनीति में निहित है।
- संयुक्त राष्ट्र की भूमिका: उसे निष्पक्ष मध्यस्थ बनकर दोनों पक्षों को वार्ता की मेज़ पर लाना चाहिए।
- दो-राष्ट्र समाधान: इज़राइल और फिलिस्तीन दोनों के लिए स्वतंत्र राष्ट्रों की मान्यता ही स्थायी समाधान का मार्ग है।
- अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सम्मान: अमेरिका और इज़राइल को कानून के शासन और मानवीय मूल्यों का पालन करना चाहिए।
निष्कर्ष
यदि डोनाल्ड ट्रंप का यह कथित बयान सच है कि “ग़ाज़ा अब अमेरिका का है,” तो यह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर सीधी चोट है।
यह साम्राज्यवादी सोच की वापसी का प्रतीक है, जो आधुनिक लोकतांत्रिक विश्व के लिए अस्वीकार्य है।
विश्व समुदाय का दायित्व है कि वह इस तरह की आक्रामक नीतियों के विरुद्ध एकजुट हो और फिलिस्तीनी जनता के अधिकारों की रक्षा करे।
ग़ाज़ा के लोगों को अपनी भूमि पर शांतिपूर्ण और गरिमामय जीवन का अधिकार है — और यह केवल उनका नहीं, बल्कि मानवता का अधिकार है।
Deepak
ReplyDeleteThanks
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