India’s Rice Production and Groundwater Crisis: Sustainability, Water Depletion and Policy Challenges
भारत में चावल उत्पादन और भूजल संकट: एक कृषि–पर्यावरणीय विश्लेषण
✦ प्रस्तावना
पिछले एक दशक में भारत ने चावल उत्पादन के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है। वर्ष 2024–25 में लगभग 149–150 मिलियन मीट्रिक टन उत्पादन के साथ भारत न केवल विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक बना, बल्कि वैश्विक निर्यात में भी उसकी हिस्सेदारी 40% के आसपास पहुँच गई। यह उपलब्धि किसानों की आय, खाद्य सुरक्षा और विदेशी मुद्रा अर्जन — तीनों स्तरों पर अत्यंत महत्वपूर्ण है।
लेकिन इस चमकदार सफलता के पीछे एक गंभीर पर्यावरणीय संकट तेजी से पनप रहा है — विशेषकर पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में, जहाँ चावल की खेती का विस्तार अत्यधिक भूजल दोहन पर आधारित है। सब्सिडी, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और निर्यात की बढ़ती मांग ने उत्पादन तो बढ़ाया, परंतु भूमि के नीचे जलभंडार खतरनाक रूप से खाली होते चले गए हैं।
✦ भारत में चावल उत्पादन का परिदृश्य
चावल भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। देश के अधिकांश क्षेत्रों में यह खरीफ फसल के रूप में उगाया जाता है और व्यापक खाद्य मांग को पूरा करता है। हरित क्रांति के बाद पंजाब और हरियाणा चावल–गेहूँ प्रणाली के प्रमुख केंद्र बने, जहाँ उत्पादन का आधार सिंचित कृषि और उच्च उपज किस्में हैं।
हालाँकि प्राकृतिक वर्षा सीमित होने के कारण इन क्षेत्रों में सिंचाई का मुख्य स्रोत भूजल है। समय के साथ सरकारी नीतियों — जैसे
- न्यूनतम समर्थन मूल्य
- सरकारी खरीद की गारंटी
- मुफ्त अथवा सब्सिडी वाली बिजली
ने किसानों को चावल की खेती की ओर प्रेरित किया। किंतु चावल एक जल-गहन फसल है — लगभग 1 किलोग्राम धान तैयार करने में औसतन 3,600–4,000 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। परिणामस्वरूप, भूजल पर अत्यधिक दबाव बढ़ता चला गया।
✦ भूजल संकट का गहराता स्वरूप
कभी 25–30 फीट की गहराई पर मिलने वाला पानी अब कई क्षेत्रों में 100 से 200 फीट से नीचे खिसक चुका है। सरकारी सर्वेक्षण बताते हैं कि पंजाब और हरियाणा के अधिकांश ब्लॉक ओवर–एक्सप्लॉइटेड श्रेणी में आ चुके हैं — अर्थात जहाँ भूजल निकासी प्राकृतिक पुनर्भरण से काफी अधिक है।
यह संकट केवल पर्यावरणीय नहीं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक भी है—
- गहराई बढ़ने से किसानों को महंगे ट्यूबवेल और पंप लगाने पड़ते हैं
- लागत बढ़ती है, कर्ज बढ़ता है, लाभ घटता है
- छोटे किसान सबसे अधिक प्रभावित होते हैं
कह सकते हैं कि कृषि विकास की यह संरचना एक दुष्चक्र बना चुकी है — अधिक उत्पादन के लिए अधिक पानी, और अधिक पानी के लिए अधिक कर्ज।
✦ व्यापक प्रभाव
किसानों पर आर्थिक दबाव
गहरे बोरवेल और ऊर्ज़ा उपकरणों की लागत लाखों तक पहुँच जाती है।
पर्यावरणीय असंतुलन
भूजल का निरंतर ह्रास मरुस्थलीकरण, मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
भविष्य की खाद्य सुरक्षा पर खतरा
यदि जल भंडार समाप्त होते रहे, तो चावल उत्पादन क्षमता घटेगी — जिसका असर वैश्विक बाजार तक पहुँचेगा।
सामाजिक परिणति
कृषि अस्थिर होने पर ग्रामीण पलायन और सामाजिक असंतोष बढ़ सकता है।
किसानों पर आर्थिक दबाव
गहरे बोरवेल और ऊर्ज़ा उपकरणों की लागत लाखों तक पहुँच जाती है।
पर्यावरणीय असंतुलन
भूजल का निरंतर ह्रास मरुस्थलीकरण, मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
भविष्य की खाद्य सुरक्षा पर खतरा
यदि जल भंडार समाप्त होते रहे, तो चावल उत्पादन क्षमता घटेगी — जिसका असर वैश्विक बाजार तक पहुँचेगा।
सामाजिक परिणति
कृषि अस्थिर होने पर ग्रामीण पलायन और सामाजिक असंतोष बढ़ सकता है।
✦ समाधान: टिकाऊ कृषि की दिशा में
इस संकट से पार पाने के लिए केवल तकनीक या केवल नीति — दोनों अलग–अलग पर्याप्त नहीं हैं; आवश्यक है समग्र सुधार दृष्टि —
1) फसल विविधीकरण
कम पानी वाली फसलों — जैसे दालें, बाजरा, मक्का — को आर्थिक प्रोत्साहन दिया जाए।
कुछ राज्यों द्वारा प्रति हेक्टेयर प्रोत्साहन राशि जैसी पहलें सकारात्मक संकेत देती हैं।
2) जल दक्ष सिंचाई
- ड्रिप एवं स्प्रिंकलर प्रणाली
- प्रत्यक्ष बीज बोआई (DSR)
- खेत–स्तरीय जल प्रबंधन
से सिंचाई जल खपत में उल्लेखनीय कमी लाई जा सकती है।
3) नीति सुधार
- बिजली सब्सिडी को लक्षित एवं सीमित करना
- MSP नीति को विविध फसलों तक संतुलित रूप से विस्तार
- भूजल निकासी पर वैज्ञानिक नियमन
आवश्यक है कि प्रोत्साहन संरचना पानी के अनुकूल कृषि व्यवहार को बढ़ावा दे।
4) जागरूकता एवं संस्थागत सहयोग
किसानों को प्रशिक्षण, बाजार आश्वासन और तकनीकी परामर्श उपलब्ध कराना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना वित्तीय सहायता।
5) एकीकृत जल–कृषि नीति
राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी नीति चाहिए जो उत्पादन, पर्यावरण और आजीविका — तीनों के बीच संतुलन स्थापित करे।
✦ निष्कर्ष
भारत का बढ़ता चावल उत्पादन राष्ट्र के कृषि–सशक्तिकरण का प्रतीक है, लेकिन यह विकास तब तक टिकाऊ नहीं कहा जा सकता जब तक वह पर्यावरणीय दृष्टि से न्यायसंगत न हो। पंजाब और हरियाणा का भूजल संकट हमें चेतावनी देता है कि उत्पादन–केंद्रित नीति को अब सतत कृषि मॉडल की ओर मोड़ना होगा।
कृषि वैज्ञानिकों, नीति–निर्माताओं और किसानों के सामूहिक प्रयास से ही ऐसा तंत्र विकसित हो सकता है जिसमें ‘उत्पादन बढ़ाने’ के साथ–साथ जल संरक्षण को समान प्राथमिकता मिले। यही मार्ग भारत की खाद्य सुरक्षा, किसान समृद्धि और वैश्विक कृषि–स्थिरता — तीनों के लिए दीर्घकालिक समाधान प्रदान करेगा।
With Reuters Inputs
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