One China Policy, Strategic Ambiguity और ताइवान स्ट्रेट में उभरता संकट
भूमिका: एक द्वीप, अनेक वैश्विक तनाव
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कुछ भू-क्षेत्र ऐसे होते हैं जो अपने भौगोलिक आकार से कहीं अधिक रणनीतिक भार वहन करते हैं। ताइवान ऐसा ही एक द्वीप है—जिसकी भौगोलिक स्थिति सीमित, किंतु राजनीतिक, आर्थिक और वैचारिक प्रासंगिकता वैश्विक है। 21वीं सदी में जब विश्व व्यवस्था बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ रही है और अमेरिका–चीन प्रतिद्वंद्विता वैश्विक राजनीति की केंद्रीय धुरी बन चुकी है, तब ताइवान केवल एक क्षेत्रीय विवाद नहीं रह जाता, बल्कि वैश्विक शक्ति-संतुलन, तकनीकी प्रभुत्व और वैचारिक संघर्ष का प्रतीक बन जाता है।
इस त्रिकोणीय संबंध को समझने के लिए दो अवधारणाएँ निर्णायक हैं—One China Policy और Strategic Ambiguity। दशकों तक इन दोनों ने युद्ध को टालने और Status Quo बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। किंतु हालिया घटनाएँ, विशेषकर 18 दिसंबर 2025 को अमेरिका द्वारा ताइवान को 11.1 अरब डॉलर की हथियार बिक्री, यह संकेत देती हैं कि यह संतुलन अब दबाव में है। प्रश्न यह नहीं है कि क्या संकट है, बल्कि यह है कि क्या मौजूदा कूटनीतिक ढाँचा इस संकट को संभालने में सक्षम रह गया है।
One China Policy: कूटनीतिक अस्पष्टता की संरचना
One China Policy अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की सबसे सूक्ष्म और जटिल रचनाओं में से एक है। यह नीति अमेरिका को यह सुविधा देती है कि वह एक ओर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) को चीन की वैध सरकार के रूप में स्वीकार करे, वहीं दूसरी ओर ताइवान के साथ वास्तविक, यद्यपि अनौपचारिक, संबंध बनाए रखे।
इस नीति की ऐतिहासिक जड़ें 1949 के चीनी गृहयुद्ध में निहित हैं, जब माओ के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने मुख्यभूमि पर नियंत्रण स्थापित किया और कुओमिनतांग सरकार ताइवान में सिमट गई। 1971 में संयुक्त राष्ट्र में PRC को चीन की सीट मिलना और 1979 में अमेरिका–चीन राजनयिक संबंधों की स्थापना इस नीति के औपचारिक पड़ाव बने। अमेरिका ने ताइवान से आधिकारिक संबंध समाप्त किए, किंतु Taiwan Relations Act (1979) के माध्यम से उसकी सुरक्षा और आत्मरक्षा में सहायता का वचन दिया।
यहीं One China Policy की मूल प्रकृति स्पष्ट होती है—यह स्वीकृति (acknowledgement) है, न कि समर्थन (endorsement)। अमेरिका यह स्वीकार करता है कि “चीन का दावा है कि ताइवान उसका हिस्सा है”, किंतु वह इस दावे को मान्यता नहीं देता। यही भाषाई और कानूनी सूक्ष्मता इस नीति की आत्मा है।
हालिया हथियार बिक्री इसी नीति के अंतर्गत प्रस्तुत की गई है। HIMARS, ATACMS मिसाइलें, M109A7 हॉविट्जर, जेवलिन और TOW मिसाइलें तथा लोइटरिंग म्यूनिशन ड्रोन—ये सभी ताइवान की रक्षात्मक और असममित युद्ध क्षमता को बढ़ाने वाले हथियार हैं। अमेरिका इन्हें ताइवान की “आत्मरक्षा” से जोड़ता है, न कि स्वतंत्रता की गारंटी से। किंतु चीन के दृष्टिकोण से यह अंतर अर्थहीन है; बीजिंग इसे सीधे तौर पर “एक चीन सिद्धांत” का उल्लंघन मानता है।
Strategic Ambiguity: अनिश्चितता के माध्यम से शांति
यदि One China Policy कूटनीतिक ढाँचा है, तो Strategic Ambiguity उसका सुरक्षा तंत्र है। इस नीति के तहत अमेरिका जानबूझकर यह स्पष्ट नहीं करता कि ताइवान पर चीनी हमले की स्थिति में वह सैन्य हस्तक्षेप करेगा या नहीं। यह अस्पष्टता संयोगवश नहीं, बल्कि रणनीतिक रूप से निर्मित है।
इस नीति के दोहरे उद्देश्य हैं। पहला, चीन को यह निश्चित न होने देना कि ताइवान पर आक्रमण की स्थिति में अमेरिका की प्रतिक्रिया क्या होगी—जिससे निरोध (deterrence) बना रहे। दूसरा, ताइवान को औपचारिक स्वतंत्रता की घोषणा से रोकना—जिससे वह अमेरिका की स्वचालित सुरक्षा गारंटी मानकर जोखिमपूर्ण कदम न उठाए। इस प्रकार Strategic Ambiguity दोनों पक्षों को Status Quo बनाए रखने के लिए बाध्य करती है।
21वीं सदी में इस नीति को नई ऊर्जा ताइवान की तकनीकी भूमिका से मिली है। TSMC के नेतृत्व में ताइवान वैश्विक सेमीकंडक्टर आपूर्ति श्रृंखला का केंद्र बन चुका है। यह तथाकथित “Silicon Shield” न केवल ताइवान को रणनीतिक महत्व देता है, बल्कि किसी भी सैन्य संघर्ष को वैश्विक आर्थिक संकट में बदलने की क्षमता रखता है।
हालिया हथियार बिक्री, हालांकि, इस अस्पष्टता को चुनौती देती है। उन्नत और लंबी दूरी की क्षमताओं से लैस हथियार यह संकेत देते हैं कि अमेरिका अब केवल अस्पष्ट चेतावनी नहीं, बल्कि विश्वसनीय सैन्य निरोध स्थापित करना चाहता है। यह स्थिति Strategic Ambiguity को धीरे-धीरे Strategic Clarity की ओर धकेलती प्रतीत होती है—जो स्वयं में एक नया जोखिम है।
ताइवान: लोकतंत्र, पहचान और यथार्थवादी रणनीति
ताइवान का दृष्टिकोण इस पूरे समीकरण में सबसे अधिक विरोधाभासी, किंतु सबसे अधिक व्यावहारिक है। वस्तुतः ताइवान एक स्वतंत्र राज्य की तरह कार्य करता है—उसकी लोकतांत्रिक सरकार, स्वतंत्र मीडिया, सशक्त नागरिक समाज और वैश्विक आर्थिक एकीकरण इसकी पुष्टि करते हैं। किंतु औपचारिक संप्रभुता की घोषणा उसके लिए अस्तित्वगत खतरा बन सकती है।
इसलिए ताइवान की राजनीति स्वतंत्रता की उद्घोषणा से अधिक पहचान की रक्षा पर केंद्रित है। Status Quo उसके लिए एक रणनीतिक समझौता है—जहाँ समाज स्वतंत्र है, पर राज्य-घोषणा स्थगित है।
अमेरिकी हथियार बिक्री को ताइवान में व्यापक रूप से सकारात्मक रूप में देखा गया है। राष्ट्रपति लाई चिंग-ते के नेतृत्व में प्रस्तावित 40 अरब डॉलर का विशेष रक्षा बजट यह दर्शाता है कि ताइवान अब केवल बाहरी सुरक्षा पर निर्भर नहीं रहना चाहता, बल्कि आत्मनिर्भर निरोधक क्षमता विकसित करना चाहता है। असममित युद्ध रणनीति—जिसमें चीन के उभयचर आक्रमण को अत्यधिक महँगा और जटिल बनाया जाए—ताइवान की रक्षा सोच का केंद्र बन चुकी है।
फिर भी, यह सुदृढ़ीकरण एक द्वंद्व उत्पन्न करता है: कहीं यह सैन्य आत्मविश्वास ताइवान को ऐसे राजनीतिक संकेत देने के लिए प्रेरित न कर दे, जो Strategic Ambiguity के मूल उद्देश्य को कमजोर कर दें।
चीन का दृष्टिकोण: राष्ट्रवाद और रणनीतिक अधैर्य
चीन के लिए ताइवान केवल एक क्षेत्र नहीं, बल्कि इतिहास, राष्ट्रवाद और शासन की वैधता से जुड़ा प्रश्न है। “राष्ट्रीय पुनरुत्थान” की कम्युनिस्ट पार्टी की कथा में ताइवान का पुनर्एकीकरण एक अधूरा अध्याय है। PLA के सैन्य अभ्यास, हवाई उल्लंघन और कूटनीतिक दबाव इसी रणनीति के उपकरण हैं।
चीन यह भी भली-भाँति जानता है कि ताइवान पर सैन्य कार्रवाई वैश्विक युद्ध, आर्थिक अस्थिरता और तकनीकी आपूर्ति श्रृंखला के पतन का कारण बन सकती है। किंतु राष्ट्रवादी दबाव और घरेलू राजनीति उसे संयम और आक्रामकता के बीच झूलने पर मजबूर करती है। अमेरिकी हथियार बिक्री बीजिंग की आशंकाओं को और पुष्ट करती है कि Strategic Ambiguity धीरे-धीरे उसके विरुद्ध जा रही है।
क्षेत्रीय और वैश्विक प्रभाव: एक संभावित वैश्विक संकट
ताइवान प्रश्न अब केवल ताइवान स्ट्रेट तक सीमित नहीं है। जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और Indo-Pacific के अन्य देश अपनी सुरक्षा रणनीतियों को पुनर्संरेखित कर रहे हैं। QUAD जैसे मंच इस संदर्भ में अधिक सक्रिय होते जा रहे हैं। साथ ही, सेमीकंडक्टर आपूर्ति श्रृंखला पर किसी भी संकट का प्रभाव वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।
यदि कूटनीतिक संवाद कमजोर पड़ता है और सैन्य संकेत अधिक मुखर होते जाते हैं, तो ताइवान स्ट्रेट 21वीं सदी का सबसे खतरनाक भू-राजनीतिक फ्लैशपॉइंट बन सकता है।
निष्कर्ष: अस्पष्टता से परे, संतुलन की खोज
One China Policy और Strategic Ambiguity ने दशकों तक युद्ध को टालने में सफलता पाई है, किंतु वे स्थायी समाधान नहीं, बल्कि प्रबंधित अनिश्चितता के उपकरण रहे हैं। हालिया हथियार बिक्री जैसे कदम इस व्यवस्था की सीमाओं को उजागर करते हैं।
ताइवान का प्रश्न अंततः केवल संप्रभुता का नहीं, बल्कि शक्ति, पहचान और तकनीक की राजनीति का प्रश्न है। सैन्य संतुलन आवश्यक है, किंतु पर्याप्त नहीं। दीर्घकालिक स्थिरता के लिए संवाद, विश्वास-निर्माण और बहुपक्षीय कूटनीति अपरिहार्य है।
इसी संदर्भ में यह कथन विशेष अर्थ रखता है—
“टाइवान का प्रश्न संप्रभुता से अधिक शक्ति, पहचान और तकनीक की राजनीति का प्रश्न है—और Strategic Ambiguity उसकी सबसे सटीक अभिव्यक्ति।”
यह अभिव्यक्ति न केवल वर्तमान संकट को समझने की कुंजी है, बल्कि भविष्य की वैश्विक राजनीति की दिशा को भी रेखांकित करती है।
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