Rohingya Crisis Explained: From Historical Roots in Myanmar to the Genocide Case at the International Court of Justice
रोहिंग्या संकट: इतिहास की परछाइयों से अंतरराष्ट्रीय न्याय के कटघरे तक
इतिहास कभी अचानक घटित नहीं होता। वह धीरे-धीरे बनता है—सदियों की स्मृतियों, भूलों, भय और सत्ता के निर्णयों से। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जो घटित हुआ, वह भी किसी एक वर्ष, एक सैन्य अभियान या एक राजनीतिक सरकार का परिणाम नहीं है। यह एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया का निष्कर्ष है, जिसकी जड़ें औपनिवेशिक काल में हैं और जिसकी परिणति आज अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) के कठघरे में खड़े म्यांमार राज्य के रूप में दिखाई देती है।
इतिहास की शुरुआत: सहअस्तित्व से संदेह तक
म्यांमार का पश्चिमी तटीय क्षेत्र—अराकान या आज का राखाइन राज्य—कभी व्यापार, संस्कृति और धर्मों के मेल का क्षेत्र था। अरब, फारसी और बंगाली व्यापारियों के साथ इस्लाम यहाँ पहुँचा और समय के साथ एक मुस्लिम समुदाय विकसित हुआ, जिसे आज रोहिंग्या कहा जाता है। मध्यकालीन अराकान में बौद्ध और मुस्लिम समुदायों का सहअस्तित्व असामान्य नहीं था।
परंतु आधुनिक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा ने इस सहअस्तित्व को संदेह में बदल दिया। जैसे-जैसे पहचान “स्थानीय” और “बाहरी” के खाँचों में बँटती गई, रोहिंग्या धीरे-धीरे इतिहास के हाशिये पर धकेले जाने लगे।
औपनिवेशिक हस्तक्षेप: बीज बोया गया
ब्रिटिश शासन ने इस क्षेत्र की सामाजिक संरचना को निर्णायक रूप से बदल दिया। 19वीं सदी में जब अराकान को ब्रिटिश भारत से जोड़ा गया, तब श्रम और कृषि विस्तार के लिए बंगाल से मुस्लिम आबादी का प्रवासन प्रोत्साहित किया गया।
ब्रिटिश प्रशासन के लिए यह एक आर्थिक निर्णय था, किंतु स्थानीय बौद्ध समाज के लिए यह जनसांख्यिकीय असुरक्षा का कारण बना।
यहीं से रोहिंग्या को “बाहरी” के रूप में देखने की मानसिकता आकार लेने लगी—एक ऐसी मानसिकता, जिसे स्वतंत्र म्यांमार ने विरासत में पा लिया।
युद्ध और विभाजन: अविश्वास की स्थायी लकीर
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यह अविश्वास हिंसा में बदल गया। जब जापानी सेना ने बर्मा पर कब्ज़ा किया, तब समुदायों ने अलग-अलग पक्ष चुने।
- बौद्ध समूह जापान के साथ गए
- रोहिंग्या मुसलमान ब्रिटिश सेना के साथ
युद्ध समाप्त हुआ, परंतु सामाजिक ताना-बाना टूट चुका था। अब रोहिंग्या केवल धार्मिक अल्पसंख्यक नहीं, बल्कि “राजनीतिक रूप से संदिग्ध” समुदाय के रूप में देखे जाने लगे।
स्वतंत्रता और अधूरा वादा
1948 में स्वतंत्र म्यांमार का जन्म हुआ, परंतु यह स्वतंत्रता सभी के लिए समान नहीं थी। प्रारंभिक वर्षों में कुछ रोहिंग्या को नागरिक अधिकार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिला, किंतु यह एक अस्थायी स्वीकार्यता थी।
जैसे-जैसे बौद्ध राष्ट्रवाद मजबूत हुआ, रोहिंग्या की नागरिकता पर प्रश्नचिह्न लगने लगे। वे राष्ट्र की परिभाषा से बाहर किए जाने लगे—चुपचाप, व्यवस्थित ढंग से।
सैन्य राष्ट्रवाद और क़ानूनी बहिष्कार
1962 के सैन्य तख्तापलट ने इस बहिष्कार को राज्य की नीति बना दिया। “एक राष्ट्र, एक धर्म, एक नस्ल” की अवधारणा में रोहिंग्या के लिए कोई स्थान नहीं था।
1982 का नागरिकता कानून इस प्रक्रिया का निर्णायक क्षण था। इस कानून ने रोहिंग्या को म्यांमार की 135 “राष्ट्रीय नस्लों” की सूची से बाहर कर दिया।
एक झटके में वे नागरिक से राज्यविहीन बना दिए गए—बिना अधिकार, बिना सुरक्षा और बिना भविष्य।
हिंसा की पुनरावृत्ति: इतिहास का चक्र
इसके बाद दशकों तक सैन्य अभियानों का एक सिलसिला चला। हर कुछ वर्षों में “सुरक्षा” के नाम पर अभियान, और हर बार वही परिणाम—
गाँव जलाए गए, महिलाओं के साथ बलात्कार हुए, लोग सीमाओं की ओर भागे।
2017 की घटनाएँ इस चक्र की सबसे क्रूर अभिव्यक्ति थीं, जब लाखों रोहिंग्या बांग्लादेश में शरण लेने को मजबूर हुए। यह केवल विस्थापन नहीं था; यह एक पूरे समुदाय को उसके भूगोल और इतिहास से मिटाने का प्रयास था।
अंतरराष्ट्रीय न्याय का हस्तक्षेप: इतिहास अदालत के कटघरे में
यहीं से रोहिंग्या संकट ने एक नया मोड़ लिया। 2019 में गाम्बिया द्वारा अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में दायर मुक़दमे ने इस त्रासदी को नैतिक अपील से कानूनी प्रश्न में बदल दिया।
ICJ में यह सवाल उठाया गया कि—
क्या राज्य द्वारा व्यवस्थित उत्पीड़न, जबरन विस्थापन और जीवन-स्थितियों का विनाश नरसंहार के दायरे में आता है?
जनवरी 2026 की प्रस्तावित सुनवाई इसी प्रश्न का उत्तर खोजेगी। यह केवल म्यांमार के लिए नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के लिए भी एक परीक्षा है।
निष्कर्ष: इतिहास, न्याय और भविष्य
रोहिंग्या संकट हमें यह सिखाता है कि जब इतिहास को नकारा जाता है, पहचान को अपराध बना दिया जाता है और कानून को बहिष्कार का औज़ार बनाया जाता है, तब नरसंहार अचानक नहीं होता—वह धीरे-धीरे घटित होता है।
आज अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में म्यांमार के विरुद्ध चल रहा मामला उसी लंबे इतिहास का न्यायिक प्रतिबिंब है।
प्रश्न यह नहीं है कि रोहिंग्या ने क्या खोया—वे लगभग सब कुछ खो चुके हैं।
प्रश्न यह है कि क्या वैश्विक समुदाय इतिहास से सीख लेकर न्याय को वास्तविक अर्थों में लागू कर पाएगा, या यह त्रासदी भी अन्याय की लंबी सूची में एक और अध्याय बनकर रह जाएगी।
रोहिंग्या का संघर्ष अंततः मानवता की सामूहिक अंतरात्मा की परीक्षा है—और उसका परिणाम आने वाली पीढ़ियों के लिए यह तय करेगा कि “कभी नहीं" (द्वितीय विश्व युद्ध व यहूदी नरसंहार (Holocaust) के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय का नैतिक संकल्प) केवल एक नारा था या सचमुच एक वचन।
With Reuters Inputs
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