राम वी. सुतार: शिल्प में राष्ट्र को गढ़ने वाले एक युग का अंत
भारतीय कला और सांस्कृतिक चेतना के इतिहास में कुछ नाम ऐसे होते हैं, जिनका जाना केवल एक व्यक्ति का अवसान नहीं होता, बल्कि एक पूरे युग का पटाक्षेप होता है। 17 दिसंबर 2025 की मध्यरात्रि ऐसा ही एक क्षण लेकर आई, जब विश्वविख्यात मूर्तिकार पद्म भूषण राम वनजी सुतार ने नोएडा स्थित अपने निवास पर अंतिम सांस ली। सौ वर्षों से अधिक की जीवन यात्रा में उन्होंने न केवल मूर्तियों का निर्माण किया, बल्कि पत्थर, कांस्य और धातु के माध्यम से भारत की आत्मा को आकार दिया।
राम वी. सुतार का जीवन इस बात का उदाहरण है कि साधारण परिस्थितियों से निकलकर असाधारण ऊँचाइयों को कैसे छुआ जा सकता है। महाराष्ट्र के धुले जिले के तत्कालीन गोंदूर गाँव में जन्मे सुतार का प्रारंभिक जीवन अभावों में बीता, किंतु कला के प्रति उनकी साधना ने उन्हें मुंबई के प्रतिष्ठित सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट तक पहुँचाया, जहाँ उन्होंने स्वर्ण पदक प्राप्त कर अपनी प्रतिभा की अमिट छाप छोड़ी। यही वह क्षण था, जब एक ग्रामीण बालक भारत का भविष्य का महान शिल्पी बनने की ओर अग्रसर हुआ।
1950 के दशक में अजंता–एलोरा की गुफाओं के संरक्षण और जीर्णोद्धार से जुड़कर राम सुतार ने भारतीय शिल्प परंपरा की गहराई को आत्मसात किया। इसके बाद के सात दशकों में उन्होंने जो रचा, वह केवल कलाकृति नहीं था—वह इतिहास, स्मृति और राष्ट्रबोध का मूर्त रूप था। उनकी मूर्तियाँ स्थिर नहीं हैं; वे संवाद करती हैं, प्रेरित करती हैं और दर्शक को अपने अतीत से जोड़ती हैं।
उनकी सबसे विराट और ऐतिहासिक कृति स्टैच्यू ऑफ यूनिटी है—182 मीटर ऊँची सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा, जो नर्मदा के तट पर भारत की एकता और दृढ़ता का प्रतीक बनकर खड़ी है। यह प्रतिमा केवल विश्व की सबसे ऊँची मूर्ति नहीं, बल्कि उस दृष्टि का प्रतीक है जिसमें कला, राष्ट्रवाद और इंजीनियरिंग एकाकार हो जाते हैं। इस कृति के माध्यम से राम सुतार ने भारतीय मूर्तिकला को वैश्विक मानचित्र पर एक नई पहचान दिलाई।
इसके अतिरिक्त संसद भवन परिसर में स्थापित ध्यानमग्न महात्मा गांधी की प्रतिमा हो या घोड़े पर सवार छत्रपति शिवाजी महाराज की ओजस्वी मूर्ति—हर रचना में भाव, संतुलन और ऐतिहासिक चेतना का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है। गांधी जी के बस्ट की सैकड़ों प्रतियाँ आज विश्व के अनेक देशों में स्थापित हैं, जो यह दर्शाती हैं कि राम सुतार की कला सीमाओं में बंधी नहीं थी। बेंगलुरु हवाई अड्डे पर केम्पेगौड़ा की विशाल प्रतिमा, चंबल माता की मूर्ति और देश-विदेश में स्थापित असंख्य स्मारक उनकी सृजनात्मक ऊर्जा के साक्ष्य हैं।
सम्मानों की दृष्टि से भी उनका जीवन गौरवपूर्ण रहा—पद्म श्री (1999), पद्म भूषण (2016) और हाल ही में प्राप्त महाराष्ट्र भूषण उनके योगदान की औपचारिक स्वीकृति मात्र हैं। वास्तविक सम्मान तो वह है जो जनता की स्मृति में उनकी कृतियों के रूप में जीवित रहेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू सहित अनेक राष्ट्रीय नेताओं द्वारा दी गई श्रद्धांजलि इस बात की पुष्टि करती है कि राम सुतार केवल एक कलाकार नहीं, बल्कि राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर थे।
राम वी. सुतार अंत तक सक्रिय रहे—उनकी उम्र कभी उनकी साधना में बाधा नहीं बनी। उनका जीवन यह सिखाता है कि सच्ची कला समय की मोहताज नहीं होती। आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तब भी उनकी रचनाएँ बोलती रहेंगी—एकता, संघर्ष, नेतृत्व और भारतीय आत्मा की भाषा में।
निस्संदेह, उनका जाना भारतीय मूर्तिकला के एक स्वर्णिम अध्याय का अंत है। किंतु पत्थरों में उकेरी गई उनकी साधना अमर है।
राम वी. सुतार नहीं रहे, पर भारत को गढ़ने वाला उनका शिल्प युगों तक जीवित रहेगा।
ॐ शांति।
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