भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की शताब्दी: विचारधारा, इतिहास और भविष्य की जटिल यात्रा
भूमिका: दो शताब्दियाँ, दो दिशाएँ
वर्ष 2025 भारतीय राजनीति में एक गहरे प्रतीकात्मक अर्थ के साथ उपस्थित हुआ है। यह वर्ष दो ऐसे संगठनों की शताब्दी का साक्षी है, जिनका जन्म एक ही ऐतिहासिक क्षण—1925—में हुआ, किंतु जिनकी वैचारिक यात्राएँ एक-दूसरे के ठीक विपरीत दिशाओं में बढ़ीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) दोनों का उदय औपनिवेशिक भारत की असंतोषपूर्ण चेतना से हुआ, परंतु एक संगठन सत्ता, प्रभाव और सामाजिक स्वीकार्यता के शिखर पर है, जबकि दूसरा अपने अस्तित्व, प्रासंगिकता और भविष्य को लेकर आत्ममंथन के दौर से गुजर रहा है।
सीपीआई की शताब्दी का अपेक्षाकृत शांत गुजर जाना केवल संगठनात्मक कमजोरी का संकेत नहीं है, बल्कि यह भारतीय वामपंथ के ऐतिहासिक उत्थान, वैचारिक जड़ता और राजनीतिक अलगाव की गहरी कहानी कहता है। फिर भी, जैसा कि विद्वान सी. राजा मोहन इंगित करते हैं, भारतीय कम्युनिज्म के लिए शोक-संदेश लिखना अभी जल्दबाज़ी होगी। यह लेख इसी जटिल द्वंद्व—पतन और संभावना—का समग्र विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
भारतीय कम्युनिज्म का उद्भव: औपनिवेशिक शोषण से वैचारिक प्रतिरोध तक
भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का जन्म किसी एक घटना या सम्मेलन की उपज नहीं था, बल्कि यह वैश्विक और स्थानीय दोनों स्तरों पर विकसित ऐतिहासिक परिस्थितियों का परिणाम था। प्रथम विश्वयुद्ध, रूसी क्रांति (1917) और औपनिवेशिक पूँजीवाद के दमन ने भारत में एक वैकल्पिक सामाजिक-आर्थिक दृष्टि की मांग को जन्म दिया।
दिसंबर 1925 में कानपुर सम्मेलन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की औपचारिक स्थापना हुई, जहाँ एस.ए. डांगे, एस.वी. घाटे और सिंगारावेलु चेट्टियार जैसे नेताओं ने बिखरे हुए कम्युनिस्ट समूहों को संगठित रूप प्रदान किया। वहीं, कुछ धाराएँ एम.एन. रॉय द्वारा 1920 में ताशकंद में गठित कम्युनिस्ट समूह को इसकी वास्तविक शुरुआत मानती हैं। यह विवाद ऐतिहासिक है, किंतु इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है वह सामाजिक आधार, जिससे भारतीय कम्युनिज्म विकसित हुआ।
यह आंदोलन गदर पार्टी के क्रांतिकारियों, भगत सिंह और उनके साथियों की समाजवादी चेतना, बंगाल के उग्र राष्ट्रवादियों, बंबई-मद्रास के श्रमिक संगठनों और किसानों के जमींदारी-विरोधी संघर्षों से पोषित हुआ। ब्रिटिश शासन द्वारा लगाए गए षड्यंत्र मुकदमे—पेशावर, कानपुर और मेरठ—अनजाने में ही मार्क्सवादी विचारों के प्रचार मंच बन गए।
स्वतंत्रता संग्राम और सीपीआई: एक वैकल्पिक राष्ट्रवाद
सीपीआई ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक विशिष्ट वैचारिक हस्तक्षेप किया। जहाँ कांग्रेस नेतृत्व राष्ट्रीय स्वतंत्रता को राजनीतिक सत्ता हस्तांतरण के रूप में देखता था, वहीं कम्युनिस्ट आंदोलन इसे सामाजिक-आर्थिक मुक्ति से जोड़ता था। पूर्ण स्वराज की मांग, भूमि सुधार, श्रमिक अधिकार, जातिगत उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष और स्त्री समानता जैसे प्रश्नों को सीपीआई ने मुख्यधारा की राजनीति में लाने का प्रयास किया।
1930 और 1940 के दशकों में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC), अखिल भारतीय किसान सभा और प्रगतिशील लेखक संघ जैसे मंचों के माध्यम से पार्टी ने मजदूरों, किसानों, लेखकों और कलाकारों के बीच गहरी पैठ बनाई। साहित्य, रंगमंच और सिनेमा में प्रगतिशील चेतना का प्रसार भारतीय कम्युनिज्म की एक स्थायी सांस्कृतिक विरासत है।
स्वतंत्रता के बाद का उत्कर्ष: सत्ता और प्रभाव का दौर
स्वतंत्रता के पश्चात्, विशेषकर 1960 के दशक से 2000 के दशक के प्रारंभ तक, वामपंथ भारतीय राजनीति की एक निर्णायक शक्ति रहा। भूमि सुधार, पंचायती राज, सार्वजनिक वितरण प्रणाली और श्रमिक संरक्षण जैसे नीतिगत क्षेत्रों में वाम सरकारों—विशेषकर पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा—ने ठोस हस्तक्षेप किए।
2004–05 तक वामपंथी दलों के पास लोकसभा में लगभग 60 सीटें और 8% के आसपास वोट शेयर था। यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देकर उन्होंने रोजगार गारंटी, सूचना का अधिकार और सामाजिक क्षेत्र के विस्तार में भूमिका निभाई। यह वह क्षण था जब वामपंथ वैचारिक रूप से भी और राजनीतिक रूप से भी प्रासंगिक प्रतीत हो रहा था।
पतन की कथा: वैचारिक शुद्धता बनाम राजनीतिक यथार्थ
वामपंथ का पतन अचानक नहीं हुआ, बल्कि यह दीर्घकालिक वैचारिक और रणनीतिक विफलताओं का परिणाम था। संप्रदायवाद, आंतरिक विभाजन, वैश्वीकरण के प्रति विरोधात्मक दृष्टि और बदलते सामाजिक यथार्थ को समझने में असफलता ने पार्टी को धीरे-धीरे हाशिए पर धकेल दिया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश शासन के प्रति रुख, विभाजन के प्रश्न पर अस्पष्टता, चीन-सोवियत विवाद में उलझाव और बाद में भाजपा के उदय को केवल “फासीवाद” कहकर खारिज करना—इन सबने पार्टी की राजनीतिक समझ को सीमित किया। 2008 में परमाणु समझौते के मुद्दे पर यूपीए से समर्थन वापस लेना और अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा के साथ खड़े होना वामपंथ के लिए आत्मघाती सिद्ध हुआ।
गठबंधन राजनीति के युग में कांग्रेस जैसे वैचारिक रूप से निकट दलों से रणनीतिक समझौता न कर पाना और नई सामाजिक आकांक्षाओं—मध्य वर्ग, युवाओं और डिजिटल अर्थव्यवस्था—को संबोधित न कर पाना इसके पतन के निर्णायक कारण बने।
स्थायी विरासत और पुनरुत्थान की संभावनाएँ
इन विफलताओं के बावजूद भारतीय कम्युनिज्म की विरासत को नकारा नहीं जा सकता। भूमि सुधार, धर्मनिरपेक्षता, संघीय ढाँचे की रक्षा, सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक तर्कवाद—ये सभी भारतीय लोकतंत्र में वामपंथ के स्थायी योगदान हैं।
विडंबना यह है कि आज जिन परिस्थितियों में भारत खड़ा है—गहराती असमानता, कृषि संकट, असुरक्षित श्रम, कॉरपोरेट केंद्रीकरण और सामाजिक ध्रुवीकरण—वे वही परिस्थितियाँ हैं, जिनसे कम्युनिस्ट आंदोलन ने जन्म लिया था, बल्कि आज वे और अधिक तीव्र हैं। वैश्विक स्तर पर भी समाजवादी विचारों की पुनर्समीक्षा हो रही है।
यदि भारतीय वामपंथ वैचारिक कठोरता त्यागकर व्यापक लोकतांत्रिक गठबंधन बनाए, विखंडित वाम शक्तियों को एक मंच पर लाए और पर्यावरण, डिजिटल असमानता, प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक पहचान जैसे समसामयिक मुद्दों पर नई भाषा विकसित करे, तो उसका पुनरुत्थान असंभव नहीं है।
निष्कर्ष: एक विचारधारा का भविष्य, लोकतंत्र की परीक्षा
सीपीआई की शताब्दी केवल एक राजनीतिक दल का इतिहास नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के वैचारिक संघर्षों की कथा है। आरएसएस की सफलता जहाँ संगठनात्मक लचीलापन और सामाजिक अनुकूलन का उदाहरण है, वहीं सीपीआई का पतन यह चेतावनी देता है कि विचारधारा यदि यथार्थ से कट जाए, तो वह स्वयं को अप्रासंगिक बना लेती है।
फिर भी, सामाजिक न्याय की मूल चुनौतियाँ आज भी जीवित हैं। इसलिए भारतीय कम्युनिज्म का प्रश्न केवल अतीत का नहीं, भविष्य का भी है। उसका पुनरुत्थान न केवल वामपंथ की वापसी होगा, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की वैचारिक बहुलता और नैतिक गहराई की पुनर्स्थापना भी होगा।
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