बांग्लादेश में पुनः उबाल: भारत के लिए यह क्यों महत्वपूर्ण है
भूमिका
वर्तमान अशांति की पृष्ठभूमि
बांग्लादेश में ताजा हिंसा का तत्काल कारण 32 वर्षीय छात्र नेता शरीफ ओसमान हादी की मृत्यु बनी। हादी 2024 के उस छात्र-नेतृत्व वाले आंदोलन का प्रमुख चेहरा था, जो आरक्षण (कोटा सुधार) की मांग से शुरू होकर व्यापक राजनीतिक विद्रोह में बदल गया था। 12 दिसंबर 2025 को ढाका में चुनाव प्रचार के दौरान उस पर गोलीबारी हुई और 18 दिसंबर को सिंगापुर में इलाज के दौरान उसकी मृत्यु हो गई।
उसकी मौत की खबर फैलते ही ढाका, चटगांव, राजशाही सहित कई शहरों में उग्र प्रदर्शन शुरू हो गए। मीडिया संस्थानों—प्रोथोम आलो और डेली स्टार—के कार्यालयों को निशाना बनाया गया, अवामी लीग से जुड़े प्रतीकों पर हमले हुए और भारत-विरोधी नारे गूंजने लगे। हादी को “भारतीय वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष का शहीद” बताने की कोशिश ने इस हिंसा को और भड़काया, जबकि ऐसे दावों के समर्थन में कोई ठोस प्रमाण सामने नहीं आया।
2024 के विद्रोह की निरंतरता
वर्तमान उथल-पुथल को 2024 की घटनाओं से अलग करके नहीं देखा जा सकता। उस वर्ष छात्र आंदोलनों ने शेख हसीना की लंबे समय से चली आ रही सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया। इसके बाद नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बनी, जिससे लोकतांत्रिक संक्रमण की उम्मीदें जगीं। किंतु समय बीतने के साथ ये उम्मीदें कमजोर पड़ने लगीं।
अंतरिम सरकार पर सुधारों में ढिलाई, प्रशासनिक असमर्थता और कट्टरपंथी समूहों को नियंत्रित न कर पाने के आरोप लगे। इस्लामी उग्रवाद के बढ़ते प्रभाव, अवामी लीग के राजनीतिक पतन और विपक्ष के बिखराव ने सत्ता का खालीपन पैदा किया, जिसे विभिन्न ताकतें अपने हित में भरने की कोशिश कर रही हैं। इसी अस्थिरता ने हिंसा को बार-बार जन्म दिया है।
भारत-विरोधी विमर्श का उभार
बांग्लादेश की वर्तमान राजनीति में भारत-विरोधी भावनाओं का पुनरुत्थान एक चिंताजनक प्रवृत्ति है। प्रदर्शनों के दौरान भारत को आंतरिक संकट के लिए दोषी ठहराने की कोशिशें की गईं। ऐतिहासिक रूप से भारत ने 1971 के मुक्ति संग्राम से लेकर आर्थिक और विकासात्मक सहयोग तक बांग्लादेश का समर्थन किया है, किंतु राजनीतिक अस्थिरता के दौर में यह समर्थन ही विवाद का विषय बना दिया गया।
यह विमर्श केवल घरेलू राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके पीछे क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय शक्तियों की भूमिका की भी चर्चा होती है। चीन और पाकिस्तान का बढ़ता प्रभाव—विशेषकर बुनियादी ढांचे, बंदरगाहों और रक्षा सहयोग में—भारत के लिए रणनीतिक चुनौती बन रहा है।
भारत पर पड़ने वाले प्रमुख प्रभाव
1. सुरक्षा और सीमा स्थिरता
भारत-बांग्लादेश सीमा लंबी और संवेदनशील है। राजनीतिक अराजकता से पूर्वोत्तर भारत में उग्रवादी गतिविधियों के पुनर्जीवित होने का खतरा बढ़ जाता है। सिलिगुड़ी कॉरिडोर जैसे रणनीतिक क्षेत्र और बंगाल की खाड़ी में भारत की समुद्री सुरक्षा पर भी इसका असर पड़ सकता है।2. अल्पसंख्यकों की सुरक्षा
शेख हसीना के सत्ता से हटने के बाद बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमलों की घटनाएं बढ़ी हैं। मंदिरों की तोड़फोड़, जबरन पलायन और हत्याओं की खबरें भारत में गहरी चिंता पैदा करती हैं। बांग्लादेशी हिंदू समुदाय का भारत से सांस्कृतिक और सामाजिक जुड़ाव इस मुद्दे को और संवेदनशील बना देता है।3. कूटनीतिक संबंधों पर दबाव
हसीना के भारत में शरण लेने और उनकी प्रत्यर्पण मांग ने दोनों देशों के संबंधों में तनाव बढ़ाया है। भारतीय दूतावासों और सहायक उच्चायोगों पर हमलों से वीजा और कांसुलर सेवाएं बाधित हुईं, जिससे जन-स्तरीय संपर्क प्रभावित हुआ।4. आर्थिक और प्रवासन प्रभाव
अस्थिरता का असर द्विपक्षीय व्यापार और पर्यटन पर भी पड़ रहा है। कोलकाता और पूर्वी भारत के कई क्षेत्रों में बांग्लादेशी पर्यटकों और व्यापारियों पर निर्भर अर्थव्यवस्था प्रभावित हो सकती है। साथ ही अवैध प्रवासन और संभावित शरणार्थी संकट की आशंका भी बढ़ जाती है।निष्कर्ष
बांग्लादेश में उभरती यह नई अस्थिरता केवल एक पड़ोसी देश का आंतरिक संकट नहीं है, बल्कि यह पूरे दक्षिण एशिया की स्थिरता से जुड़ा प्रश्न है। भारत के लिए यह स्थिति संतुलित, धैर्यपूर्ण और सतर्क नीति अपनाने की मांग करती है। सीमा सुरक्षा और खुफिया सहयोग को मजबूत करने के साथ-साथ अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के समर्थन पर कूटनीतिक जोर देना आवश्यक है।
यदि बांग्लादेश में यह अस्थिरता लंबे समय तक बनी रहती है, तो इसके दूरगामी परिणाम भारत की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और क्षेत्रीय नेतृत्व पर पड़ सकते हैं। ऐसे में भारत के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वह अपने पड़ोसी की स्थिरता को न केवल रणनीतिक हित, बल्कि क्षेत्रीय शांति के व्यापक लक्ष्य के रूप में देखे।
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