असम का कार्बी आंगलोंग संकट (2025): भूमि, जातीय पहचान और जनसांख्यिकीय असुरक्षा का उभरता संकट
भूमिका
असम के पश्चिम कार्बी आंगलोंग जिले में दिसंबर 2025 के अंतिम दिनों में भड़की हिंसा ने एक बार फिर यह सवाल सामने ला दिया है कि उत्तर-पूर्व भारत के जनजातीय क्षेत्रों में भूमि, पहचान और बाहरी प्रवास के प्रश्न कितने संवेदनशील और विस्फोटक हो चुके हैं। कोपिली नदी और उससे जुड़ा पुल, जो वर्षों से कार्बी गांवों और गैर-कार्बी बस्तियों के बीच एक भौगोलिक सीमा-रेखा की तरह मौजूद था, अचानक दो समुदायों के बीच गहरी मनोवैज्ञानिक दूरी का प्रतीक बन गया।
22 और 23 दिसंबर को हुई घटनाएं केवल दो दिनों की हिंसा नहीं थीं; यह उस असंतोष का विस्फोट था, जो लंबे समय से दबा हुआ था और जिसे संवाद और नीतिगत संजीदगी के अभाव में लगातार अनदेखा किया जाता रहा।
संघर्ष की चिंगारी: भूख हड़ताल और विवादित भूमि का सवाल
हिंसा की पृष्ठभूमि की शुरुआत पहेलंगपी गांव से होती है, जहां 6 दिसंबर से नौ कार्बी युवक अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे थे। उनकी मांग थी कि ग्राम ग्रेजिंग रिजर्व (VGR) और प्रोफेशनल ग्रेजिंग रिजर्व (PGR) भूमि से कथित अवैध बसने वालों को हटाया जाए। इन जमीनों को संविधान की छठी अनुसूची के तहत विशेष संरक्षण प्राप्त है, जिसका उद्देश्य आदिवासी समुदायों के परंपरागत भूमि अधिकारों की रक्षा करना है।
कार्बी समुदाय का आरोप है कि बाहरी लोग — विशेषकर बिहार, बंगाल और नेपाली मूल के प्रवासी — धीरे-धीरे इन संरक्षित क्षेत्रों में बसते गए, जिससे स्थानीय आबादी अपने ही भूक्षेत्र में संख्या और प्रभाव दोनों में कमज़ोर पड़ने लगी। उनकी दृष्टि में यह केवल अतिक्रमण नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और जनसांख्यिकीय विस्थापन का खतरा है।
22 दिसंबर की तड़के जब प्रशासन ने भूख हड़ताल पर बैठे युवाओं को “स्वास्थ्य सुरक्षा” के आधार पर जबरन हटाकर गुवाहाटी भेजा, तो समुदाय ने इसे गिरफ्तारी और आंदोलन कुचलने की कोशिश के रूप में देखा। यही कदम तनाव को भड़काने वाला निर्णायक मोड़ साबित हुआ।
सड़क पर उतरा गुस्सा, सुलगती पहचान
हजारों कार्बी युवा, महिलाएं और बुजुर्ग सड़कों पर उतर आए। खेरोनी ब्रिज पर यातायात अवरुद्ध कर दिया गया और देखते-देखते माहौल उग्र हो गया। भीड़ ने कार्बी आंगलोंग ऑटोनॉमस काउंसिल के मुख्य कार्यकारी सदस्य और बीजेपी नेता तुलिराम रोंगहांग के पैतृक घर को आग के हवाले कर दिया।
अगले दिन स्थिति और भड़क उठी — खेरोनी डेली मार्केट हिंसा का केंद्र बन गया। भीड़ द्वारा पथराव, तीरों और क्रूड बमों का इस्तेमाल, और पुलिस की जवाबी कार्रवाई — सब मिलकर हालात नियंत्रण से बाहर ले गए। आगजनी और लूटपाट मुख्यतः उन दुकानों और घरों पर केंद्रित रही, जिन्हें गैर-कार्बी समुदाय से जोड़ा जाता है।
हताहत, नुकसान और भय की परतें
हिंसा में दो लोगों की मौत हुई —
- एक दिव्यांग बंगाली निवासी सुरज डे, जो अपने जले घर के मलबे में दबकर चल बसे।
- दूसरी मौत कार्बी समुदाय के प्रदर्शनकारी लिनस फंगचो (या अथिक टिमुंग) की, जो पुलिस कार्रवाई के दौरान गंभीर रूप से घायल हो गए।
दर्जनों दुकानें और घर राख में बदल गए, कई परिवार अपने सामान को ट्रकों में भरकर भागने को मजबूर हुए। पुलिसकर्मियों और प्रदर्शनकारियों — दोनों पक्षों में बड़ी संख्या में लोग घायल हुए।
इन दृश्यों ने क्षेत्र में अविश्वास, भय और असुरक्षा की गहरी रेखा खींच दी।
तनाव की जड़ें: भूमि से आगे पहचान का सवाल
यह विवाद केवल भूमि पर कब्जे या बेदखली का नहीं है। इसके भीतर कई परतें हैं —
- जनजातीय स्वायत्तता और राजनीतिक प्रतिनिधित्व
- बाहरी प्रवास और पहचान का असंतुलन
- प्रशासनिक निर्णयों में स्थानीय चिंताओं की उपेक्षा
- न्यायिक प्रक्रियाओं के कारण टलती कार्रवाई और बढ़ती हताशा
2024 में जब गैर-कार्बी समुदाय ने 2011 से पहले बसे परिवारों को वैधता देने की मांग रखी, तो कार्बी समूहों ने इसे अपनी भूमि-रक्षा की अवधारणा के खिलाफ माना। वहीं, सरकार द्वारा घोषित बेदखली अभियान अदालत में अटक गया — जिससे दोनों समुदायों के भीतर संदेह और आरोपों का चक्र गहराता चला गया।
राज्य की प्रतिक्रिया और नियंत्रण के उपाय
हिंसा के बाद जिले में धारा 163 लागू की गई, बड़े जमावड़ों पर रोक लगी और इंटरनेट सेवाएं निलंबित कर दी गईं ताकि अफवाहों पर अंकुश लगाया जा सके। पुलिस की मदद के लिए सेना को बुलाया गया, जिसके फ्लैग मार्च से स्थिति पर कुछ हद तक नियंत्रण स्थापित हुआ।
मुख्यमंत्री की ओर से शांति और संवाद की अपील की गई तथा त्रिपक्षीय बैठक बुलाने की घोषणा की गई — परंतु ज़मीन पर घाव अभी भी ताज़ा हैं।
आवाज़ें जो दर्द और असंतोष बयान करती हैं
पीड़ितों और प्रदर्शनकारियों की बातें इस संघर्ष के दो ध्रुवों को उजागर करती हैं —
- गैर-कार्बी परिवार अपने जीवन की सुरक्षा और दशकों से बसे होने के अधिकार की बात करते हैं।
- कार्बी समुदाय अपनी पूर्वजों की भूमि और सांस्कृतिक अस्तित्व की रक्षा को जीवन-मरण का प्रश्न मानता है।
इन आवाजों के बीच एक साझा भावना है — असुरक्षा और अनसुनी हुई पीड़ा।
निष्कर्ष: समाधान केवल कानून नहीं, संवाद से संभव
पश्चिम कार्बी आंगलोंग की घटना नीतिगत शिथिलता, पहचान-संबंधी चिंताओं और भूमि प्रशासन की ऐतिहासिक कमजोरियों का सम्मिलित परिणाम है।
यदि इस संघर्ष को केवल सुरक्षा व्यवस्था या बेदखली-अभियानों के नजरिए से देखा गया, तो यह अस्थायी शांति तो ला सकता है, पर समस्या की जड़ें जस की तस बनी रहेंगी।
ज़रूरत है —
- समुदाय-आधारित संवाद प्रक्रियाओं की
- न्यायपूर्ण और पारदर्शी भूमि सर्वेक्षण की
- पारंपरिक अधिकारों और मानवीय संवेदनाओं के बीच संतुलन की
अन्यथा यह फूट समय-समय पर नए रूप में फिर भड़क सकती है — और हर बार कीमत चुकानी पड़ेगी आम लोगों को।
With The Indian Express Inputs
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