Beverage Industry and Water Crisis in Rajasthan: Groundwater Depletion, Regulations, and Community Impact in Alwar
राजस्थान में पेय उद्योग और जल संकट: विकास, संसाधन और सामाजिक असमानता के बीच संतुलन की जंग
भूमिका
भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी का घर है, परंतु उसके पास विश्व के ताजे जल संसाधनों का मात्र चार प्रतिशत हिस्सा ही उपलब्ध है। ऐसे में शुष्क और मरुस्थलीय भू-भाग वाले राज्य, विशेषकर राजस्थान, जल-संकट से सबसे तीव्र रूप में जूझ रहे हैं। राज्य का बड़ा हिस्सा थार मरुस्थल से आच्छादित है और यहां भूजल का दोहन देश में सबसे अधिक दरों में गिना जाता है। इसी परिदृश्य के बीच अलवर जिले में सक्रिय वैश्विक पेय कंपनियां — हाइनेकेन, कार्ल्सबर्ग, डायजियो तथा संबद्ध ब्रांड — एक ऐसी बहस के केंद्र में हैं जिसमें औद्योगिक विकास, स्थानीय जल अधिकार और पर्यावरणीय स्थिरता आमने-सामने खड़े दिखाई देते हैं।
भारत के शराब एवं पेय पदार्थ नियंत्रण नियमों के चलते कंपनियों को उत्पादन इकाइयाँ उसी राज्य में स्थापित करनी पड़ती हैं जहाँ उनका उत्पाद बेचा जाता है। परिणामस्वरूप उद्योग और स्थानीय समुदाय, दोनों एक ही सीमित जलस्रोत पर निर्भर हो जाते हैं — और यही तनाव का मूल बनता है।
जल संकट का भूगोल और समाज — अलवर का अनुभव
अलवर जिला, जो दिल्ली से लगभग 150 किलोमीटर दक्षिण–पश्चिम में स्थित है, राजस्थान के औद्योगिक मानचित्र पर महत्वपूर्ण स्थान रखता है। लेकिन आर्थिक गतिविधियों के इस विस्तार के पीछे एक गहरी पर्यावरणीय चिंता छिपी है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, यहां भूजल निकासी की गति प्राकृतिक रिचार्ज दर से लगभग दोगुनी है।
हालाँकि आंकड़े बताते हैं कि राज्य के कुल जल उपयोग में उद्योग का हिस्सा करीब 2% ही है, परंतु ग्रामीण समुदाय के लिए वास्तविक संकट उस स्तर पर महसूस होता है जहाँ पीने का पानी ही दुर्लभ संसाधन बन जाता है।
सालपुर जैसे गांवों में पानी पाइपलाइन से सप्ताह में केवल एक बार आता है। अधिकांश परिवार बोरवेल पर निर्भर हैं, जहाँ लंबी कतारें और प्रतीक्षा सामान्य दिनचर्या बन चुकी है। कई ग्रामीणों को निजी पाइपलाइन बिछाने और पानी के वैकल्पिक स्रोत तैयार करने में बड़ी आर्थिक लागत उठानी पड़ती है। यही कारण है कि आम जनता के मन में यह धारणा बनती है कि जल संकट के पीछे उद्योगों की बड़ी भूमिका है, भले ही वैज्ञानिक रूप से इसका मुख्य कारण सिंचाई आधारित कृषि ही क्यों न हो।
नियमन, प्रतिबंध और नीतिगत ढांचा
राजस्थान सरकार ने अति–दोहन वाले क्षेत्रों के लिए कड़े नियम लागू किए हैं। वर्षा जल संचयन, एक्विफर रिचार्ज संरचनाएँ और जल–कुशल तकनीकों का उपयोग सभी औद्योगिक इकाइयों के लिए अनिवार्य है।
2025 में जारी अनुमतियों के अनुसार, अलवर जिले में ब्रुअरी कंपनियों को प्रतिदिन लगभग 46 लाख लीटर भूजल उपयोग की सीमा दी गई है, जिसमें हाइनेकेन की हिस्सेदारी 12 लाख लीटर प्रतिदिन है। न्यायालय भी इस प्रक्रिया की निगरानी कर रहा है और भूजल दोहन पर सख्ती से रिपोर्टिंग तथा निरीक्षण का निर्देश दे चुका है।
नीतियाँ बताती हैं कि सरकार संकट को पहचानती है — परंतु सवाल यह है कि क्या नीतिगत सख्ती और वास्तविक क्रियान्वयन समान स्तर पर चल रहे हैं?
कंपनियों की पहल — सतत उद्योग या जनसंपर्क रणनीति?
पेय कंपनियाँ स्वयं को समस्या का छोटा घटक बताते हुए यह तर्क देती हैं कि वे जल संरक्षण में सक्रिय साझेदार हैं।
- डायजियो ने जल उपयोग में कमी, 100% वेस्टवाटर रिसाइकलिंग और उत्पादन में जल–कुशल तकनीकों को अपनाने की दिशा में लक्ष्य निर्धारित किए हैं।
- कार्ल्सबर्ग ने नियामकीय मानकों से अधिक जल–प्रतिपूर्ति (water replenishment) कार्यक्रमों का वादा किया है।
- हाइनेकेन, सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर तालाब पुनर्जीवन, वर्षा जल संचयन और सामुदायिक जल ढाँचों के निर्माण जैसी परियोजनाएँ संचालित कर रही है।
इन प्रयासों के बावजूद, नागरिक समाज का एक वर्ग मानता है कि किए जा रहे प्रयास समस्या की गहराई से कहीं छोटे हैं। जल संकट केवल CSR परियोजनाओं से नहीं सुलझता — इसके लिए व्यापक संरचनात्मक बदलावों की आवश्यकता है।
संकट के मूल कारण — कृषि, शहरीकरण और बढ़ती माँग
यदि व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि भूजल का सबसे बड़ा उपभोक्ता उद्योग नहीं, बल्कि कृषि क्षेत्र है। धान, गन्ना और पानी–गहन फसलों का विस्तार, परंपरागत सिंचाई पद्धतियाँ, और न्यूनतम पुनर्भरण — इन सभी ने जलस्रोतों को लगातार कमजोर किया है।
इसके साथ ही शहरीकरण, पर्यटन और आर्थिक गतिविधियों का विस्तार जल पर दबाव बढ़ा रहा है। इस प्रकार, उद्योग–समुदाय टकराव दरअसल संसाधन वितरण और प्राथमिकताओं से जुड़ा एक सामाजिक–आर्थिक प्रश्न बन जाता है।
आगे का रास्ता — समन्वित जल–शासन की आवश्यकता
राजस्थान का जल संकट हमें यह याद दिलाता है कि विकास की कोई भी परियोजना तभी टिकाऊ है जब वह स्थानीय पारिस्थितिकी, समाज और अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन बनाते हुए आगे बढ़े।
दीर्घकालिक समाधान के लिए आवश्यक है—
- कृषि क्षेत्र में माइक्रो–इरिगेशन और फसल–विविधीकरण,
- बड़े पैमाने पर जल पुनर्भरण अवसंरचना,
- उद्योगों की पारदर्शी जल लेखा–प्रणाली,
- और समुदाय की निर्णय–प्रक्रिया में सीधी भागीदारी।
यह जिम्मेदारी किसी एक पक्ष की नहीं — बल्कि सरकार, उद्योग और नागरिक समाज की संयुक्त प्रतिबद्धता से ही निभाई जा सकती है।
समापन
राजस्थान का जल संकट केवल एक राज्य की चुनौती नहीं, बल्कि भारत के विकास मॉडल में छिपे उस विरोधाभास का प्रतीक है जहाँ आर्थिक प्रगति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के बीच निरंतर संघर्ष जारी है।
पेय उद्योग का योगदान आँकड़ों में भले ही छोटा प्रतीत हो, परंतु जल संकट का बोझ सबसे पहले और सबसे गहराई से स्थानीय समुदायों के जीवन पर पड़ता है। इसलिए समाधान भी वही होगा जो लोगों की रोजमर्रा की जरूरतों को केंद्र में रखकर तैयार किया जाए।
यदि सभी हितधारक साथ आएँ, तो मरुस्थलीय भूभाग में भी जल–प्रबंधन का एक नया, स्थायी मॉडल विकसित किया जा सकता है। अन्यथा यह संकट आने वाले वर्षों में कृषि, उद्योग, और आम जनजीवन — तीनों के लिए और अधिक गंभीर रूप ले सकता है।
With Reuters Inputs
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