“वंदे मातरम्” और संवैधानिक स्वतंत्रता: असदुद्दीन ओवैसी के वक्तव्य के संदर्भ में एक अकादमिक विश्लेषण
भारतीय लोकतंत्र में राष्ट्रवाद, धार्मिक स्वतंत्रता और संवैधानिक मूल्यों के बीच संतुलन का प्रश्न समय-समय पर बहस का केंद्र रहा है। लोकसभा में वंदे मातरम् पर हुई विशेष चर्चा इसी विमर्श को पुनः प्रासंगिक बनाती है, जहां AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी ने यह कहते हुए अपना दृष्टिकोण रखा कि “वतन से मोहब्बत का मतलब है देश के लोगों के लिए काम करना, न कि किसी गाने को वफादारी की कसौटी बनाना।”
यह बहस आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद के तीन प्रमुख स्तंभों—संवैधानिक राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, और नागरिक स्वतंत्रता—के अंतर्संबंध को उजागर करती है।
1. राष्ट्रवाद की अवधारणा: संवैधानिक बनाम सांस्कृतिक
भारत जैसे बहुलतावादी समाज में राष्ट्रवाद की परिभाषा एकरूप नहीं हो सकती।
- संवैधानिक राष्ट्रवाद, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने K.S. Puttaswamy (2017) और Bijoe Emmanuel (1986) जैसे मामलों में स्पष्ट किया, नागरिकों की निष्ठा को संविधान के मूल्यों—न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व—से जोड़ता है।
- दूसरी ओर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अक्सर राष्ट्र की पहचान को ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक प्रतीकों से जोड़ता है; वंदे मातरम् इसी सांस्कृतिक स्मृति का हिस्सा है।
ओवैसी के वक्तव्य को इसी द्वंद्व के भीतर समझना आवश्यक है, क्योंकि उनका तर्क संवैधानिक राष्ट्रवाद के पक्ष में झुकता है।
2. ‘वंदे मातरम्’ के ऐतिहासिक आयाम
‘वंदे मातरम्’ बंगाली उपन्यास आनंदमठ से लिया गया गीत है, जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की आत्मा बन गया था।
लेकिन इसके कुछ हिस्सों में देवी की आराधना शामिल होने के कारण, कुछ धार्मिक समुदायों द्वारा इसे एक धार्मिक स्तुति समझा गया और इस पर आपत्तियाँ दर्ज की गईं।
स्वतंत्र भारत ने इस ऐतिहासिक विवाद को संतुलित करते हुए यह व्यवस्था की कि—
- जन गण मन को राष्ट्रगान का दर्जा दिया गया
- जबकि वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गीत का सम्मान मिला, पर इसे अनिवार्य नहीं बनाया गया
यह व्यवस्था भारत की बहुलतावादी संरचना के अनुरूप थी।
3. धार्मिक स्वतंत्रता और व्यक्तिपरक राष्ट्रभक्ति
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, और अनुच्छेद 19(1)(a) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है।
Bijoe Emmanuel बनाम स्टेट ऑफ केरल (1986) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी भी नागरिक को देशभक्ति के नाम पर धार्मिक या वैचारिक रूप से बाध्य नहीं किया जा सकता।
इस निर्णय के अनुसार,
- राष्ट्रगान के समय सम्मान करना आवश्यक है
- लेकिन गाना या उच्चारण करना नागरिक का वैधानिक कर्तव्य नहीं है
- सरकार नागरिकों के अंतरात्मा के अधिकार में दखल नहीं दे सकती
यदि राष्ट्रगान पर बाध्यता नहीं है, तो राष्ट्रीय गीत पर बाध्यता का प्रश्न और भी असंगत प्रतीत होता है।
4. क्या ‘वंदे मातरम्’ वफादारी का पैमाना है?
ओवैसी का तर्क यह है कि देशभक्ति को मापा जाना चाहिए—
- नागरिकों की कार्यक्षमता से,
- संविधान के प्रति प्रतिबद्धता से,
- समाज के कमजोर वर्गों के लिए काम करने से,
ना कि किसी गीत के उच्चारण या अनुपालन से।
यह तर्क संवैधानिक राष्ट्रवाद की अवधारणा से मेल खाता है, जो प्रतीकों की बजाय नैतिक उत्तरदायित्व और संवैधानिक कर्तव्य को प्राथमिकता देता है।
5. राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान: अधिकार या कर्तव्य?
निश्चित रूप से राष्ट्रीय गीत सहित सभी राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना नागरिक कर्तव्य (Article 51A) है।
लेकिन सम्मान और बाध्यता में अंतर है।
- सम्मान एक नैतिक आचरण है
- बाध्यता कानूनी दंड और वफादारी के परीक्षण का रूप ले लेती है
लोकतंत्र में राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान स्वेच्छा आधारित ही होना चाहिए, क्योंकि सम्मान किसी भी स्थिति में थोपे जाने से नहीं आता।
6. समसामयिक राजनीति और राष्ट्रवाद का विमर्श
वर्तमान राजनीतिक माहौल में देशभक्ति अक्सर पहचान-आधारित राजनीति से जुड़ जाती है।
ऐसे समय में ओवैसी का बयान यह संदेश देता है कि—
- राष्ट्रवाद का स्वरूप समावेशी होना चाहिए
- किसी भी प्रतीक को “निष्ठा की कसौटी” बनाना लोकतांत्रिक विविधता को सीमित करता है
- असहमति का अधिकार लोकतंत्र की बुनियाद है
इसलिए यह विमर्श केवल वंदे मातरम् का मुद्दा नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक नागरिकता के सार की पड़ताल भी है।
निष्कर्ष
भारतीय राष्ट्रवाद का आधार बहुलता, असहमति, और संवैधानिक मूल्यों का सम्मान है।
‘वंदे मातरम्’ एक महान राष्ट्रीय प्रतीक है, लेकिन इसे वफादारी का परीक्षण बनाना न तो संवैधानिक आदर्शों से मेल खाता है और न ही भारत जैसे विविध लोकतंत्र की आत्मा से।
ओवैसी का वक्तव्य इस व्यापक बहस की ओर ध्यान दिलाता है कि—
सम्मान जरूरी है, पर सम्मान थोपे जाने से नहीं पैदा होता।
देशभक्ति गीतों में नहीं, नागरिक कर्तव्यों के निर्वहन में निहित है।
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