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Cracking UPSC Mains Through Current Affairs Analysis

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China’s Rapid Nuclear Weapons Expansion and Modernization: Strategic Shift and Global Security Implications

चीन की परमाणु हथियारों की तीव्र वृद्धि और आधुनिकीकरण: बदलते वैश्विक सामरिक संतुलन का संकेत

भूमिका

21वीं सदी के तीसरे दशक में वैश्विक सुरक्षा परिदृश्य एक बार फिर परमाणु हथियारों की छाया में प्रवेश करता दिखाई दे रहा है। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद यह माना गया था कि परमाणु हथियारों की भूमिका क्रमशः सीमित होगी, किंतु हाल के वर्षों में यह धारणा तेजी से कमजोर हुई है। विशेष रूप से चीन की परमाणु क्षमता में हो रही तीव्र वृद्धि और आधुनिकीकरण ने अंतरराष्ट्रीय रणनीतिक विमर्श को नए सिरे से झकझोर दिया है। स्वतंत्र अनुसंधान संस्थानों और रक्षा विश्लेषकों के अनुसार, चीन आज वह परमाणु शक्ति बन चुका है, जिसकी हथियार वृद्धि की गति विश्व में सबसे तेज़ है। यह लेख चीन की परमाणु शक्ति के विस्तार, उसके पीछे के कारणों, आधिकारिक चीनी दृष्टिकोण तथा वैश्विक और क्षेत्रीय निहितार्थों का समग्र एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है।


चीन की परमाणु क्षमता: वर्तमान परिदृश्य

दिसंबर 2025 तक उपलब्ध आकलनों के अनुसार, चीन के पास लगभग 600 परमाणु वारहेड्स हैं। यह संख्या भले ही अमेरिका और रूस के विशाल भंडार से कम हो, किंतु वृद्धि की गति के संदर्भ में चीन स्पष्ट रूप से आगे है। पिछले कुछ वर्षों में चीन प्रतिवर्ष दर्जनों नए परमाणु वारहेड्स जोड़ रहा है, जो उसके दीर्घकालिक रणनीतिक दृष्टिकोण में एक मौलिक परिवर्तन का संकेत देता है।

सबसे उल्लेखनीय विकास चीन द्वारा विशाल इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल (ICBM) साइलो फील्ड्स का निर्माण है। उपग्रह चित्रों और खुले स्रोतों के विश्लेषण से संकेत मिलता है कि उत्तर-पश्चिमी चीन में सैकड़ों नए साइलो या तो पूरे हो चुके हैं या निर्माणाधीन हैं। यह संरचनात्मक विस्तार न केवल मिसाइलों की संख्या बढ़ाने का माध्यम है, बल्कि चीन की परमाणु क्षमता को अधिक लचीला, सुरक्षित और जीवित (survivable) बनाने की रणनीति को भी दर्शाता है।

इसके साथ ही चीन अपनी न्यूक्लियर ट्रायड—भूमि, समुद्र और वायु आधारित परमाणु क्षमताओं—को व्यवस्थित रूप से मजबूत कर रहा है। नई पीढ़ी की मोबाइल और मल्टीपल वारहेड ले जाने में सक्षम मिसाइलें, उन्नत परमाणु पनडुब्बियाँ तथा परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम बॉम्बर विमानों का विकास इस दिशा में स्पष्ट संकेत हैं कि चीन अब केवल न्यूनतम निरोध तक सीमित नहीं रहना चाहता।


वृद्धि और आधुनिकीकरण के पीछे के कारण

चीन की परमाणु नीति में यह परिवर्तन आकस्मिक नहीं है, बल्कि इसके पीछे कई रणनीतिक, राजनीतिक और तकनीकी कारक कार्य कर रहे हैं।

पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण है रणनीतिक असुरक्षा की भावना। अमेरिका द्वारा विकसित की जा रही मिसाइल रक्षा प्रणालियाँ, अंतरिक्ष आधारित निगरानी क्षमताएँ और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में सैन्य गठबंधनों का विस्तार—विशेष रूप से AUKUS—चीन को यह आशंका पैदा करता है कि उसकी पारंपरिक दूसरी प्रहार क्षमता कमजोर पड़ सकती है। ऐसे में चीन अपने परमाणु बल को इतना व्यापक और विविध बनाना चाहता है कि कोई भी संभावित प्रतिद्वंद्वी उसे निष्क्रिय न कर सके।

दूसरा कारण है भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षा। ताइवान प्रश्न, दक्षिण चीन सागर में क्षेत्रीय विवाद और अमेरिका के साथ दीर्घकालिक सामरिक प्रतिस्पर्धा ने चीन को एक ऐसे शक्ति संतुलन की ओर प्रेरित किया है, जहाँ परमाणु क्षमता अंतिम सुरक्षा गारंटी के रूप में कार्य करे।

तीसरा कारण है तकनीकी आधुनिकीकरण की आवश्यकता। चीन की कई पुरानी मिसाइल प्रणालियाँ अब रणनीतिक दृष्टि से अप्रासंगिक हो रही थीं। उन्हें अधिक सटीक, तेज़ और मोबाइल प्रणालियों से प्रतिस्थापित करना केवल संख्या बढ़ाने का नहीं, बल्कि गुणवत्ता सुधारने का भी प्रयास है।

इन सभी कारणों का संयुक्त प्रभाव यह दर्शाता है कि चीन अब पारंपरिक “न्यूनतम निरोध” की अवधारणा से आगे बढ़कर एक अधिक मजबूत और विश्वसनीय परमाणु संरचना की ओर अग्रसर है।


चीन की आधिकारिक नीति और उसका कथन

चीन का आधिकारिक रुख इस पूरे विमर्श में एक रोचक विरोधाभास प्रस्तुत करता है। बीजिंग लगातार यह दावा करता रहा है कि उसकी परमाणु नीति पूर्णतः रक्षात्मक है। चीन स्वयं को “नो फर्स्ट यूज़” सिद्धांत का समर्थक बताता है और यह दोहराता है कि वह किसी भी परिस्थिति में पहले परमाणु हथियारों का प्रयोग नहीं करेगा।

चीनी विदेश मंत्रालय और दूतावासों ने पश्चिमी रिपोर्टों को अतिरंजित और राजनीतिक रूप से प्रेरित बताया है। उनके अनुसार, अमेरिका और उसके सहयोगी ही हथियारों की दौड़ को बढ़ावा दे रहे हैं, जबकि चीन केवल अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु न्यूनतम आवश्यक कदम उठा रहा है।

हालाँकि, अंतरराष्ट्रीय विश्लेषकों के लिए यह प्रश्न बना हुआ है कि यदि चीन वास्तव में न्यूनतम निरोध तक सीमित है, तो फिर सैकड़ों नए साइलो और तीव्र गति से बढ़ती वारहेड संख्या की आवश्यकता क्यों है।


वैश्विक और क्षेत्रीय निहितार्थ

चीन की परमाणु वृद्धि के प्रभाव केवल द्विपक्षीय अमेरिका–चीन संबंधों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह पूरे वैश्विक परमाणु संतुलन को प्रभावित कर रही है।

सबसे पहले, यह विकास मौजूदा हथियार नियंत्रण व्यवस्था को कमजोर करता है। अमेरिका और रूस के बीच की संधियाँ पहले से ही दबाव में हैं, और चीन की अनुपस्थिति उन्हें और अप्रासंगिक बनाती जा रही है।

दूसरे, एशिया में परमाणु प्रतिस्पर्धा के तेज़ होने की संभावना बढ़ जाती है। भारत, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया पहले से ही अपनी-अपनी सुरक्षा चिंताओं से प्रेरित हैं, और चीन की बढ़ती क्षमता क्षेत्रीय संतुलन को पुनर्परिभाषित कर सकती है।

तीसरे, वैश्विक स्तर पर परमाणु अप्रसार संधि (NPT) की नैतिक और राजनीतिक विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगते हैं, क्योंकि एक घोषित परमाणु शक्ति द्वारा तीव्र विस्तार अप्रसार के मूल उद्देश्य से टकराता प्रतीत होता है।


निष्कर्ष

चीन की परमाणु हथियारों की वृद्धि और आधुनिकीकरण केवल सैन्य आँकड़ों का विषय नहीं है, बल्कि यह बदलते वैश्विक शक्ति संतुलन का दर्पण है। जहाँ चीन इसे अपनी सुरक्षा की अनिवार्य आवश्यकता के रूप में देखता है, वहीं अंतरराष्ट्रीय समुदाय इसे एक संभावित नई परमाणु हथियारों की दौड़ की शुरुआत मानता है।

भविष्य की वैश्विक स्थिरता इस बात पर निर्भर करेगी कि क्या चीन बहुपक्षीय हथियार नियंत्रण वार्ताओं में सक्रिय भूमिका निभाने को तैयार होता है या नहीं। संवाद, पारदर्शिता और विश्वास-निर्माण के बिना यह जोखिम बना रहेगा कि दुनिया एक बार फिर परमाणु प्रतिस्पर्धा के उस दौर में लौट जाए, जिससे निकलने में मानवता को दशकों लग गए थे। ऐसे में चीन की परमाणु नीति न केवल सामरिक, बल्कि कूटनीतिक और नैतिक दृष्टि से भी गहन वैश्विक विमर्श की मांग करती है।

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