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Cracking UPSC Mains Through Current Affairs Analysis

करंट अफेयर्स में छिपे UPSC मेन्स के संभावित प्रश्न प्रस्तावना UPSC सिविल सेवा परीक्षा केवल तथ्यों का संग्रह नहीं है, बल्कि सोचने, समझने और विश्लेषण करने की क्षमता की परीक्षा है। प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) तथ्यों और अवधारणाओं पर केंद्रित होती है, लेकिन मुख्य परीक्षा (Mains) विश्लेषणात्मक क्षमता, उत्तर लेखन कौशल और समसामयिक घटनाओं की समझ को परखती है। यही कारण है कि  करंट अफेयर्स UPSC मेन्स की आत्मा माने जाते हैं। अक्सर देखा गया है कि UPSC सीधे समाचारों से प्रश्न नहीं पूछता, बल्कि घटनाओं के पीछे छिपे गहरे मुद्दों, नीतिगत पहलुओं और नैतिक दुविधाओं को प्रश्न में बदल देता है। उदाहरण के लिए, अगर अंतरराष्ट्रीय मंच पर जलवायु परिवर्तन की चर्चा हो रही है, तो UPSC प्रश्न पूछ सकता है —  “भारत की जलवायु नीति घरेलू प्राथमिकताओं और अंतरराष्ट्रीय दबावों के बीच किस प्रकार संतुलन स्थापित करती है?” यानी, हर करंट इवेंट UPSC मेन्स के लिए एक संभावित प्रश्न छुपाए बैठा है। इस लेख में हम देखेंगे कि हाल के करंट अफेयर्स किन-किन तरीकों से UPSC मेन्स के प्रश्न बन सकते हैं, और विद्यार्थी इन्हें कैसे अपनी तै...

Bharat ki Videsh Neeti mein Dvidaliya Sahmati ka Hraas: Putin ki 2025 Yatra aur Ubharti Rajnitik Darar

भारतीय विदेश नीति में द्विदलीय सहमति का क्षरण: पुतिन की 2025 भारत यात्रा के संदर्भ में एक समग्र विश्लेषण

(नीरजा चौधरी के विश्लेषण पर आधारित मौलिक व शैक्षिक टिप्पणी)

स्वतंत्रता के बाद से भारत की विदेश नीति एक महत्वपूर्ण विशेषता के लिए जानी जाती रही है—द्विदलीय (bipartisan) सहमति। चाहे नेहरू का गुटनिरपेक्षता का युग हो, इंदिरा गांधी की महाशक्तियों के बीच संतुलन की रणनीति, राजीव गांधी का आधुनिकीकरण-उन्मुख दृष्टिकोण हो या मनमोहन सिंह का वैश्विक एकीकरण—विदेश नीति सामान्यतः दलगत राजनीति से ऊपर रखी गई। इस निरंतरता ने न केवल भारत की वैश्विक छवि को स्थिरता दी, बल्कि यह भी संदेश दिया कि विश्व के किसी भी साझेदार के साथ भारत का संबंध “राष्ट्रहित” से संचालित होता है, न कि घरेलू राजनीतिक प्रतिस्पर्धा से।

लेकिन दिसंबर 2025 में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा ने इस परंपरा में एक अप्रत्याशित विचलन उत्पन्न किया। यह दौरा अपने भू-राजनीतिक और रणनीतिक आयामों की वजह से अत्यधिक विशेष था—

  • यूक्रेन युद्ध चौथे वर्ष में प्रवेश कर चुका है,
  • रूस पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण वैश्विक आर्थिक तंत्र से आंशिक रूप से अलग-थलग है,
  • भारत QUAD, I2U2 और पश्चिमी साझेदारियों में सक्रिय होते हुए भी ऊर्जा, रक्षा व सामरिक तकनीक के क्षेत्र में रूस पर भारी निर्भर है।

ऐसे संवेदनशील दौर में एक समन्वित, संस्थागत और एकजुट भारतीय रुख की अपेक्षा स्वाभाविक थी। किंतु हैदराबाद हाउस में आयोजित आधिकारिक रात्रिभोज से लोकसभा व राज्यसभा के नेताओं—राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे—को बाहर रखना वर्षों पुरानी द्विदलीय कूटनीतिक परंपरा से विचलन था।

यह केवल ‘प्रोटोकॉल विवाद’ नहीं—एक गहरी प्रवृत्ति का संकेत

यह घटना कई व्यापक प्रश्नों को जन्म देती है:

1. क्या भारत की विदेश नीति अब घरेलू राजनीतिक ध्रुवीकरण का विस्तार बन रही है?

अब तक विदेश नीति को “राष्ट्रीय सहमति” के क्षेत्र के रूप में देखा जाता था। परंतु यह बहिष्कार संकेत देता है कि सत्ता पक्ष विदेश नीति को भी राजनीतिक संदेश देने के उपकरण की तरह उपयोग कर रहा है।

2. क्या इससे भारत की “रणनीतिक स्वायत्तता” कमजोर पड़ सकती है?

रणनीतिक स्वायत्तता का मूल आधार यह रहा है कि भारत का विदेश नीति रुख किसी एक दल या नेता पर नहीं, बल्कि एक दीर्घकालिक राष्ट्रीय दृष्टि पर आधारित है। विपक्ष की उपस्थिति को सीमित करना उस परंपरा के क्षरण का संकेत देता है।

3. क्या विदेशी साझेदारों के सामने आंतरिक विभाजन प्रदर्शित करना भारत की संस्थागत विश्वसनीयता को प्रभावित करता है?

रूस जैसे देश, जो दशकों से भारत के साथ स्थिर व संस्थागत संबंधों पर भरोसा करते आए हैं, यह संदेश पा सकते हैं कि भारत की विदेश नीति नेतृत्व-केंद्रित होती जा रही है। इससे भविष्य में निर्णय-निर्माण और सौदेबाजी की स्थिरता प्रभावित हो सकती है।

ऐतिहासिक संदर्भ: परंपरा क्या थी और क्यों महत्वपूर्ण थी?

अतीत में—

  • इंदिरा गांधी ने ब्रेज़नेव जैसे सोवियत नेताओं के भारत दौरे में विपक्ष को शामिल किया,
  • अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिकी व रूसी नेतृत्व के साथ मुलाकातों में विपक्ष को प्रोटोकॉल का हिस्सा बनाया,
  • 2019 में ‘नमस्ते ट्रंप’ के दौरान भी विपक्ष की उपस्थिति सुनिश्चित की गई थी।

इस परंपरा का सार यह था कि भारत विदेशी शक्तियों के सामने आंतरिक एकता का संदेश देता रहा। यह एक प्रतीकात्मक लेकिन प्रभावी कूटनीतिक पूंजी थी, जिसे भारत दशकों से संजोता आया है।

नीरजा चौधरी की टिप्पणी का सार

नीरजा चौधरी इसे “अन्यथा impeccably planned visit में अनावश्यक खटास” बताती हैं। यह खटास केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि कूटनीतिक और रणनीतिक है—

  • यह संकेत देती है कि भारत का राजनीतिक तंत्र विदेश नीति को एक निष्पक्ष क्षेत्र के रूप में सुरक्षित रखने में असफल हो रहा है,
  • और यह कि सत्ता पक्ष घरेलू राजनीतिक संकेतों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी आगे बढ़ा रहा है।

निष्कर्ष: राष्ट्रीय हित बनाम घरेलू राजनीति

पुतिन का 2025 का भारत दौरा अंततः इस व्यापक प्रवृत्ति का दर्पण बन गया कि आंतरिक राजनीतिक कटुता अब उन क्षेत्रों को भी प्रभावित करने लगी है, जो अब तक ‘राष्ट्रीय हित’ की साझा भूमि माने जाते थे।

विदेश नीति में द्विदलीय सहमति केवल शिष्टाचार नहीं, बल्कि सामरिक पूंजी है—एक ऐसी पूंजी जिसने भारत को महाशक्तियों के बीच संतुलन साधने, संकटों से निपटने और वैश्विक मंच पर स्थिर छवि प्रस्तुत करने में मदद की है।

यदि इस सहमति का क्षरण जारी रहा, तो न केवल भारत की कूटनीतिक प्रतिष्ठा, बल्कि दीर्घकालिक राष्ट्रीय हित भी जोखिम में पड़ सकते हैं।

अतः आवश्यक है कि विदेश नीति को दलगत राजनीति से ऊपर रखा जाए, और भारत अपनी पुरानी परंपरा—एकजुट राष्ट्रीय रुख—को पुनर्स्थापित करे। यही एक सशक्त, स्थिर और विश्वसनीय भारत की पहचान है।

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