अरावली पर्वतमाला विवाद 2025: नई वैज्ञानिक परिभाषा, सुप्रीम कोर्ट और पर्यावरणीय भविष्य
भूमिका: भारत की भू–पर्यावरणीय ढाल
अरावली पर्वतमाला केवल पहाड़ियों की एक श्रृंखला नहीं है, बल्कि उत्तर भारत के पर्यावरणीय संतुलन की आधारशिला है। गुजरात से दिल्ली तक लगभग 690 किलोमीटर में फैली यह पर्वतमाला विश्व की सबसे प्राचीन पर्वत प्रणालियों में गिनी जाती है। थार मरुस्थल के विस्तार को रोकना, भूजल का पुनर्भरण, दिल्ली–एनसीआर की वायु गुणवत्ता बनाए रखना और समृद्ध जैव विविधता को संरक्षण देना—ये सभी भूमिकाएँ अरावली को रणनीतिक रूप से अपरिहार्य बनाती हैं।
नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरावली की नई वैज्ञानिक परिभाषा को स्वीकृति दिए जाने के बाद यह पर्वतमाला केवल पर्यावरणीय नहीं, बल्कि संवैधानिक, राजनीतिक और विकासात्मक बहस के केंद्र में आ गई है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: संरक्षण बनाम दोहन
अरावली का पर्यावरणीय क्षरण कोई नया विषय नहीं है। 1990 के दशक से ही राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के आसपास अवैध खनन, पत्थर कटाई और अनियंत्रित निर्माण ने इस पर्वतमाला को गंभीर क्षति पहुँचाई।
- 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली क्षेत्र में खनन गतिविधियों पर कड़ा रुख अपनाते हुए कई जिलों में रोक लगाई।
- 2009 में हरियाणा के कुछ हिस्सों में पूर्ण प्रतिबंध लागू किया गया।
इसके बावजूद, अलग-अलग राज्यों द्वारा अरावली की अलग-अलग परिभाषाएँ अपनाने से कानूनी अस्पष्टता बनी रही, जिसका लाभ उठाकर खनन और रियल एस्टेट गतिविधियाँ जारी रहीं।
इसी पृष्ठभूमि में मई 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेषज्ञ समिति गठित की, जिसकी सिफारिशों को नवंबर 2025 में स्वीकार किया गया।
नई परिभाषा: वैज्ञानिक स्पष्टता या संरक्षण में कटौती?
सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की समिति की सिफारिशों के आधार पर अरावली की एक मानकीकृत वैज्ञानिक परिभाषा को स्वीकार किया। इसके प्रमुख बिंदु हैं:
- अरावली पहाड़ी: आसपास की भूमि से कम से कम 100 मीटर ऊँची कोई भी भू-आकृति।
- अरावली रेंज: ऐसी दो या अधिक पहाड़ियाँ जो 500 मीटर के दायरे में हों, तथा जिनमें उनकी ढलानें, आधार और सहायक क्षेत्र भी शामिल हों।
यह स्पष्ट किया गया कि यह परिभाषा मुख्यतः खनन नियमन के उद्देश्य से अपनाई गई है।
हालाँकि, फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार अरावली की लगभग 90% पहाड़ियाँ 100 मीटर से कम ऊँची हैं, जिससे आशंका जताई जा रही है कि विशाल क्षेत्र कानूनी संरक्षण से बाहर हो सकता है।
पर्यावरणीय महत्व: क्यों अरावली अनिवार्य है?
अरावली पर्वतमाला का महत्व केवल भूगोल तक सीमित नहीं, बल्कि यह उत्तर भारत की जीवनरेखा है:
- मरुस्थलीकरण पर रोक – अरावली थार मरुस्थल को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकने वाली प्राकृतिक दीवार है।
- भूजल रिचार्ज – इसकी चट्टानी संरचना वर्षा जल को सोखकर जलस्तर बनाए रखने में सहायक है।
- वायु गुणवत्ता नियंत्रण – यह दिल्ली–एनसीआर में धूल भरी आंधियों और प्रदूषण को काफी हद तक नियंत्रित करती है।
- जैव विविधता संरक्षण – तेंदुआ, सियार, नीलगाय, लंगूर तथा सैकड़ों वनस्पतियों का प्राकृतिक आवास।
आलोचकों का मानना है कि नई परिभाषा से कम ऊँचाई वाली पहाड़ियाँ संरक्षण से बाहर होंगी, जिससे खनन, शहरीकरण और औद्योगिक गतिविधियाँ तेज़ हो सकती हैं। इसके दीर्घकालिक परिणाम जल संकट, तापमान वृद्धि और पारिस्थितिक असंतुलन के रूप में सामने आ सकते हैं।
विवाद के दो पक्ष: संरक्षण बनाम विकास
विरोधी दृष्टिकोण
पर्यावरणविदों, नागरिक समूहों और विपक्षी दलों ने इस निर्णय को अरावली के लिए “धीमा मृत्यु–आदेश” करार दिया है। राजस्थान और हरियाणा में विरोध प्रदर्शन हुए, जबकि सोशल मीडिया पर #SaveAravalli अभियान ने व्यापक समर्थन पाया। उनका तर्क है कि पारिस्थितिकी को केवल ऊँचाई के पैमाने पर नहीं आँका जा सकता।
सरकारी पक्ष
केंद्र सरकार का कहना है कि इस परिभाषा का उद्देश्य अवैध खनन पर रोक लगाना है, न कि अरावली को कमजोर करना। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव के अनुसार:
- 90% से अधिक क्षेत्र पहले से सुरक्षित है,
- केवल लगभग 0.19% क्षेत्र में सीमित गतिविधियाँ संभव होंगी,
- नए खनन पट्टों पर रोक जारी रहेगी जब तक सस्टेनेबल माइनिंग प्लान लागू नहीं होता।
सरकार इसे नियमन की स्पष्टता और बेहतर निगरानी की दिशा में कदम मानती है।
निष्कर्ष: भविष्य की कसौटी
अरावली पर्वतमाला से जुड़ा यह विवाद दरअसल भारत के विकास मॉडल की परीक्षा है—क्या आर्थिक विकास पारिस्थितिकी की कीमत पर होगा, या दोनों के बीच संतुलन साधा जाएगा?
नई वैज्ञानिक परिभाषा कानूनी स्पष्टता अवश्य लाती है, किंतु इसका वास्तविक मूल्यांकन इसके कार्यान्वयन से होगा। यदि संरक्षण, पारदर्शिता और सतत विकास को प्राथमिकता दी गई, तो अरावली न केवल बचाई जा सकती है, बल्कि पुनर्जीवित भी हो सकती है।
अरावली का भविष्य किसी एक सरकार या अदालत के हाथ में नहीं, बल्कि सामूहिक राजनीतिक इच्छाशक्ति, प्रशासनिक ईमानदारी और नागरिक चेतना पर निर्भर करता है—क्योंकि यह पर्वतमाला केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि भविष्य की सुरक्षा है।
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