अब्राहम समझौता: मध्य-पूर्व में शांति का सपना और यथार्थ
प्रस्तावना
मध्य-पूर्व दशकों से संघर्ष, धार्मिक ध्रुवीकरण और क्षेत्रीय वर्चस्व की राजनीति का केंद्र रहा है। ऐसे परिदृश्य में 2020 का अब्राहम समझौता एक ऐतिहासिक मोड़ बनकर आया। इसने पहली बार बड़े पैमाने पर इज़रायल और अरब देशों के बीच औपचारिक संबंधों की शुरुआत की। 2025 में, पाँच साल पूरे करने के बाद यह समझौता अब अपने सबसे कठिन इम्तहान से गुजर रहा है। एक ओर यह सहयोग और आर्थिक साझेदारी का रास्ता खोलता है, दूसरी ओर फिलिस्तीनी मुद्दे और गाज़ा युद्ध ने इसकी सीमाओं को उजागर किया है।
ऐतिहासिक आधार
अब्राहम समझौता अचानक नहीं आया। 1979 में मिस्र-इज़रायल शांति संधि और 1994 में जॉर्डन-इज़रायल समझौते के बाद दशकों तक अरब देशों ने इज़रायल को मान्यता देने से परहेज किया। ट्रंप प्रशासन की “Prosperity for Peace” रणनीति ने इस जड़ता को तोड़ा। संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मोरक्को और सूडान ने औपचारिक संबंध स्थापित किए। यह प्रक्रिया सुरक्षा, तकनीकी सहयोग, पर्यटन, और धार्मिक संवाद पर आधारित थी, जबकि फिलिस्तीनी मुद्दा साइड-लाइन पर रखा गया।
पाँच वर्षों की उपलब्धियां
आर्थिक मोर्चा: UAE-इज़रायल व्यापार अभूतपूर्व स्तर पर पहुँचा, रक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और साइबर सुरक्षा में निवेश बढ़ा।
सुरक्षा सहयोग: CENTCOM के तहत इज़रायल और खाड़ी देशों के संयुक्त सैन्य अभ्यास हुए, मोरक्को के साथ ‘अफ्रीकन लायन 2025’ जैसे अभ्यास ने नई साझेदारी को दर्शाया।
धार्मिक सहअस्तित्व: अबू धाबी का अब्राहमिक फैमिली हाउस यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों के साझा धार्मिक विरासत को मूर्त रूप देता है।
चुनौतियों का दूसरा चेहरा
फिलिस्तीनी मुद्दा: सऊदी अरब ने 2025 में दोहराया कि बिना स्वतंत्र फिलिस्तीनी राज्य के सामान्यीकरण संभव नहीं। यह रुख अब्राहम समझौते के “विस्तार” के लिए सबसे बड़ी बाधा है।
गाज़ा युद्ध: 2023-25 के संघर्ष ने समझौते के हस्ताक्षरकर्ताओं पर दबाव बढ़ाया। बहरीन ने अप्रैल 2025 में अपना राजदूत वापस बुलाया, जबकि UAE ने वेस्ट बैंक के संभावित विलीनीकरण पर चेतावनी दी।
जनमत का दबाव: अरब समाजों में युद्ध के बाद इज़रायल की कार्रवाइयों को लेकर असंतोष बढ़ा है। यह स्थिति सरकारों के लिए “शांति के लाभ” और “जनता की भावनाओं” के बीच संतुलन कठिन बनाती है।
वर्तमान परिदृश्य (2025)
- टिकाऊपन (Resilience): व्यापारिक और सुरक्षा सहयोग अभी भी जारी है, लेकिन राजनीतिक सहमति की कमी है।
- सऊदी-इज़रायल संबंध: 61% इज़रायली नागरिक सऊदी अरब के साथ संबंधों के पक्ष में हैं, लेकिन रियाद अभी भी फिलिस्तीनी राज्य को पूर्व शर्त मानता है।
- अंतरराष्ट्रीय दबाव: संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सितंबर 2025 में दो-राज्य समाधान के लिए ठोस कदमों की वकालत की; यूरोपीय देशों में फिलिस्तीन को मान्यता देने की मुहिम तेज हुई।
संपादकीय दृष्टि:
अब्राहम समझौते ने मध्य-पूर्व की पारंपरिक शत्रुताओं को तोड़ा और एक नए क्षेत्रीय भू-राजनीतिक संतुलन की नींव रखी। लेकिन पाँच वर्षों में यह स्पष्ट हो गया कि सिर्फ आर्थिक और सुरक्षा सहयोग से स्थायी शांति संभव नहीं। फिलिस्तीनी राज्य की मान्यता, मानवीय संकट का समाधान और धार्मिक-राजनीतिक भावनाओं को संतुलित करना अपरिहार्य है।
संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन जैसे देशों ने आर्थिक लाभ उठाए, लेकिन उनकी घरेलू राजनीति और सामाजिक दबाव उन्हें सतर्क बनाए हुए है। मोरक्को और सूडान जैसे देशों की अस्थिरता भी एक चेतावनी है कि केवल “टॉप-डाउन” समझौते पर्याप्त नहीं।
भारत के लिए संकेत
भारत, जो मध्य-पूर्व के साथ ऊर्जा, सुरक्षा और प्रवासी भारतीय हितों से जुड़ा है, अब्राहम समझौते के तहत नए अवसर देख सकता है—विशेषकर स्टार्ट-अप, तकनीक, डिफेंस सप्लाई और समुद्री सुरक्षा में। लेकिन गाज़ा युद्ध और क्षेत्रीय तनाव का असर तेल की कीमतों, समुद्री मार्गों की सुरक्षा और राजनयिक संतुलन पर पड़ेगा।
निष्कर्ष
अब्राहम समझौता आज भी मध्य-पूर्व में “शांति का एक ढांचा” है, लेकिन यह ढांचा तभी टिकेगा जब इसमें राजनीतिक न्याय और मानवीय समाधान जुड़ें। सऊदी अरब जैसी निर्णायक शक्ति की भागीदारी, फिलिस्तीनी मुद्दे की प्रगति और युद्ध का स्थायी अंत—ये तीनों इस समझौते के भविष्य को तय करेंगे।
यदि यह बदलाव लाने में सफल होता है, तो यह समझौता केवल “सामान्यीकरण” नहीं बल्कि क्षेत्रीय एकीकरण और बहुपक्षीय शांति का नया अध्याय बन सकता है। अन्यथा, यह एक “अधूरा वादा” बनकर रह जाएगा।
📝 UPSC संभावित प्रश्न – अब्राहम समझौता व सऊदी-पाक सैन्य समझौता संयुक्त परिप्रेक्ष्य
1. प्रारंभिक / Objective प्रकार
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अब्राहम समझौते का मुख्य उद्देश्य क्या है?
- (a) इस्राइल और अरब देशों के बीच कूटनीतिक संबंध सामान्य करना
- (b) ईरान पर सामूहिक प्रतिबंध लगाना
- (c) फिलिस्तीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलाना
- (d) OPEC का पुनर्गठन करना
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सऊदी अरब–पाकिस्तान रक्षा समझौता किन प्रमुख क्षेत्रों में सहयोग को बल देता है?
- (a) आतंकवाद विरोधी और सैन्य प्रशिक्षण
- (b) कृषि व जल प्रबंधन
- (c) साइबर सुरक्षा व आपदा प्रबंधन
- (d) उपरोक्त सभी
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निम्नलिखित में से कौन-सा सही है?
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- अब्राहम समझौता भारत के लिए खाड़ी क्षेत्र में रणनीतिक अवसर पैदा करता है।
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- सऊदी-पाक सैन्य समझौता भारत की पश्चिम एशिया नीति के लिए एक चुनौती हो सकता है।
- (a) केवल 1
- (b) केवल 2
- (c) 1 और 2 दोनों
- (d) न तो 1 न ही 2
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2. संक्षिप्त उत्तर (150 शब्द)
- भारत के दृष्टिकोण से अब्राहम समझौते और सऊदी अरब–पाकिस्तान रक्षा समझौते के भू-रणनीतिक प्रभावों की तुलना कीजिए।
- खाड़ी क्षेत्र में बदलते गठजोड़ों का भारत की ऊर्जा सुरक्षा और प्रवासी भारतीयों पर क्या असर पड़ सकता है?
- अब्राहम समझौते और सऊदी-पाक सैन्य समझौते के संदर्भ में भारत की “वेस्ट एशिया पॉलिसी” के लिए चुनौतियां व अवसर स्पष्ट कीजिए।
3. विश्लेषणात्मक / 250 शब्द
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प्रश्न:
“अब्राहम समझौते और सऊदी-पाकिस्तान सैन्य समझौते ने पश्चिम एशिया के सामरिक संतुलन को किस प्रकार प्रभावित किया है? भारत के लिए इस संतुलन के निहितार्थों का विश्लेषण कीजिए।” -
दिशा-निर्देश (उत्तर संरचना):
- प्रस्तावना – पश्चिम एशिया में बदलते समीकरण
- अब्राहम समझौता: इस्राइल-अरब सामंजस्य और भारत के अवसर
- सऊदी-पाक सैन्य समझौता: सुरक्षा व सामरिक चुनौतियां
- भारत के हित – ऊर्जा, सुरक्षा, प्रवासी, कूटनीतिक संतुलन
- निष्कर्ष – “मल्टी-वेक्टर डिप्लोमेसी” की आवश्यकता
4. निबंध/दीर्घ उत्तर (500 शब्द)
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प्रश्न:
“खाड़ी क्षेत्र में बदलते शक्ति समीकरणों—अब्राहम समझौता और सऊदी अरब–पाकिस्तान सैन्य समझौता—का भारत की पश्चिम एशिया नीति पर संभावित प्रभाव” पर विवेचन कीजिए। -
संकेत बिंदु:
- भारत-इस्राइल-खाड़ी देशों के सहयोग के अवसर
- आतंकवाद-विरोधी व रक्षा सहयोग की दिशा
- भारत की ऊर्जा सुरक्षा
- प्रवासी भारतीयों की स्थिति
- संतुलन की नीति बनाम ब्लॉक पॉलिटिक्स
🔑 मुख्य Takeaways UPSC तैयारी के लिए
- बदलते गठबंधन केवल द्विपक्षीय मुद्दा नहीं हैं; वे क्षेत्रीय सुरक्षा वास्तुकला को प्रभावित करते हैं।
- भारत को संतुलनकारी नीति (balancing policy) अपनानी होगी ताकि वह इस्राइल, खाड़ी देशों और पाकिस्तान जैसे पक्षों के साथ अपने रिश्ते संतुलित रख सके।
- ऊर्जा, डायस्पोरा और सुरक्षा—तीनों आयाम UPSC उत्तर में अवश्य शामिल करें।
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