पाकिस्तान के परमाणु छत्र के नीचे सऊदी अरब: खाड़ी देशों की दिशा में एक नया मोड़?
परिचय
मध्य पूर्व की जटिल भू-राजनीतिक शतरंज में हाल ही में एक महत्वपूर्ण चाल चली गई है। सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच बुधवार को हस्ताक्षरित 'रणनीतिक पारस्परिक रक्षा समझौते' ने वैश्विक सुरक्षा की बहस को नई ऊंचाई दे दी है। इस समझौते के तहत, पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा मुहम्मद आसिफ ने स्पष्ट किया है कि पाकिस्तान की परमाणु क्षमताएं सऊदी अरब के लिए उपलब्ध होंगी। यह 'परमाणु छत्र' की संभावना न केवल दोनों देशों के बीच सदियों पुराने संबंधों को मजबूत करती है, बल्कि खाड़ी के अन्य राष्ट्रों—जैसे संयुक्त अरब अमीरात या कतर—के लिए भी एक नया विकल्प खोल सकती है। लेकिन क्या यह समझौता क्षेत्रीय स्थिरता को मजबूत करेगा या फिर एक नई हथियारों की दौड़ को जन्म देगा? भारत जैसे पड़ोसी देशों के लिए यह विकास चिंता का विषय है।
समझौते की पृष्ठभूमि और ऐतिहासिक संदर्भ
सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच संबंध हमेशा से आर्थिक और सैन्य सहयोग पर आधारित रहे हैं। अमेरिकी प्रतिबंधों के दौर में सऊदी अरब ने पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को वित्तीय सहायता प्रदान की, जिसकी बदौल से इस्लामाबाद अपनी परमाणु महत्वाकांक्षाओं को साकार कर सका। रिटायर्ड ब्रिगेडियर फेरोज हसन खान जैसे विशेषज्ञों के अनुसार, रियाद की उदार वित्तीय मदद ने पाकिस्तान को परमाणु परीक्षण करने में सक्षम बनाया। पिछले साल सऊदी ने पाकिस्तान को 3 अरब डॉलर का ऋण दिया, और अब यह समझौता एक कदम आगे बढ़ता है।
इसकी घोषणा इजरायली हमलों के बाद क्षेत्रीय तनावों के बीच हुई, जहां कतर जैसे खाड़ी देशों पर हमले ने सुरक्षा की कमजोरियों को उजागर कर दिया। समझौते के अनुसार, एक देश पर हमला दूसरे पर हमला माना जाएगा, जो संयुक्त प्रतिरोध को मजबूत करने का वादा करता है। पाकिस्तान के पास 6 लाख से अधिक सैनिक हैं, और उनकी परमाणु मिसाइलें—जो सैद्धांतिक रूप से इजरायल तक पहुंच सकती हैं—अब सऊदी की सुरक्षा का हिस्सा बन सकती हैं। पाकिस्तान का दावा है कि उसकी परमाणु शक्ति केवल भारत के खिलाफ है, लेकिन पूर्व पाकिस्तानी कूटनीतिज्ञ मलीहा लोधी का कहना है कि यह मध्य पूर्व में पाकिस्तान की शक्ति प्रक्षेपण का बड़ा कदम है।
अन्य खाड़ी राष्ट्रों के लिए संभावनाएं
क्या सऊदी के बाद अन्य खाड़ी देश इस 'परमाणु छत्र' का हिस्सा बनेंगे? पाकिस्तानी रक्षा मंत्री आसिफ ने ही संकेत दिया है कि यह समझौता क्षेत्र के अन्य देशों को शामिल कर सकता है। खाड़ी राष्ट्रों में अमेरिका पर भरोसा कम हो रहा है, खासकर अब्राहम समझौते के विस्तार में ठहराव के कारण। सऊदी इजरायल के साथ सामान्यीकरण की शर्त पर फिलिस्तीनी राज्य की मांग कर रहा है, जिससे वाशिंगटन की विश्वसनीयता पर सवाल उठे हैं। गल्फ रिसर्च सेंटर के चेयरमैन अब्दुलअजीज सागर के अनुसार, "घटनाएं बाहरी सुरक्षा पर निर्भरता की सीमाओं को रेखांकित करती हैं, विशेष रूप से अमेरिका से।"
यदि संयुक्त अरब अमीरात या बहरीन जैसे देश पाकिस्तान से जुड़ते हैं, तो यह एक नया क्षेत्रीय गठबंधन बन सकता है—जो ईरान और इजरायल के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास करेगा। लेकिन पूर्व पाकिस्तानी सीनेटर मुशाहिद हुसैन की चेतावनी है कि पाकिस्तान को इससे आर्थिक मजबूती मिलेगी, लेकिन अस्थिर मध्य पूर्व में कूदना जोखिम भरा है।
भू-राजनीतिक प्रभाव: भारत और वैश्विक सुरक्षा पर नजर
भारत के लिए यह समझौता चिंताजनक है। नई दिल्ली ने कहा है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा, क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिरता पर इसके प्रभावों का अध्ययन करेगा। पाकिस्तान के साथ तीन युद्धों का इतिहास रखने वाले भारत को अब मध्य पूर्व में इस्लामाबाद की बढ़ती भूमिका से सावधान रहना होगा। विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान की परमाणु क्षमता का प्रसार—जिसके लिए अमेरिका ने पहले प्रतिबंध लगाए थे—क्षेत्रीय तनाव बढ़ा सकता है। इजरायल पहले से ही पाकिस्तान की परमाणु क्षमता से असहज है, और पूर्व स्ट्रैटेजिक प्लान्स डिवीजन अधिकारी आदिल सुल्तान कहते हैं, "यह क्षमता सीमित है और केवल भारत के लिए है।"
वैश्विक स्तर पर, यह समझौता परमाणु अप्रसार संधि (NPT) की भावना को चुनौती दे सकता है। सऊदी एक वरिष्ठ अधिकारी के हवाले से कहता है, "यह सभी सैन्य साधनों को समेटने वाला व्यापक रक्षात्मक समझौता है।" लेकिन आसिफ की टिप्पणी—"हम आक्रामकता के लिए इसका उपयोग नहीं करेंगे, लेकिन खतरे में यह सक्रिय हो जाएगा"—क्षेत्रीय शांति के लिए खतरे की घंटी है।
निष्कर्ष
सऊदी अरब और पाकिस्तान का यह रक्षा समझौता खाड़ी की सुरक्षा वास्तुकला में एक परिवर्तन का संकेत है, जहां पारंपरिक सहयोगी अमेरिका की जगह नई साझेदारियां ले रही हैं। लेकिन यह 'परमाणु छत्र' की आड़ में प्रसार के जोखिमों को नजरअंदाज नहीं कर सकता। भारत को कूटनीतिक स्तर पर सक्रिय रहना होगा, जबकि वैश्विक समुदाय को परमाणु स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए। यदि अन्य खाड़ी राष्ट्र अनुसरण करते हैं, तो मध्य पूर्व एक नई भू-राजनीतिक अग्नि-परीक्षा का गवाह बनेगा। समय है कि शांति के पक्षधर चुप्पी तोड़ें, वरना यह समझौता क्षेत्रीय संतुलन को हमेशा के लिए बदल सकता है।
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