राजस्थान सरकार द्वारा हाल ही में प्रस्तुत 'राजस्थान विधिविरुद्ध धर्म-संपरिवर्तन प्रतिषेध विधेयक 2025' को लेकर राजनीतिक और सामाजिक हलकों में व्यापक चर्चा हो रही है। यह विधेयक जबरन, धोखाधड़ी, लालच या किसी अन्य अवैध तरीके से किए गए धर्म परिवर्तन को अपराध घोषित करता है और दोषियों के लिए 10 वर्ष तक की सजा और ₹50,000 तक के जुर्माने का प्रावधान करता है। हालांकि, यह विधेयक संवैधानिक मूल्यों और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के संदर्भ में कई गंभीर प्रश्न खड़े करता है।
संवैधानिक संदर्भ और चुनौतियाँ
भारत का संविधान नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है, लेकिन इसके कुछ सीमाएँ भी हैं। इस विधेयक को संवैधानिक दृष्टिकोण से परखना आवश्यक है।
1. अनुच्छेद 25: धर्म की स्वतंत्रता बनाम राज्य का नियंत्रण
अनुच्छेद 25(1) प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म को मानने, उसका पालन करने और प्रचार करने का अधिकार देता है। हालाँकि, यह अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है। विधेयक के समर्थकों का मानना है कि यह सार्वजनिक व्यवस्था और समाज में शांति बनाए रखने के लिए आवश्यक है, जबकि विरोधियों का तर्क है कि यह नागरिकों की व्यक्तिगत धार्मिक स्वतंत्रता को बाधित करता है।
2. अनुच्छेद 21: व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रश्न
अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। यदि कोई व्यक्ति अपनी इच्छा से धर्म परिवर्तन करता है, तो राज्य के लिए इसमें हस्तक्षेप करने की गुंजाइश सीमित हो जाती है। इस संदर्भ में, यह विधेयक व्यक्ति की स्वायत्तता और राज्य की भूमिका के बीच संतुलन को चुनौती देता है।
3. सुप्रीम कोर्ट के निर्णय और विधेयक की वैधता
सुप्रीम कोर्ट ने ‘रिवर्स कन्वर्जन’ (धर्म वापसी) और स्वैच्छिक धर्मांतरण को कानूनी माना है, लेकिन जबरन धर्मांतरण को असंवैधानिक बताया है। कुछ राज्यों में इसी तरह के ‘धर्मांतरण विरोधी कानूनों’ को अदालतों में चुनौती दी गई है, जिससे यह संभावना बढ़ जाती है कि राजस्थान का यह विधेयक भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकता है।
सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव
1. क्या यह विधेयक सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करेगा या कमजोर?
धर्मांतरण का मुद्दा सदियों से सामाजिक विवाद का विषय रहा है। जहाँ एक ओर यह विधेयक जबरन धर्मांतरण पर रोक लगाकर धार्मिक सौहार्द को बनाए रखने का प्रयास करता है, वहीं दूसरी ओर यह आशंका भी व्यक्त की जा रही है कि इसका दुरुपयोग विशेष समुदायों के खिलाफ किया जा सकता है।
2. राजनीतिक निहितार्थ और संभावित ध्रुवीकरण
धर्मांतरण को लेकर अक्सर राजनीतिक दलों के बीच मतभेद देखने को मिलते हैं। ऐसे कानूनों को कई बार राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किए जाने की आशंका रहती है। इसलिए, यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि इस विधेयक का क्रियान्वयन निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से किया जाता है या नहीं।
क्या होना चाहिए आगे का रास्ता?
1. संवैधानिक संतुलन: विधेयक को लागू करने से पहले इसकी संवैधानिक वैधता की गहन समीक्षा आवश्यक है, ताकि यह धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन न करे।
2. स्पष्ट परिभाषा और पारदर्शी प्रक्रिया: "जबरन", "लालच", और "धोखाधड़ी" जैसी परिभाषाओं को स्पष्ट किया जाना चाहिए ताकि विधेयक का दुरुपयोग न हो।
3. न्यायिक समीक्षा और मार्गदर्शन: उच्चतम न्यायालय और कानूनी विशेषज्ञों की राय लेकर इसे संविधान-सम्मत बनाया जा सकता है।
4. धर्मांतरण की स्वतंत्रता बनाम अवैध प्रयासों की रोकथाम: यह विधेयक एक सीमारेखा तय करता है, लेकिन इसे संतुलित रूप से लागू करने के लिए प्रशासनिक तंत्र की जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी।
निष्कर्ष
'राजस्थान विधिविरुद्ध धर्म-संपरिवर्तन प्रतिषेध विधेयक 2025' एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील विधेयक है, जो धार्मिक स्वतंत्रता और अवैध धर्मांतरण की रोकथाम के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करता है। हालाँकि, इसके कुछ प्रावधानों को लेकर संवैधानिक और सामाजिक चिंताएँ बनी हुई हैं। न्यायिक समीक्षा और पारदर्शी क्रियान्वयन सुनिश्चित करने से यह विधेयक अपने मूल उद्देश्य को पूरा कर सकता है—एक ऐसा समाज जहाँ धर्मांतरण स्वतंत्रता और स्वेच्छा से हो, न कि दबाव और प्रलोभन से।
Comments
Post a Comment