अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने शपथ ग्रहण के तुरंत बाद पेरिस जलवायु समझौते से बाहर होने की घोषणा कर दी। उनका कहना था कि यह समझौता "अनुचित और एकतरफा" है, जो अमेरिका के उद्योगों को नुकसान पहुंचा सकता है। ट्रंप ने यह भी तर्क दिया कि चीन जैसे देशों को इस समझौते में लाभ मिल रहा है, जबकि अमेरिका पर सख्त प्रतिबंध लगाए गए हैं।
पेरिस जलवायु समझौता क्या है?
पेरिस जलवायु समझौता 2015 में विश्व के लगभग सभी देशों के बीच हुआ एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है, जिसका उद्देश्य वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है। इसमें प्रत्येक देश ने अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए स्वैच्छिक लक्ष्यों की घोषणा की।
अमेरिका के अलग होने के कारण
1. आर्थिक नुकसान का डर: ट्रंप प्रशासन का दावा था कि इस समझौते से अमेरिकी उद्योगों को अरबों डॉलर का नुकसान होगा और यह नौकरियों पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगा।
2. चीन और भारत का लाभ: ट्रंप का मानना था कि चीन और भारत जैसे देश उत्सर्जन को नियंत्रित किए बिना अपने उद्योगों का विस्तार कर रहे हैं, जबकि अमेरिका को इसके लिए भारी लागत चुकानी पड़ रही है।
3. राष्ट्रीय हितों की प्राथमिकता: ट्रंप ने अपने अभियान के दौरान "अमेरिका फर्स्ट" का नारा दिया था, और इस निर्णय को इसी दृष्टिकोण का हिस्सा माना गया।
प्रभाव
1. वैश्विक प्रतिक्रिया: अमेरिका के इस फैसले से विश्वभर में आलोचना हुई। यूरोप और अन्य देशों ने इसे जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई के लिए एक बड़ा झटका बताया।
2. अंतर्राष्ट्रीय नेतृत्व का नुकसान: अमेरिका के पीछे हटने से जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर उसकी अंतर्राष्ट्रीय साख को नुकसान पहुंचा।
3. आर्थिक और पर्यावरणीय जोखिम: दीर्घकालिक रूप से, अमेरिका को जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरों का सामना करना पड़ सकता है, जिसमें प्राकृतिक आपदाओं और आर्थिक नुकसान की संभावना शामिल है।
निष्कर्ष
पेरिस समझौते से अमेरिका का बाहर होना न केवल पर्यावरणीय दृष्टि से बल्कि राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से भी एक विवादास्पद कदम था। हालांकि ट्रंप प्रशासन ने इसे अमेरिका के हित में बताया, लेकिन इसके दीर्घकालिक प्रभाव वैश्विक स्थिरता और पर्यावरणीय संतुलन पर नकारात्मक हो सकते हैं।
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