US Soybean Crisis: How Trump’s Tariff War with China Became a Political Nightmare for American Farmers
अमेरिकी सोयाबीन किसान — ‘अमेरिका फर्स्ट’ की कीमत
अंतरराष्ट्रीय व्यापार में हर कदम का एक प्रतिघात होता है — और आज इसका सबसे सटीक उदाहरण अमेरिकी सोयाबीन किसान हैं। डोनाल्ड ट्रंप की “अमेरिका फर्स्ट” नीति के तहत चीन के खिलाफ लगाए गए टैरिफ का प्रतिफल अब अमेरिका के कृषि क्षेत्र को झेलना पड़ रहा है। वैश्विक व्यापार युद्ध की यह आग अमेरिकी किसानों की जमीन तक पहुंच चुकी है, और इसका राजनीतिक, आर्थिक और कूटनीतिक असर आने वाले महीनों में गहराई से महसूस किया जाएगा।
1. व्यापार युद्ध की जड़: राजनीतिक लाभ या आर्थिक भूल?
ट्रंप प्रशासन ने अप्रैल 2025 में चीन से आने वाले औद्योगिक और इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों पर भारी आयात शुल्क लगाकर “अमेरिका को आत्मनिर्भर” बनाने का नारा दिया। उद्देश्य था — घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देना और चीन की व्यापारिक बढ़त को रोकना।
परंतु, इस रणनीति का सबसे बड़ा शिकार वे बन गए जो इस खेल में कभी प्रत्यक्ष पक्ष ही नहीं थे — अमेरिकी किसान। चीन ने अमेरिकी सोयाबीन, मक्का और सूअर के मांस पर टैरिफ बढ़ा दिए, जिससे अमेरिकी कृषि निर्यात का एक बड़ा हिस्सा ठप हो गया।
यह विडंबना ही है कि जो नीति अमेरिकी श्रमिकों और किसानों के हित में लाई गई थी, वही उनके लिए आर्थिक संकट का कारण बन रही है।
2. किसानों का संकट: खेत से बाजार तक की जमी सच्चाई
अमेरिका का सोयाबीन उद्योग विश्व के सबसे बड़े कृषि निर्यात उद्योगों में से एक है। वर्ष 2024 में अमेरिका ने लगभग 24.5 अरब डॉलर मूल्य का सोयाबीन निर्यात किया, जिसमें से आधा हिस्सा केवल चीन को गया था।
चीन के पलटवार के बाद यह आंकड़ा लगभग शून्य पर आ गया है। परिणामस्वरूप:
- सोयाबीन की कीमतें गिरकर 10 डॉलर प्रति बुशल से नीचे पहुंच गई हैं।
- किसान अपनी उपज बेच नहीं पा रहे; गोदाम भर चुके हैं।
- कृषि ऋणों का बोझ बढ़ता जा रहा है, और कई राज्यों — विशेषकर आयोवा, इलिनॉयस, और मिनेसोटा — में किसान आत्मघाती मानसिकता तक पहुंच चुके हैं।
अमेरिकी सोयाबीन एसोसिएशन के प्रमुख कैलेब रैगलैंड ने इसे “अमेरिकी कृषि के लिए दशक का सबसे बड़ा संकट” कहा है।
3. राजनीतिक परिणाम: ‘रेड स्टेट्स’ में असंतोष की लहर
यह संकट केवल आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक भी है। ट्रंप का मजबूत मतदाता आधार — मध्य अमेरिका के कृषि राज्य — आज उसी नीति के कारण परेशान हैं, जिसे उन्होंने “राष्ट्रहित” कहा था।
रिपब्लिकन सांसदों के भीतर भी असंतोष बढ़ रहा है। 2026 के मिडटर्म चुनाव नजदीक हैं, और अगर किसानों का असंतोष खुले विरोध में बदल गया, तो यह ट्रंप की राजनीतिक नींव को हिला सकता है।
ट्रंप ने राहत पैकेज की घोषणा करते हुए किसानों को “सच्चे देशभक्त” बताया, परंतु यह पैकेज उस नुकसान की भरपाई नहीं कर सकता जो बाजार खोने से हुआ है। किसान “देशभक्ति” से पेट नहीं भर सकते — उन्हें बाजार, खरीदार और स्थिर नीति चाहिए।
4. वैश्विक बाजार में नए खिलाड़ी: भारत, ब्राजील और रूस
अमेरिका-चीन टकराव का सबसे बड़ा लाभार्थी ब्राजील बन गया है। चीन अब अमेरिकी सोयाबीन की जगह ब्राजील से आयात कर रहा है, जबकि भारत और रूस जैसे देश भी अपने कृषि निर्यात को बढ़ाने में लगे हैं।
भारतीय दृष्टिकोण से यह एक रणनीतिक अवसर है।
भारत ने पहले ही चीन के साथ कृषि सहयोग बढ़ाने की दिशा में बातचीत तेज की है। यदि भारत अपने कृषि अवसंरचना, लॉजिस्टिक्स और गुणवत्ता मानकों में सुधार कर सके, तो अमेरिकी बाजार की हिस्सेदारी भारत अपने पक्ष में कर सकता है।
इस परिप्रेक्ष्य में, भारत न केवल एक वैकल्पिक आपूर्तिकर्ता बन सकता है, बल्कि वैश्विक कृषि-व्यापार में एक निर्णायक शक्ति के रूप में उभर सकता है।
5. आर्थिक प्रभाव: ‘अमेरिका फर्स्ट’ बनाम ‘ग्लोबल इंटरडिपेंडेंस’
यह स्थिति एक बुनियादी सच्चाई उजागर करती है — वैश्विक अर्थव्यवस्था एक-दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई है।
किसी भी देश का संरक्षणवादी रुख (protectionism) वैश्विक सप्लाई चेन को झटका दे सकता है, और अंततः वही देश इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकाता है।
ट्रंप की नीति ने जिस “आत्मनिर्भर अमेरिका” की कल्पना की थी, वह व्यवहार में “अलग-थलग अमेरिका” में बदलती जा रही है। अमेरिका की औद्योगिक वृद्धि स्थिर है, कृषि निर्यात घट रहा है, और व्यापार घाटा कम होने के बजाय बढ़ गया है।
6. कूटनीतिक पहल: क्या ट्रंप और शी समाधान निकाल पाएंगे?
ट्रंप और शी जिनपिंग की आगामी एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग (APEC) शिखर बैठक इस संकट का निर्णायक मोड़ हो सकती है।
यदि दोनों नेता व्यापार पर आंशिक समझौता कर लेते हैं, तो अमेरिकी किसानों के लिए राहत संभव है।
परंतु अगर बातचीत विफल होती है, तो 2026 के चुनावों से पहले ट्रंप को अपने सबसे वफादार मतदाताओं — किसानों — के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है।
7. निष्कर्ष: व्यापार युद्ध की मानवीय कीमत
ट्रंप की टैरिफ नीति ने यह सिखाया है कि आर्थिक राष्ट्रवाद की सीमाएँ होती हैं। जब व्यापार को हथियार बना दिया जाता है, तो उसकी पहली गोली अपने ही नागरिकों को घायल करती है।
अमेरिकी किसान आज उसी गोली का शिकार हैं — वे न किसी विदेशी शक्ति के खिलाफ हैं, न राजनीतिक साजिश का हिस्सा; फिर भी वे इस युद्ध के ‘साइलेंट विक्टिम’ बन गए हैं।
यह समय है कि अमेरिका “अमेरिका फर्स्ट” के बजाय “ग्लोबल बैलेंस” की ओर लौटे — जहां आर्थिक स्वार्थों से अधिक मानवीय और दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाया जाए।
समापन विचार:
ट्रंप की यह नीति अब एक राजनीतिक कसौटी बन गई है — क्या वे अपने किसानों को बचा पाएंगे, या यह मुद्दा उनकी ही सत्ता के लिए “गले की हड्डी” बन जाएगा?इतिहास गवाह है कि किसी भी देश की आर्थिक शक्ति उसकी सैन्य ताकत से नहीं, बल्कि उसके किसानों के विश्वास से टिकती है। और आज, वही विश्वास अमेरिका में डगमगा रहा है।
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