France’s Political Meltdown: What Sébastien Lecornu’s 27-Day Tenure Reveals about the Fragility of Modern Democracy
🇫🇷 फ्रांस का राजनीतिक संकट और लोकतंत्र में स्थिरता की चुनौती
भूमिका: अस्थिरता का प्रतीक बनता फ्रांस
6 अक्टूबर 2025 को फ्रांस के प्रधानमंत्री सेबास्टियन लेकोर्नु ने केवल 27 दिनों के कार्यकाल के बाद इस्तीफा दे दिया। यह आधुनिक फ्रांस के इतिहास में अब तक का सबसे छोटा प्रधानमंत्री कार्यकाल है। रविवार को उन्होंने अपना मंत्रिमंडल घोषित किया, और सोमवार को ही राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों को अपना त्यागपत्र सौंप दिया।
यह केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि उस संवैधानिक अस्थिरता का प्रतीक है जो पिछले एक दशक से फ्रांस की राजनीतिक प्रणाली को जकड़े हुए है। लेकोर्नु ने कहा था — “हर राजनीतिक दल ऐसे व्यवहार कर रहा है जैसे उसके पास बहुमत है, पर कोई सहयोग को तैयार नहीं।” यही कथन आज के फ्रांस की लोकतांत्रिक त्रासदी का सबसे सटीक चित्रण है।
1. फ्रांसीसी राजनीति की जटिल पृष्ठभूमि
फ्रांस की राजनीतिक स्थिति 2024 के संसदीय चुनावों के बाद से लगातार अस्थिर है। उस चुनाव ने फ्रांसीसी संसद को तीन हिस्सों में बाँट दिया —
- दक्षिणपंथी नेशनल रैली (RN),
- वामपंथी न्यू पीपुल्स फ्रंट (NPF),
- और बीच में मैक्रों का सेंट्रिस्ट गठबंधन (Renaissance)।
किसी को भी पूर्ण बहुमत नहीं मिला। फ्रांस की शासन प्रणाली अर्द्ध-राष्ट्रपति (Semi-Presidential) है — जहाँ राष्ट्रपति रक्षा और विदेश नीति नियंत्रित करते हैं, जबकि संसद घरेलू नीतियों और बजट पर निर्णायक होती है। जब संसद विभाजित हो जाए, तो राष्ट्रपति की शक्ति केवल औपचारिक रह जाती है और शासन ठप हो जाता है।
मैक्रों के दूसरे कार्यकाल में अब तक पाँच प्रधानमंत्रियों का परिवर्तन इस अस्थिरता का प्रमाण है।
2. सत्ता की चक्रीय विफलताएँ
लेकोर्नु से पहले फ्रांस्वा बायरू को सितंबर 2025 में अविश्वास प्रस्ताव से हटाया गया। उससे पहले मिशेल बार्नियर दिसंबर 2024 में बजट विवाद के कारण गिरे।
इससे पहले एलिज़ाबेथ बोर्न और गैब्रियल अटाल भी राजनीतिक सहयोग के अभाव में पद छोड़ चुके थे।
इस सिलसिले ने फ्रांस को “स्थायी शासन” से “अल्पकालिक सत्ता” की ओर धकेल दिया है।
प्रधानमंत्री का पद अब नेतृत्व का प्रतीक नहीं, बल्कि राजनीतिक अस्थिरता का अस्थायी पड़ाव बन चुका है।
3. “अहंकार की राजनीति” और संवाद का अभाव
लेकोर्नु के अनुसार, “फ्रांस की समस्या विपक्ष नहीं, बल्कि अहंकार है — हर दल खुद को राष्ट्र समझता है।”
यह कथन केवल फ्रांस पर नहीं, बल्कि वैश्विक लोकतंत्रों पर भी लागू होता है।
जहाँ कभी विचारधाराएँ लोकतंत्र को दिशा देती थीं, वहीं अब व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और जनतावादी नारेबाज़ी उस पर हावी हो रही है।
फ्रांस की स्थिति दर्शाती है कि जब राजनीतिक सहमति खो जाती है, तब लोकतंत्र बहस का मंच नहीं, टकराव का अखाड़ा बन जाता है।
यह स्थिति भारत सहित उन सभी देशों के लिए चेतावनी है जहाँ गठबंधन राजनीति बढ़ रही है —
“लोकतंत्र की मजबूती संवाद से आती है, टकराव से नहीं।”
4. आर्थिक संकट: राजनीतिक अस्थिरता की कीमत
राजनीतिक अस्थिरता की सबसे बड़ी कीमत अर्थव्यवस्था चुकाती है।
2024 में फ्रांस का राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit) जीडीपी का 5.8% तक पहुँच गया — जो यूरोपीय संघ की सीमा (3%) से लगभग दोगुना है।
फ्रांस का सार्वजनिक ऋण (Public Debt) जीडीपी का 114% है — यानी प्रत्येक नागरिक पर औसतन 50,000 यूरो का कर्ज।
लेकोर्नु को “बजट स्थिरीकरण” की चुनौती सौंपी गई थी। परंतु संसद में बहुमत के बिना कोई भी कठोर आर्थिक निर्णय संभव नहीं था।
इस तरह अस्थिर राजनीति ने आर्थिक सुधारों को रोक दिया और फ्रांस को “नीतिगत ठहराव” के दलदल में धकेल दिया।
5. वित्तीय बाजारों की प्रतिक्रिया: भरोसे का संकट
लेकोर्नु के इस्तीफे के तुरंत बाद CAC 40 सूचकांक में 2% से अधिक गिरावट आई।
बैंकिंग और निवेश शेयरों में 4–6% तक गिरावट दर्ज हुई, और यूरो की विनिमय दर कमजोर हो गई।
निवेशकों ने इसे “विश्वसनीय शासन के अभाव” के रूप में देखा।
यूरोप में जहाँ जर्मनी स्थिरता का प्रतीक है, वहीं फ्रांस अब अनिश्चितता का पर्याय बन गया है।
लोकतंत्र की अस्थिरता अब केवल राजनीतिक नहीं रही — यह आर्थिक विश्वास को भी कमजोर कर रही है।
6. यूरोपीय संघ और वैश्विक असर
फ्रांस यूरोपीय संघ (EU) का प्रमुख स्तंभ है।
उसकी आंतरिक अस्थिरता का असर पूरे महाद्वीप पर पड़ता है।
- यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में फ्रांस की कूटनीतिक सक्रियता कमजोर हुई है।
- फ्रांस-जर्मनी साझेदारी, जो यूरो की स्थिरता का आधार है, डगमगाने लगी है।
- चरम दक्षिणपंथ और जनतावाद को राजनीतिक स्थान मिल रहा है।
फ्रांस की राजनीतिक असफलता दरअसल यूरोप की सामूहिक नीति-संरचना को कमजोर कर रही है — ठीक वैसे ही जैसे पहले इटली और ग्रीस में हुआ था।
7. राष्ट्रपति मैक्रों की सीमित शक्ति
राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के पास अभी भी संवैधानिक अधिकार हैं, पर राजनीतिक आधार तेजी से घट रहा है।
उनके सामने दो विकल्प हैं —
- नया प्रधानमंत्री नियुक्त करें और अल्पसंख्यक सरकार चलाएँ, या
- संसद भंग कर पुनः चुनाव करवाएँ।
दोनों ही रास्ते जोखिमपूर्ण हैं।
यदि चुनाव हुए तो नेशनल रैली (RN) जैसी चरम दक्षिणपंथी ताकतें सत्ता के करीब पहुँच सकती हैं।
यदि अल्पसंख्यक सरकार बनी तो वह कुछ महीनों में गिर सकती है।
मैक्रों आज “सत्ता के शिखर पर एकाकी व्यक्ति” बन चुके हैं — जिनके पास अधिकार तो हैं, पर भरोसे का जनाधार नहीं।
8. लोकतंत्र का दर्पण: बहुलता बनाम विभाजन
फ्रांस की स्थिति एक बड़ा प्रश्न उठाती है —
क्या अत्यधिक बहुलता लोकतंत्र की शक्ति है या उसकी कमजोरी?
लोकतंत्र की सुंदरता विविधता में है, लेकिन जब वही विविधता विभाजन में बदल जाए, तो शासन असंभव हो जाता है।
लोकतंत्र केवल चुनाव नहीं, बल्कि संवाद और सहयोग की सतत प्रक्रिया है।
जब संवाद रुक जाता है, तो न तो बहुमत शासन कर पाता है, न ही विपक्ष सुधार ला पाता है।
यह वही स्थिति है जहाँ लोकतंत्र “जन-भागीदारी” से “जन-निराशा” की ओर बढ़ता है।
9. भारतीय संदर्भ: फ्रांस से मिलने वाले सबक
भारत के लिए फ्रांस की स्थिति एक गहरा सबक है।
हमारे यहाँ भी गठबंधन राजनीति बढ़ रही है, पर संसद की गरिमा तभी बनी रह सकती है जब संवाद जीवित रहे।
- संसद बहस का मंच बने, विरोध का नहीं।
- विपक्ष आलोचक रहे, पर विध्वंसक नहीं।
- सत्तापक्ष सहयोगी बने, न कि अहंकारी।
भारत ने 1990 के दशक में गठबंधन युग में भी स्थिरता दिखाई थी।
यह इस बात का प्रमाण है कि संवाद की संस्कृति किसी भी संवैधानिक ढांचे से अधिक महत्वपूर्ण होती है।
10. संस्थागत सुधार की आवश्यकता
फ्रांस के लिए केवल प्रधानमंत्री बदलना पर्याप्त नहीं है।
जरूरत है संवैधानिक पुनर्विचार की —
- क्या अर्द्ध-राष्ट्रपति प्रणाली (Semi-Presidential System) आज के खंडित जनादेश के लिए उपयुक्त है?
- क्या चुनावी प्रणाली में परिवर्तन या दल-निर्माण सुधार (Party Reform) आवश्यक है?
कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली संसद को अत्यधिक विभाजित कर देती है।
दूसरे कहते हैं कि राष्ट्रपति की शक्ति को सीमित किए बिना संसद को स्थिरता नहीं मिल सकती।
स्पष्ट है — जब तक राजनीतिक दल राष्ट्रहित को दलहित से ऊपर नहीं रखेंगे, कोई भी संविधान स्थिरता नहीं दे सकेगा।
11. लोकतंत्र की आत्मा: समझौता और जिम्मेदारी
लेकोर्नु का इस्तीफा लोकतंत्र के संवादहीन युग की निशानी है।
लोकतंत्र की सफलता इस बात में है कि चुनाव के बाद भी सहयोग बना रहे।
राजनीति का उद्देश्य सत्ता नहीं, समाधान होना चाहिए।
जब “विरोध” ही राजनीतिक अस्तित्व का एकमात्र तरीका बन जाए, तो नीति-निर्माण रुक जाता है, और समाज विचार-शून्यता की ओर बढ़ता है।
फ्रांस की स्थिति यही दिखाती है कि लोकतंत्र का सबसे बड़ा संकट विचारों का नहीं, संवाद का अभाव है।
निष्कर्ष: संकट में छिपा अवसर
फ्रांस आज अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है, पर हर संकट में एक अवसर भी छिपा होता है।
यदि यह संकट राजनीतिक दलों को आत्ममंथन के लिए प्रेरित करे, यदि यह संवाद और सहमति की नई संस्कृति को जन्म दे, तो यह लोकतंत्र के पुनर्जागरण का प्रारंभ हो सकता है।
राष्ट्रपति मैक्रों के लिए चुनौती यही है —
सत्ता बचाना नहीं, बल्कि प्रणाली को पुनर्जीवित करना।
फ्रांस की कहानी केवल यूरोप की नहीं, बल्कि हर उस लोकतंत्र की है जो अहंकार और ध्रुवीकरण में संवाद खो रहा है।
जब संवाद मर जाता है, तो लोकतंत्र धीरे-धीरे केवल संविधान की पंक्तियों में जीवित रह जाता है — समाज में नहीं।
📘 सारांश
- लेकोर्नु का इस्तीफा फ्रांस की राजनीतिक अस्थिरता का प्रतीक है।
- संसद के विभाजन ने शासन को निष्क्रिय बना दिया है।
- आर्थिक संकट और बढ़ता ऋण स्थिति को और कमजोर कर रहे हैं।
- मैक्रों की शक्ति सीमित और समर्थन आधार क्षीण है।
- लोकतंत्र की स्थिरता केवल संस्थाओं से नहीं, बल्कि संवाद की संस्कृति से आती है।
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