🌍 विदेशी सहायता का निलंबन और वैश्विक स्वास्थ्य संकट : राजनीति बनाम मानवता
मानव सभ्यता की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि उसने विज्ञान और चिकित्सा के सहारे लाखों-करोड़ों लोगों का जीवन बचाने की क्षमता हासिल की है। टीकों की खोज, दवाओं का विकास और स्वास्थ्य अभियानों ने विश्वभर में मृत्यु-दर घटाने और जीवन-आशा बढ़ाने में क्रांतिकारी योगदान दिया है। किंतु जब अंतरराष्ट्रीय राजनीति और सामरिक हितों के कारण स्वास्थ्य जैसे सार्वभौमिक अधिकार पर आघात होता है, तो इसके परिणाम केवल नीतिगत असफलता नहीं बल्कि मानवीय त्रासदी के रूप में सामने आते हैं। हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा विदेशी सहायता निलंबन का निर्णय इसी दिशा में एक गहरी चिंता उत्पन्न करने वाला उदाहरण है।
ट्रम्प प्रशासन ने अपनी America First नीति के तहत स्वास्थ्य सहायता को भी विदेशी खर्च मानकर कम कर दिया। इसका सीधा असर USAID और उससे जुड़े कार्यक्रमों पर पड़ा, जिनके माध्यम से HIV और मलेरिया रोधी दवाएँ दुनिया के कई गरीब देशों तक पहुँचाई जाती थीं। अब ये दवाएँ समय पर नहीं पहुँच पा रहीं और कई खेप तो बीच रास्ते ही रोक दी गई हैं। The Lancet नामक प्रतिष्ठित चिकित्सा पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, यदि यह स्थिति बरकरार रही तो 2030 तक लगभग 1.4 करोड़ लोगों की अनावश्यक मृत्यु होगी, जिनमें 45 लाख बच्चे शामिल होंगे। यह आँकड़ा केवल संख्याएँ नहीं, बल्कि लाखों परिवारों की बर्बादी और समाजों के टूटने की कहानी कहता है।
वैश्विक स्वास्थ्य सहयोग का इतिहास हमें बताता है कि अंतरराष्ट्रीय एकजुटता से असंभव लगने वाले लक्ष्य भी पूरे किए जा सकते हैं। चेचक उन्मूलन, पोलियो नियंत्रण और HIV/AIDS से जंग में WHO, GAVI, Global Fund और USAID जैसे संस्थानों ने निर्णायक भूमिका निभाई। भारत स्वयं पोलियो उन्मूलन अभियान की सफलता का प्रत्यक्ष उदाहरण है, जिसने वैश्विक सहयोग के सहारे एक असंभव लगने वाली चुनौती पर विजय पाई। ऐसे में विदेशी सहायता का निलंबन केवल स्वास्थ्य कार्यक्रमों को कमजोर करना ही नहीं, बल्कि दशकों की मेहनत को व्यर्थ करना है।
इस निलंबन के परिणाम बहुआयामी हैं। सबसे पहले, इससे गरीब देशों में स्वास्थ्य सेवाएँ चरमरा जाएँगी। बच्चों और गर्भवती महिलाओं की मृत्यु दर बढ़ेगी, और HIV, टीबी व मलेरिया जैसी बीमारियों के खिलाफ चल रही लड़ाई में पीछे हटना पड़ेगा। दूसरा, यह सतत विकास लक्ष्यों पर सीधा प्रहार है। 2030 तक “सभी के लिए स्वास्थ्य और कल्याण” सुनिश्चित करने का संकल्प अब अधूरा रह जाने का खतरा है। तीसरा, इसका सामाजिक-आर्थिक असर भी गहरा होगा। बीमारियों के कारण कार्यबल कमजोर होगा, उत्पादन क्षमता घटेगी और स्वास्थ्य खर्च बढ़ेगा, जिससे गरीबी और असमानता बढ़ेगी।
यह निर्णय मानवीय और नैतिक संकट को भी जन्म देता है। जीवन का अधिकार हर इंसान का मूलभूत मानवाधिकार है। यदि किसी प्रशासन का निर्णय लाखों जीवनों को खतरे में डालता है, तो यह मानवाधिकारों का सीधा उल्लंघन है। प्रश्न यह उठता है कि क्या राजनीतिक हित और घरेलू वोट बैंक की राजनीति मानव जीवन से ऊपर हो सकती है? यदि हाँ, तो मानवता और नैतिकता की सारी बातें केवल किताबों और सम्मेलनों तक सीमित रह जाएँगी।
भू-राजनीतिक दृष्टि से भी यह कदम अमेरिका की वैश्विक छवि को कमजोर करता है। दशकों से अमेरिका स्वास्थ्य सहायता के माध्यम से अपनी सॉफ्ट पावर का प्रयोग करता रहा है। परंतु अब यह रिक्तता चीन और अन्य उभरती शक्तियों के लिए अवसर बनेगी। चीन पहले ही अफ्रीका और एशिया में स्वास्थ्य ढाँचे में निवेश कर रहा है। यदि अमेरिका पीछे हटता है तो चीन इस मौके का लाभ उठाकर अपनी पकड़ मजबूत कर सकता है। इससे न केवल वैश्विक शक्ति-संतुलन बदलेगा, बल्कि संयुक्त राष्ट्र और WHO जैसी संस्थाओं की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न लगेगा।
भारत के लिए यह स्थिति अवसर और चुनौती दोनों लेकर आई है। अवसर इसलिए कि भारत को दुनिया की “फार्मेसी” कहा जाता है। जेनेरिक दवाएँ और सस्ती वैक्सीन बनाने में भारत की विशेषज्ञता विश्वभर में मान्य है। “वैक्सीन मैत्री” जैसी पहल ने भारत की छवि को पहले ही वैश्विक स्तर पर मजबूत किया है। यदि भारत इस संकट की घड़ी में गरीब देशों की मदद करता है, तो वह न केवल अपनी सॉफ्ट पावर बढ़ा सकता है, बल्कि वैश्विक स्वास्थ्य नेतृत्व भी स्थापित कर सकता है।
हालाँकि चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। घरेलू जरूरतों और अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाना कठिन होगा। दवाओं की आपूर्ति और लॉजिस्टिक्स में भारी लागत लगेगी। इसके अलावा चीन और अन्य देशों से प्रतिस्पर्धा भी होगी। भारत को यह देखना होगा कि वह स्वास्थ्य डिप्लोमेसी के जरिए अपने सामरिक हितों और मानवीय जिम्मेदारियों के बीच संतुलन कैसे साधता है।
नैतिक दृष्टिकोण से यह प्रश्न और भी गहरा है। क्या किसी राष्ट्र को यह अधिकार है कि वह अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं के लिए लाखों लोगों का जीवन संकट में डाले? क्या स्वास्थ्य जैसी सार्वभौमिक जरूरत राजनीति से ऊपर नहीं होनी चाहिए? और क्या यह अंतरराष्ट्रीय समुदाय की जिम्मेदारी नहीं है कि वह ऐसे निर्णयों के खिलाफ आवाज उठाए और सामूहिक समाधान खोजे? यह स्थिति हमें यह सोचने पर विवश करती है कि मानव सभ्यता का असली लक्ष्य क्या है — शक्ति और राजनीति, या मानवता और जीवन की रक्षा?
इस संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी अपनी भूमिका निभानी होगी। संयुक्त राष्ट्र, WHO, G20 और अन्य संस्थाओं को स्वास्थ्य फंडिंग की निरंतरता सुनिश्चित करनी होगी। दक्षिण-दक्षिण सहयोग यानी विकासशील देशों के बीच साझेदारी को और मजबूत करना होगा। नागरिक समाज और गैर-सरकारी संगठनों को भी इस दिशा में अधिक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।
भारत के लिए संभावित रणनीति स्पष्ट है—वैश्विक स्वास्थ्य गठबंधन में नेतृत्व करना, जेनेरिक दवाओं और वैक्सीन निर्यात को बढ़ावा देना, डिजिटल हेल्थ मिशन को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक फैलाना, आयुर्वेद और पारंपरिक चिकित्सा को स्वास्थ्य कूटनीति का हिस्सा बनाना और अफ्रीका-एशिया में स्थानीय स्वास्थ्य ढाँचे को मजबूत करना।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि विदेशी सहायता का निलंबन केवल आर्थिक या कूटनीतिक मामला नहीं, बल्कि एक गहरी मानवीय त्रासदी है। यह दर्शाता है कि जब राजनीति और शक्ति-संघर्ष को मानव जीवन से ऊपर रखा जाता है, तो उसकी कीमत निर्दोषों को चुकानी पड़ती है। भारत और अन्य देशों को यह अवसर है कि वे वैश्विक स्वास्थ्य डिप्लोमेसी में नेतृत्व करें और यह संदेश दें कि मानवता कूटनीति से बड़ी है। यदि अंतरराष्ट्रीय समुदाय समय रहते स्वास्थ्य सुरक्षा को राजनीति से ऊपर नहीं रखेगा, तो सतत विकास लक्ष्य कागज़ी वादे बनकर रह जाएँगे और आने वाली पीढ़ियाँ हमें एक असंवेदनशील सभ्यता के रूप में याद करेंगी।
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