भारत में संविधान की मूल संरचना सिद्धांत का विकास: एक विश्लेषण
प्रस्तावना
भारतीय संविधान विश्व के सबसे व्यापक और विवेचित संवैधानिक दस्तावेज़ों में से एक है। इसके लागू होने के बाद से ही, संसद और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन एक जटिल संवैधानिक प्रश्न बना हुआ है। इसी संदर्भ में मूल संरचना सिद्धांत (Basic Structure Doctrine) ने भारतीय संवैधानिक परिदृश्य में एक निर्णायक भूमिका निभाई। यह सिद्धांत संसद की संशोधन शक्ति पर सीमा लगाता है और सुनिश्चित करता है कि संविधान की मूल आत्मा, उसके लोकतांत्रिक और न्यायिक मूल्य, तथा मौलिक अधिकार संरक्षित रहें। इसकी उत्पत्ति न्यायपालिका के विभिन्न ऐतिहासिक निर्णयों में हुई, जिन्होंने संसद की असीमित शक्ति के खिलाफ संवैधानिक संतुलन स्थापित किया।
ऐतिहासिक विकास: प्रारंभिक चरण से केशवनंद भारती तक
प्रारंभिक दृष्टिकोण: संसद की असीमित संशोधन शक्ति (1951-1965)
संविधान लागू होने के तुरंत बाद संसद ने सामाजिक न्याय और भूमि सुधार के लिए कई कानून पारित किए। इसी संदर्भ में प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 आया, जिसने भूमि सुधार कानूनों को नौवीं अनुसूची में शामिल कर न्यायिक समीक्षा से मुक्त कर दिया।
शंकरि प्रसाद बनाम भारत संघ (1951) में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 13 में उल्लिखित 'कानून' केवल साधारण कानूनों तक सीमित है; इसलिए संसद संवैधानिक संशोधन के माध्यम से मौलिक अधिकारों को भी संशोधित कर सकती है। इसके बाद, सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1965) ने सत्रहवें संशोधन को वैध ठहराया, लेकिन दो न्यायाधीशों ने संकेत दिया कि संविधान की कुछ विशेषताएं अपरिवर्तनीय हो सकती हैं। इस समय, संसद की शक्ति पूर्ण मानी गई, लेकिन न्यायिक चेतावनी की बीज बोए गए।
गोलकनाथ मामला: मौलिक अधिकारों की पहली सुरक्षा (1967)
आई.सी. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) ने संसद की संशोधन शक्ति पर पहली संवैधानिक सीमा निर्धारित की। 11-न्यायाधीश पीठ ने फैसला दिया कि अनुच्छेद 368 केवल संशोधन की प्रक्रिया तय करता है, संशोधन की असीमित शक्ति प्रदान नहीं करता। न्यायालय ने मौलिक अधिकारों को संसद के हस्तक्षेप से सुरक्षित रखा। यद्यपि इस निर्णय में 'मूल संरचना' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ, परंतु निहित सीमाओं की अवधारणा ने इसके लिए आधार तैयार किया।
इस निर्णय के जवाब में 24वें संशोधन अधिनियम (1971) पारित किया गया, जिसने संसद की शक्ति को बहाल करने का प्रयास किया।
केशवनंद भारती मामला: सिद्धांत का औपचारिक जन्म (1973)
केशवनंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में 13-न्यायाधीश पीठ ने 7:6 बहुमत से निर्णय दिया कि संसद संविधान के मूल तत्वों को नष्ट नहीं कर सकती। इस फैसले ने मूल संरचना सिद्धांत को औपचारिक रूप दिया। न्यायालय ने संविधान की सर्वोच्चता, लोकतांत्रिक शासन, धर्मनिरपेक्षता, शक्तियों का पृथक्करण, संघीयता, न्यायिक समीक्षा और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा को अपरिवर्तनीय बताया। यह निर्णय भारतीय संवैधानिक न्यायशास्त्र में एक क्रांतिकारी मोड़ था, जिसने न्यायपालिका को संरक्षक की भूमिका प्रदान की।
बाद के विकास: विस्तार और सुदृढ़ीकरण
- इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975): 39वें संशोधन के कुछ प्रावधानों को अमान्य ठहराया; स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव तथा न्यायिक समीक्षा को मूल संरचना का हिस्सा माना।
- 42वां संशोधन (1976): आपातकाल के दौरान पारित, जिसने संसद की शक्ति असीमित घोषित की और न्यायिक समीक्षा पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास किया।
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): 42वें संशोधन के कुछ प्रावधानों को अमान्य किया; मौलिक अधिकार और राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के बीच संतुलन को मूल संरचना का अंग माना।
- वामन राव बनाम भारत संघ (1981): सिद्धांत को पूर्वव्यापी रूप से लागू किया।
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): संघीयता और धर्मनिरपेक्षता को मूल संरचना में शामिल किया।
- आई.आर. कोएल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007): नौवीं अनुसूची में रखे गए कानूनों को भी मूल संरचना के उल्लंघन पर समीक्षा योग्य ठहराया।
इन मामलों ने सिद्धांत को निरंतर विकसित और सुदृढ़ किया।
मूल संरचना के तत्व
न्यायपालिका ने कोई निश्चित सूची नहीं दी, लेकिन निर्णयों के आधार पर कुछ प्रमुख तत्व स्पष्ट हुए हैं:
- संविधान की सर्वोच्चता
- लोकतंत्र और गणतंत्रात्मक स्वरूप
- धर्मनिरपेक्षता
- शक्तियों का पृथक्करण
- संघीयता
- न्यायिक समीक्षा
- समानता का सिद्धांत
- मौलिक अधिकारों की सुरक्षा
- कल्याणकारी राज्य की भावना
- स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता
ये तत्व संविधान की आत्मा का निर्माण करते हैं और आवश्यकतानुसार विस्तारित होते रहते हैं।
महत्व
मूल संरचना सिद्धांत भारतीय लोकतंत्र की रक्षा का संवैधानिक स्तंभ है। यह संसद की मनमानी पर अंकुश लगाता है, न्यायपालिका को संरक्षक बनाता है, मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करता है और अधिनायकवाद को रोकता है। इसके माध्यम से संविधान एक जीवंत दस्तावेज बना रहता है, जो सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक मूल्य सुनिश्चित करता है।
आलोचनाएँ
सिद्धांत की आलोचना मुख्य रूप से निम्न बिंदुओं पर होती है:
- यह न्यायिक रचना है, संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं।
- मूल तत्वों की अस्पष्टता और व्यक्तिपरक व्याख्या से असंगतियां उत्पन्न होती हैं।
- न्यायपालिका संसद की शक्ति में हस्तक्षेप कर शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन कर सकती है।
- न्यायिक सक्रियता निर्वाचित प्रतिनिधियों की इच्छाओं पर हावी हो सकती है।
- सामाजिक परिवर्तनों के अनुकूल संविधान के विकास में बाधा डाल सकता है।
हालांकि, इन आलोचनाओं के बावजूद, यह सिद्धांत संवैधानिक स्थिरता और लोकतांत्रिक संतुलन बनाए रखने में निर्णायक भूमिका निभाता है।
निष्कर्ष
मूल संरचना सिद्धांत भारतीय संवैधानिक इतिहास में एक मील का पत्थर है। यह शंकरि प्रसाद से लेकर केशवनंद भारती और उसके बाद के मामलों तक, संसद और न्यायपालिका के बीच संवैधानिक संतुलन का प्रतीक रहा। यह सिद्धांत संविधान की आत्मा की रक्षा करता है, लोकतंत्र को सुदृढ़ बनाता है और सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करता है। भविष्य में, यह सिद्धांत नई चुनौतियों के अनुरूप विकसित होता रहेगा, भारतीय संविधान की अखंडता और स्थायित्व सुनिश्चित करते हुए।
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