“ऊंट संरक्षण: रेगिस्तान के इस जीवित प्रतीक को बचाना क्यों जरूरी है?”
कभी रेगिस्तान की रेत पर सभ्यता की गति और संस्कृति की गूंज ऊंट की चाल से मापी जाती थी। आज वही ऊंट—थार की आत्मा, राजस्थान की पहचान और भारत की विरासत—अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रहा है। यह केवल एक पशु के विलुप्त होने की कहानी नहीं, बल्कि हमारी नीतियों, प्राथमिकताओं और पर्यावरणीय दृष्टिकोण के कमजोर पड़ने का प्रतीक है। 1977 में जहां देश में लगभग 11 लाख ऊंट थे, वहीं 2019 तक यह संख्या घटकर केवल 2.52 लाख रह गई। यानी 42 वर्षों में 75 प्रतिशत से अधिक की गिरावट। यह आंकड़ा केवल सांख्यिकीय नहीं, बल्कि हमारी नीतिगत संवेदनहीनता की सजीव तस्वीर है।
गिरावट की जड़ें: आधुनिकता के रेगिस्तान में परंपरा की मौत
ऊंट सदियों से मरुस्थलीय भारत के लिए जीवन का आधार रहा है। वह न केवल परिवहन का साधन था, बल्कि दूध, ऊन, मांस और कृषि में भी उपयोगी रहा। परंतु पिछले चार दशकों में तकनीकी विकास और औद्योगिक परिवर्तनों ने इस पारंपरिक संबंध को तोड़ दिया। ट्रैक्टर और ट्रक ने ऊंट गाड़ियों की जगह ले ली, सिंथेटिक कपड़ों ने ऊंट ऊन की मांग घटा दी, और सरकारी योजनाओं में ऊंट कहीं हाशिये पर छूट गया।
राष्ट्रीय पशुधन मिशन (NLM) जैसे कार्यक्रमों ने गाय, भैंस और बकरी पर तो ध्यान दिया, पर ऊंटों के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई। फलस्वरूप, प्रजनन केंद्र बंद होते गए, पशुपालकों को सहायता नहीं मिली और बाजार घटता गया। जलवायु परिवर्तन ने संकट को और गहरा किया—चरागाह सिकुड़ गए, तापमान बढ़ा और जल स्रोत सूखने लगे।
राजस्थान और गुजरात के पशुपालक समुदायों के लिए ऊंट केवल जीविकोपार्जन नहीं था, बल्कि सम्मान और पहचान का प्रतीक था। लेकिन अब यह परंपरा भी धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है।
पारिस्थितिक और सांस्कृतिक महत्व: रेगिस्तान की जीवनरेखा
ऊंट मरुस्थल की पारिस्थितिकी में एक संतुलनकारी भूमिका निभाता है। वह कम पानी और सूखी वनस्पति पर भी जीवित रह सकता है, जिससे रेगिस्तान की नाजुक पारिस्थितिकी संरक्षित रहती है। उसका मल मिट्टी को उपजाऊ बनाता है और चराई से पौधों की प्राकृतिक विविधता बनी रहती है।
आर्थिक दृष्टि से, ऊंट दूध अत्यंत पौष्टिक होता है—इसमें विटामिन C की मात्रा गाय के दूध से तीन गुना तक होती है। यह मधुमेह और ऑटो-इम्यून रोगों के लिए भी लाभकारी माना गया है। लेकिन ऊंटों की घटती संख्या से यह वैकल्पिक पोषण स्रोत भी दुर्लभ हो गया है।
सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो ऊंट राजस्थान के लोकगीतों, लोककथाओं और मेलों में एक जीवंत प्रतीक है। पुष्कर मेला, जो कभी ऊंट व्यापार का केंद्र था, आज प्रतीकात्मक बनकर रह गया है। यदि ऊंट लुप्त हो गया, तो यह केवल एक प्रजाति नहीं, बल्कि हमारी लोकसंस्कृति का एक अध्याय खो जाएगा।
कानूनी और नीतिगत विफलताएँ
राजस्थान ऊंट (संरक्षण और विकास) अधिनियम, 1992 का उद्देश्य था ऊंटों के अवैध व्यापार और वध को रोकना, लेकिन परिणाम उलटे निकले। ऊंटों की बिक्री और अंतरराज्यीय परिवहन पर लगे प्रतिबंधों ने पशुपालकों की वैध आय को ही रोक दिया। अब वे ऊंट पालने से हिचकने लगे हैं, क्योंकि देखभाल की लागत बढ़ रही है और मुनाफा घट रहा है।
साथ ही, सरकार की नीतियाँ खंडित हैं—एक ओर पशुधन संरक्षण योजनाएँ हैं, तो दूसरी ओर ऊंटों के लिए कोई पृथक वित्तपोषण या बीमा तंत्र नहीं। ऊंट पालन एक “आर्थिक बोझ” बन गया है, जबकि यह पारिस्थितिक रूप से सबसे टिकाऊ पशुपालन का मॉडल है।
नई उम्मीद: राष्ट्रीय ऊंट स्थिरता पहल (NCSI)
केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित “राष्ट्रीय ऊंट स्थिरता पहल” (NCSI) इस दिशा में एक सकारात्मक कदम है। मत्स्य पालन, पशुपालन एवं डेयरी मंत्रालय द्वारा तैयार यह नीति मसौदा ऊंट संरक्षण को बहु-मंत्रालयी दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करती है।
इसमें कुछ प्रमुख बिंदु शामिल हैं:
- प्रजनन केंद्रों का पुनर्गठन: राजस्थान, कच्छ और लद्दाख में समर्पित प्रजनन केंद्र स्थापित करने का प्रस्ताव है।
- व्यापार और परिवहन सुधार: राजस्थान ऊंट अधिनियम की समीक्षा और ऊंट व्यापार के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म की स्थापना।
- जागरूकता अभियान: स्कूलों और मेलों में ऊंट के सांस्कृतिक और पारिस्थितिक महत्व पर अभियान चलाना।
- ऊंट दूध उद्योग का प्रोत्साहन: ऊंट दूध से बने उत्पादों (चॉकलेट, आइसक्रीम, स्किन क्रीम आदि) के निर्यात को बढ़ावा देना।
- पशुपालक उद्यमिता: ऊंट पालन को स्टार्टअप मॉडल से जोड़कर ग्रामीण युवाओं को आकर्षित करना।
यह पहल केवल तभी सार्थक होगी जब इसमें पर्याप्त बजट आवंटन (कम से कम ₹500 करोड़) और पारदर्शी निगरानी तंत्र सुनिश्चित किया जाए।
संपादकीय दृष्टिकोण: समुदायों को केंद्र में लाना अनिवार्य
नीतियों के केंद्र में पशुपालक समुदायों को लाना होगा, न कि केवल पशु संरक्षण को। उनके पारंपरिक ज्ञान, स्थानीय प्रथाओं और सामाजिक ताने-बाने को योजना में शामिल करना जरूरी है। महिलाओं की भूमिका विशेष रूप से महत्वपूर्ण है—क्योंकि ऊंट दूध संग्रह, विपणन और उत्पाद निर्माण में उनका योगदान अधिक है।
जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में, ऊंट पालन भारत की सतत आजीविका (Sustainable Livelihood) नीति का आधार बन सकता है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर चरागाह प्रबंधन, सूखा-प्रतिरोधी फसलों और पर्यटन-आधारित अर्थव्यवस्था को जोड़ने की आवश्यकता है।
मंगोलिया और सऊदी अरब जैसे देशों ने ऊंट आधारित उत्पादों को वैश्विक ब्रांड बनाया है। भारत भी “Camel Economy 2.0” की दिशा में कदम बढ़ा सकता है—जहाँ यह केवल पशु नहीं, बल्कि हरित विकास का प्रतीक बने।
निष्कर्ष: ऊंट बचाना, संस्कृति और पर्यावरण बचाना
ऊंट का अस्तित्व केवल रेगिस्तान के जीवन का प्रश्न नहीं, बल्कि हमारी नीतिगत संवेदनशीलता की परीक्षा है। यदि हम इस जीवित प्रतीक को खो देंगे, तो हम न केवल जैव विविधता का एक अनमोल हिस्सा खोएंगे, बल्कि अपनी लोकसंस्कृति, पारिस्थितिक संतुलन और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का भी नुकसान करेंगे।
अब समय है कि “राष्ट्रीय ऊंट स्थिरता पहल” को केवल दस्तावेज़ न रहने दिया जाए—इसे जमीनी स्तर पर उतारा जाए। हर ऊंट को बचाना केवल पशु संरक्षण नहीं, बल्कि भारत की आत्मा को बचाने का प्रयास है।
रेगिस्तान की रेत हमें याद दिलाती है कि जो प्राणी हमें हजारों वर्षों से ढोता आया, आज उसे हमारी ज़रूरत है। अगर हमने अब भी उसे नहीं संभाला, तो आने वाली पीढ़ियाँ ऊंट को केवल किताबों में देख पाएँगी—रेगिस्तान में नहीं।
इंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्ट पर आधारित
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