पाकिस्तान में अफगान शरणार्थियों की दुर्दशा: बदलता अमेरिका-पाकिस्तान संबंध और मानवता की परीक्षा
(An analytical editorial for UPSC GS Paper 2 & IR)
प्रस्तावना: भू-राजनीति और मानवता के बीच फंसे लोग
2021 में अमेरिका की अफगानिस्तान से वापसी के बाद जो राजनीतिक, मानवीय और सुरक्षा संकट उत्पन्न हुआ, वह अब केवल अफगान सीमाओं तक सीमित नहीं रहा है। पाकिस्तान में रह रहे लाखों अफगान शरणार्थी इस संकट का सबसे भीषण रूप झेल रहे हैं।
हाल ही में पाकिस्तान द्वारा इन शरणार्थियों को बड़े पैमाने पर निर्वासित करने का निर्णय न केवल एक मानवीय त्रासदी को जन्म देता है, बल्कि यह बदलते अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों की जटिलता और वैश्विक उत्तरदायित्वों की कमजोर पड़ती भावना को भी उजागर करता है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: पाकिस्तान और अफगान शरणार्थियों का लंबा रिश्ता
अफगान शरणार्थियों की कहानी 1979 से शुरू होती है, जब सोवियत संघ के आक्रमण के बाद लाखों अफगान पाकिस्तान में शरण लेने को विवश हुए।
पिछले चार दशकों में पाकिस्तान ने लगभग 40 लाख अफगानों को शरण दी—यह विश्व के सबसे लंबे शरणार्थी मेजबानी अनुभवों में से एक रहा।
हालाँकि, समय के साथ यह “मानवीय कर्तव्य” पाकिस्तान के लिए आर्थिक बोझ और सुरक्षा चुनौती में बदल गया।
जब तालिबान ने अगस्त 2021 में काबुल पर कब्ज़ा किया, तब एक बार फिर सैकड़ों हजार लोग सीमा पार कर पाकिस्तान पहुँचे—इनमें बड़ी संख्या उन अफगानों की थी जिन्होंने अमेरिकी सेनाओं और गैर-सरकारी संगठनों के साथ काम किया था।
सुरक्षा पत्र और बढ़ती अनिश्चितता
अमेरिका ने ऐसे अफगानों के लिए विशेष पुनर्वास कार्यक्रम शुरू किए—Special Immigrant Visa (SIV) और Priority-2 श्रेणी के अंतर्गत उन्हें अमेरिका में बसाने की प्रक्रिया चलाई जा रही थी।
अस्थायी रूप से पाकिस्तान में ठहरने की अनुमति देने हेतु अमेरिका ने उन्हें “Protection Letters” जारी किए, जिनका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि उनकी पुनर्वास प्रक्रिया पूरी होने तक उन्हें निर्वासित न किया जाए।
लेकिन 2023 के उत्तरार्ध से हालात बदल गए। पाकिस्तान ने “गैर-पंजीकृत प्रवासियों” के खिलाफ सख्त कार्रवाई शुरू की और 10 लाख से अधिक अफगानों को निर्वासन के लिए सूचीबद्ध किया।
रिपोर्टों के अनुसार, अब उन लोगों को भी निकाला जा रहा है जिनके पास अमेरिकी सुरक्षा पत्र हैं—क्योंकि इस्लामाबाद को लगता है कि वाशिंगटन अब उन अफगानों के पुनर्वास के प्रति गंभीर नहीं है।
अमेरिका की नीति की सीमाएँ: वादे बनाम वास्तविकता
अमेरिकी सरकार ने अफगान सहयोगियों की सुरक्षा का वादा किया था, परंतु उसकी नीति जटिल नौकरशाही प्रक्रिया में उलझ गई।
SIV प्रक्रिया में औसतन 2–3 वर्ष लग रहे हैं, और लगभग 80,000 से अधिक अफगान अब भी लंबित आवेदनों में फंसे हैं।
इस बीच, पुनर्वास की प्रतीक्षा कर रहे लोगों के लिए पाकिस्तान में रहना दिन-प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है—न रोजगार, न सुरक्षा, न भविष्य।
अमेरिका की नीति में यह विफलता एक नैतिक संकट की तरह है: जिन लोगों ने अमेरिकी अभियानों में सहयोग किया, वे अब उसी राष्ट्र की अनदेखी का शिकार बन रहे हैं जिसने उन्हें सुरक्षा का आश्वासन दिया था।
इससे अमेरिका की “credibility as a global humanitarian power” पर प्रश्नचिह्न लग गया है।
पाकिस्तान का दृष्टिकोण: आंतरिक दबाव और राजनीतिक गणित
पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय है—मुद्रास्फीति 30% से अधिक, IMF से राहत पैकेज की शर्तें कठोर, और घरेलू राजनीतिक अस्थिरता चरम पर है।
ऐसे में लाखों शरणार्थियों का बोझ सरकार के लिए असहनीय हो गया है।
इसके अलावा, पाकिस्तान के अंदर सुरक्षा एजेंसियां यह मानती हैं कि कुछ शरणार्थी तालिबान या TTP (Tehreek-e-Taliban Pakistan) के नेटवर्क से जुड़े हो सकते हैं।
इन कारणों से शरणार्थी नीति “मानवीय प्रश्न” से बदलकर “सुरक्षा प्रश्न” बन गई है।
हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि यह आक्रामक निर्वासन नीति वास्तव में पाकिस्तान के बदलते कूटनीतिक समीकरणों का संकेत भी है—खासकर अमेरिका के साथ बिगड़ते रिश्तों का।
बदलता अमेरिका–पाकिस्तान संबंध: अविश्वास की नई दीवारें
शीत युद्ध के दौर में पाकिस्तान अमेरिका का प्रमुख सहयोगी था, परंतु आज दोनों देशों के बीच अविश्वास की खाई गहरी है।
अफगान युद्ध के दौरान पाकिस्तान पर दोहरा खेल खेलने के आरोप लगे—एक ओर वह अमेरिका का सहयोगी था, दूसरी ओर तालिबान के कुछ गुटों को शरण देता रहा।
अमेरिका की दृष्टि में पाकिस्तान अब न तो रणनीतिक प्राथमिकता है, न ही भरोसेमंद साझेदार।
इसके विपरीत, पाकिस्तान अब चीन के साथ अपने संबंधों को और गहरा कर रहा है—CPEC (China-Pakistan Economic Corridor) इसका प्रमुख उदाहरण है।
इस बदली प्राथमिकता ने अमेरिका की दिलचस्पी और सहायता दोनों को कम कर दिया है।
अमेरिका के समर्थन के अभाव में पाकिस्तान अपने घरेलू दबावों को संतुलित करने के लिए कठोर शरणार्थी नीति को “राजनीतिक प्रदर्शन” के रूप में भी प्रयोग कर रहा है।
मानवाधिकार और अंतरराष्ट्रीय दायित्व
संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी संस्था UNHCR ने पाकिस्तान से अपील की है कि वह non-refoulement सिद्धांत का उल्लंघन न करे—यानी किसी व्यक्ति को ऐसे देश में वापस न भेजा जाए जहाँ उसे उत्पीड़न का खतरा हो।
पाकिस्तान 1951 के शरणार्थी सम्मेलन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, परंतु Customary International Law के तहत उस पर मानवीय दायित्व लागू होते हैं।
इसी प्रकार, अमेरिका पर भी Moral Responsibility है कि वह अपने सहयोगियों की सुरक्षा सुनिश्चित करे।
परंतु जब महान शक्तियाँ अपने वादों से पीछे हटती हैं, तब अंतरराष्ट्रीय कानून की सीमाएँ स्पष्ट हो जाती हैं—और सबसे बड़ा नुकसान उन निर्दोषों को होता है जिनका कोई देश नहीं होता।
भू-राजनीतिक परिणाम
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क्षेत्रीय अस्थिरता में वृद्धि:
अफगान शरणार्थियों की वापसी से अफगानिस्तान में सामाजिक और आर्थिक दबाव बढ़ेगा, जिससे वहां असंतोष और हिंसा की संभावना बढ़ेगी। -
तालिबान को अप्रत्यक्ष लाभ:
जब दुनिया अफगान शरणार्थियों को ठुकराती है, तो तालिबान यह प्रचार करता है कि “पश्चिम ने अपने सहयोगियों को त्याग दिया”—इससे उसकी वैचारिक पकड़ मजबूत होती है। -
अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा का ह्रास:
अमेरिका की वैश्विक साख, जो मानवाधिकारों और मानवीय मूल्यों की संरक्षक कही जाती थी, अब कमजोर होती दिख रही है। -
पाकिस्तान का आंतरिक तनाव:
शरणार्थियों के निष्कासन से पाकिस्तान में ethnic fault lines (पश्तून बनाम पंजाबी/बलोच) और गहरी हो सकती हैं।
आगे की राह: कूटनीति और संवेदनशीलता का संतुलन
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अमेरिका को अपनी प्रतिबद्धता दोहरानी चाहिए
वाशिंगटन को अपने SIV और पुनर्वास कार्यक्रमों की प्रक्रिया में त्वरित सुधार लाना चाहिए।
वीज़ा प्रक्रियाओं को डिजिटल और पारदर्शी बनाकर लंबित आवेदनों को शीघ्र निपटाना आवश्यक है। -
पाकिस्तान को मानवीय नीति अपनानी चाहिए
इस्लामाबाद को अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग बढ़ाकर अस्थायी राहत केंद्र, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध करानी चाहिए। -
संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थ भूमिका
UNHCR और IOM (International Organization for Migration) के माध्यम से एक “Joint Resettlement Framework” तैयार किया जा सकता है, जिससे निर्वासन रोका जा सके। -
क्षेत्रीय सहयोग की आवश्यकता
भारत, ईरान और मध्य एशियाई देशों को भी मानवीय जिम्मेदारी के तहत अफगान शरणार्थियों के पुनर्वास में भूमिका निभानी चाहिए।
यह केवल पाकिस्तान का नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया का साझा संकट है।
नैतिक विमर्श: इतिहास से सीख
अफगानिस्तान का इतिहास बार-बार यह सिखाता है कि जब भी वैश्विक शक्तियाँ किसी क्षेत्र से बिना दीर्घकालिक योजना के निकलती हैं, तो सबसे अधिक नुकसान आम नागरिकों को होता है।
1979 के सोवियत युद्ध, 1989 की वापसी, और 2021 की अमेरिकी वापसी—तीनों बार अफगान जनता को ही कीमत चुकानी पड़ी।
आज पाकिस्तान में फंसे ये शरणार्थी उस टूटे वादे का जीवंत प्रतीक हैं, जिसमें मानवता राजनीति से हार जाती है।
निष्कर्ष: भू-राजनीतिक जिम्मेदारी से ऊपर उठने की आवश्यकता
अफगान शरणार्थियों का संकट केवल एक मानवीय प्रश्न नहीं, बल्कि विश्व राजनीति की नैतिक परीक्षा है।
यदि अमेरिका अपनी वचनबद्धता पूरी नहीं करता और पाकिस्तान अपनी सीमित दृष्टि से बाहर नहीं निकलता, तो यह त्रासदी और गहराएगी।
मानवता की रक्षा किसी सीमा, धर्म या गठबंधन की मोहताज नहीं होनी चाहिए।
आज आवश्यकता इस बात की है कि भू-राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर इन शरणार्थियों को सुरक्षा, सम्मान और जीवन का अधिकार दिया जाए—क्योंकि किसी भी राष्ट्र की साख उसकी सामरिक शक्ति से नहीं, बल्कि उसकी करुणा से मापी जाती है।
With Washington Post Inputs
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