उत्तर कोरिया का परमाणु कार्यक्रम: संप्रभुता और वैश्विक सुरक्षा के बीच संतुलन
उत्तर कोरिया ने 2025 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में स्पष्ट किया कि वह अपने परमाणु कार्यक्रम को कभी नहीं छोड़ेगा। इस बयान ने न केवल वैश्विक राजनीति में हलचल मचा दी है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और कूटनीति के परिदृश्य को भी चुनौती दी है। उत्तर कोरिया के उप विदेश मंत्री किम सोन ग्योंग ने इसे राष्ट्रीय संप्रभुता और अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा बताया और परमाणु निरस्त्रीकरण की मांग को "संप्रभुता का आत्मसमर्पण" करार दिया।
यह रवैया किसी भी दृष्टिकोण से नई बात नहीं है। दशकों से उत्तर कोरिया अपने परमाणु कार्यक्रम को देश की सुरक्षा और राजनीतिक आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। लेकिन 21वीं सदी की वैश्विक सुरक्षा संरचना में ऐसे एकतरफा परमाणु विस्तार को नजरअंदाज करना आसान नहीं। विशेष रूप से एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया के साथ बढ़ती सैन्य गतिशीलता को देखते हुए, उत्तर कोरिया का यह कदम क्षेत्रीय तनाव को और बढ़ा सकता है।
इस बीच, रूस और चीन ने कूटनीतिक वार्ता को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंधों में ढील देने का प्रस्ताव रखा है। यह संकेत देता है कि वैश्विक शक्ति संतुलन में उत्तर कोरिया का प्रभाव अभी भी पर्याप्त है। दूसरी ओर, दक्षिण कोरिया ने "शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व" की वकालत की है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि क्षेत्रीय समाधान की संभावना केवल कूटनीति और वार्ता के माध्यम से ही संभव है।
उत्तर कोरिया की परमाणु नीति का एक अन्य आयाम इसका तकनीकी पक्ष है। हालिया खुलासों के अनुसार, उत्तर कोरिया के पास चार यूरेनियम संवर्धन संयंत्र हैं और उच्च संवर्धित यूरेनियम का भंडार उसे 100 से अधिक परमाणु हथियार बनाने की क्षमता प्रदान करता है। यह न केवल एशिया-प्रशांत क्षेत्र, बल्कि पूरे विश्व के लिए एक गंभीर सुरक्षा चुनौती है।
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