भारत में कृषि क्षेत्र: चुनौतियाँ, अवसर और नीतिगत समाधान
भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र को सदैव रीढ़ की हड्डी माना गया है। यह क्षेत्र न केवल ग्रामीण समाज की जीविका का आधार है बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा, औद्योगिक कच्चे माल की आपूर्ति, निर्यात आय और राजनीतिक स्थिरता तक को प्रभावित करता है। आजादी के समय से ही भारतीय कृषि की विशेषता रही है कि यह बहुसंख्यक जनसंख्या को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार देती है, किंतु वर्तमान समय में यह क्षेत्र अभूतपूर्व संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। हरित क्रांति, श्वेत क्रांति और पश्चात के सुधारों ने उत्पादन में वृद्धि अवश्य की, मगर बदलते सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक परिदृश्य ने नए प्रश्न खड़े कर दिए हैं। किसानों की आय स्थिर है, भूमि जोत का आकार लगातार घट रहा है, जलवायु परिवर्तन अनिश्चितता पैदा कर रहा है और बाजार की अस्थिरता किसानों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है। ऐसे में कृषि क्षेत्र का पुनरावलोकन और दीर्घकालीन सुधार अत्यंत आवश्यक हो गया है।
हरित क्रांति ने 1960 के दशक में देश को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया। गेहूं और धान जैसी प्रमुख फसलों के उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई, किंतु यह वृद्धि क्षेत्रीय और फसल-विशेष तक सीमित रही। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य लाभान्वित हुए, जबकि पूर्वी और मध्य भारत अपेक्षाकृत पीछे रह गए। आज भी वही पैटर्न बड़े पैमाने पर दिखाई देता है। इसके साथ ही रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग ने मृदा की उर्वरता और भूजल स्तर पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। हरित क्रांति की इस ‘इनपुट-गहन’ (Input-Intensive) कृषि प्रणाली ने संसाधनों के असंतुलित उपयोग और पर्यावरणीय असंतुलन की समस्या को बढ़ा दिया।
वर्तमान समय की सबसे बड़ी चुनौती जलवायु परिवर्तन है। अनिश्चित मानसून, बार-बार आने वाले सूखे, बाढ़ और चक्रवात जैसी घटनाएँ फसलों की उत्पादकता को कम कर रही हैं। IPCC और UNFCCC की रिपोर्टें बताती हैं कि 2050 तक जलवायु परिवर्तन भारतीय कृषि की उत्पादकता में 10–40% तक गिरावट ला सकता है। छोटे और सीमांत किसान, जिनकी संख्या कुल किसानों का 85% है, सबसे अधिक प्रभावित होंगे। इसके अतिरिक्त भूमिगत जल का तेजी से दोहन, प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव और जैव विविधता का नुकसान कृषि की स्थिरता को चुनौती दे रहा है।
इसके बावजूद अवसर भी कम नहीं हैं। फसल विविधीकरण, बागवानी, पशुपालन, मत्स्यपालन, मधुमक्खी-पालन और जैविक खेती जैसे विकल्प किसानों की आय बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में बागवानी उत्पादन खाद्यान्न उत्पादन से अधिक हो गया है। दुग्ध, अंडा और मांस उत्पादन में भी भारत अग्रणी है। इन क्षेत्रों में मूल्य संवर्धन, प्रसंस्करण और निर्यात की अपार संभावनाएँ हैं। इसके लिए कोल्ड-चेन, वेयरहाउसिंग और लॉजिस्टिक्स का विस्तार आवश्यक है।
सरकारी स्तर पर अनेक योजनाएँ लागू की जा रही हैं। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि किसानों को प्रत्यक्ष आय सहायता देती है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना जोखिम-प्रबंधन में सहायक है। राष्ट्रीय कृषि बाजार (e-NAM) किसानों को डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से अधिक प्रतिस्पर्धी और पारदर्शी बाजार उपलब्ध कराता है। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक कृषि (Zero Budget Natural Farming) और मृदा स्वास्थ्य कार्ड जैसी पहलकदमियाँ स्थायी कृषि की दिशा में महत्वपूर्ण हैं। किंतु इन योजनाओं का लाभ तभी अधिकतम होगा जब राज्य सरकारें, निजी क्षेत्र और किसान संगठन मिलकर काम करें।
निजी निवेश और अनुसंधान की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। कृषि विश्वविद्यालयों और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के नेटवर्क को और मजबूत करने की आवश्यकता है। बीज, उर्वरक और कृषि यंत्रों के क्षेत्र में अनुसंधान और नवाचार को प्रोत्साहन देना होगा। ड्रोन, सेंसर, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), और उपग्रह आधारित निगरानी तकनीकें फसल स्वास्थ्य, सिंचाई और मौसम पूर्वानुमान में क्रांतिकारी बदलाव ला सकती हैं। एग्री-स्टार्टअप्स किसानों तक सटीक कृषि सेवाएँ पहुँचा रहे हैं और यह प्रवृत्ति आगे बढ़ सकती है।
बाजार सुधार भी जरूरी हैं। कृषि उपज विपणन समितियों (APMC) में सुधार, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की स्पष्ट नीति और मूल्य-श्रृंखला (Value Chain) का सुदृढ़ीकरण किसानों को बेहतर दाम दिला सकता है। साथ ही, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की व्यवस्था को अधिक वैज्ञानिक और व्यावहारिक बनाने पर विमर्श चल रहा है। किसानों की संगठनात्मक क्षमता बढ़ाने के लिए किसान उत्पादक संगठन (FPOs) एक प्रभावी माध्यम बन सकते हैं।
भारत की कृषि अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य से भी प्रभावित होती है। WTO के Agreement on Agriculture के तहत भारत को सब्सिडी और निर्यात प्रोत्साहन संबंधी कई प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है। वैश्विक खाद्य मूल्यों में उतार-चढ़ाव, तेल कीमतों में वृद्धि और आपूर्ति-श्रृंखला के संकट भारतीय किसानों को प्रभावित करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में भारत को संतुलित व्यापार नीति अपनानी होगी। साथ ही, COP सम्मेलनों में भारत की जलवायु प्रतिबद्धताएँ कृषि में उत्सर्जन को घटाने और कार्बन-सिंक बढ़ाने की दिशा में अवसर भी देती हैं।
सामाजिक आयाम भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। ग्रामीण युवाओं का कृषि से मोहभंग हो रहा है और वे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। इससे कृषि श्रम की लागत बढ़ रही है। महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है, किंतु उन्हें प्रशिक्षण, तकनीक और ऋण की उपलब्धता में कई अड़चनें आती हैं। अनुसूचित जाति, जनजाति और अल्पसंख्यक किसानों की स्थिति अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील है। इसलिए कृषि नीतियों में समावेशिता और लैंगिक न्याय को प्राथमिकता देनी होगी।
कृषि के साथ-साथ ग्रामीण गैर-कृषि गतिविधियों को बढ़ावा देना भी आवश्यक है। इससे किसानों को अतिरिक्त आय स्रोत मिलेंगे और कृषि पर दबाव कम होगा। हस्तशिल्प, ग्रामीण पर्यटन, खाद्य प्रसंस्करण और सेवा क्षेत्र ग्रामीण रोजगार के नए अवसर प्रदान कर सकते हैं।
भविष्य की कृषि की दिशा स्पष्ट है—यह अधिक प्रौद्योगिकी-संपन्न, संसाधन-सक्षम, जलवायु-अनुकूल और बाजार-उन्मुख होगी। लेकिन यह तभी संभव होगा जब नीति-निर्माता, किसान, निजी क्षेत्र और नागरिक समाज एक साझा दृष्टिकोण पर काम करें। इसमें किसानों के हितों की रक्षा, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना होगा।
अंततः, भारतीय कृषि एक चौराहे पर खड़ी है। एक ओर पारंपरिक चुनौतियाँ हैं तो दूसरी ओर नवाचार और सुधार के अवसर हैं। यदि कृषि को केवल उत्पादन बढ़ाने का साधन न मानकर व्यापक ग्रामीण विकास और पर्यावरणीय स्थिरता के साथ जोड़ा जाए तो यह क्षेत्र देश को आत्मनिर्भर और वैश्विक कृषि शक्ति बना सकता है।
इस निबंध को तैयार करते समय अनेक महत्वपूर्ण स्रोतों का संदर्भ लिया गया है। इनमें कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार की आधिकारिक वेबसाइट (agricoop.nic.in); नीति आयोग की कृषि सुधार संबंधी रिपोर्टें; भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण के नवीनतम संस्करण; भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के प्रकाशन; अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खाद्य और कृषि संगठन (FAO) तथा UNFCCC की कृषि व जलवायु संबंधी रिपोर्टें; WTO की Agreement on Agriculture से जुड़ी सामग्री; और राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित समाचार पत्र, पत्रिकाएँ और शोध पत्र शामिल हैं, जैसे द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस, डाउन टू अर्थ आदि। इन सभी स्रोतों से यह स्पष्ट होता है कि कृषि क्षेत्र को एक समग्र, वैज्ञानिक और न्यायपूर्ण दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
इस प्रकार लगभग 2000 शब्दों के इस विश्लेषणात्मक निबंध में भारतीय कृषि की चुनौतियों, अवसरों, नीतियों और वैश्विक संदर्भ को समाहित किया गया है। यह UPSC जैसे प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए न केवल तथ्यात्मक जानकारी प्रदान करता है बल्कि विश्लेषणात्मक और आलोचनात्मक दृष्टिकोण भी विकसित करता है।
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