जलवायु संकट की ऐतिहासिक जड़ें और मुआवजे की अनिवार्यता
ब्राज़ील में नवंबर 2025 में होने वाला COP30 जलवायु शिखर सम्मेलन केवल एक वार्षिक सम्मेलन नहीं है; यह वैश्विक न्याय और जिम्मेदारी की परीक्षा है। सैकड़ों पर्यावरण और मानवाधिकार संगठनों ने इस शिखर सम्मेलन से पहले जो सामूहिक आह्वान किया है, वह ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है। उनका तर्क है कि जलवायु संकट महज़ वर्तमान नीतियों की विफलता का परिणाम नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें उपनिवेशवाद, गुलामी और संसाधन-शोषण जैसी ऐतिहासिक अन्याय की गहराइयों में छिपी हैं।
ऐतिहासिक अपराधों और जलवायु संकट का अंतर्संबंध
गुलामी और उपनिवेशवाद ने वैश्विक असमानताओं की नींव डाली। यूरोपीय औपनिवेशिक ताकतों ने दक्षिणी देशों के संसाधनों को लूटा, वनों को उजाड़ा, खनन व औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया और अपने आर्थिक व तकनीकी प्रभुत्व की इमारत खड़ी की। इसका परिणाम यह हुआ कि जिन देशों ने सबसे कम उत्सर्जन किया, वे आज जलवायु आपदाओं के सबसे अधिक दंश झेल रहे हैं—बाढ़, सूखा और समुद्र स्तर में वृद्धि इसकी मिसाल हैं।
इस ऐतिहासिक अन्याय का असर आज भी दो स्तरों पर दिखाई देता है—एक, पर्यावरणीय नुकसान; और दूसरा, उन देशों की सीमित क्षमता जो इन आपदाओं से उबर सकें। यही कारण है कि वैश्विक दक्षिण लगातार यह तर्क रखता रहा है कि जलवायु न्याय तभी संभव है जब ऐतिहासिक जिम्मेदारियों को स्वीकार किया जाए।
मुआवजा: नैतिकता से आगे, व्यावहारिक अनिवार्यता
जलवायु संकट की ऐतिहासिक जड़ों को देखते हुए, मुआवजा (रेपरेशन्स) कोई “सहायता” नहीं, बल्कि एक “हक़” है। वित्तीय मदद, तकनीकी सहयोग, क्षमता निर्माण और जलवायु अनुकूलन योजनाओं में प्राथमिकता देना इसका हिस्सा होना चाहिए। इससे न केवल पिछले अन्याय को स्वीकार किया जाएगा, बल्कि भविष्य में टिकाऊ और न्यायसंगत समाधान भी संभव होंगे।
छोटे द्वीपीय देश और अफ्रीका जैसे महाद्वीप आज समुद्र के बढ़ते स्तर, चरम मौसम की घटनाओं और खाद्य असुरक्षा के शिकार हैं, जबकि उनका उत्सर्जन योगदान नगण्य है। इसके उलट, औद्योगिक उत्तर के देश ऐतिहासिक और वर्तमान उत्सर्जन में अग्रणी हैं। COP30 इनके लिए एक कसौटी है कि वे अपनी जिम्मेदारी को केवल बयानों तक सीमित रखते हैं या ठोस कदम उठाते हैं।
निर्णय लेने में समावेशिता की अनिवार्यता
जलवायु नीति-निर्माण में सबसे अधिक प्रभावित समुदाय—स्वदेशी लोग, अल्पसंख्यक समूह और गरीब देश—अक्सर “पार्टिसिपेंट्स” नहीं, “पीड़ित” के रूप में देखे जाते हैं। यह दृष्टिकोण बदलना होगा। COP30 में इन समुदायों को केवल मंच पर बोलने का नहीं, बल्कि नीति तय करने का भी अधिकार मिलना चाहिए। यही ऐतिहासिक अन्याय को सही करने की दिशा में पहला कदम होगा।
ब्राज़ील और COP30: प्रतीकात्मक और वास्तविक अवसर
ब्राज़ील स्वयं उपनिवेशवाद और पर्यावरणीय शोषण का अनुभव कर चुका है। अमेज़न वर्षावन जैसे पारिस्थितिक क्षेत्रों की सुरक्षा और स्वदेशी अधिकारों की रक्षा के मुद्दे COP30 में प्रमुख एजेंडे पर होने चाहिए। यदि यह सम्मेलन इतिहास के बोझ को स्वीकार कर सके और न्यायपूर्ण समाधानों की नींव रख सके, तो यह केवल “एक और COP” नहीं रहेगा, बल्कि जलवायु राजनीति में ऐतिहासिक मोड़ बन जाएगा।
निष्कर्ष
जलवायु संकट पर्यावरण का ही नहीं, बल्कि असमानता और ऐतिहासिक अन्याय का भी सवाल है। COP30 विश्व नेताओं के लिए अवसर है कि वे नैतिक दायित्व को व्यावहारिक नीति में बदलें—मुआवजा सुनिश्चित करें, प्रभावित समुदायों को निर्णय लेने में भागीदार बनाएं और वैश्विक दक्षिण को उसके हक़ की तकनीकी व आर्थिक मदद दें। यदि यह सम्मेलन इस आह्वान को गंभीरता से लेता है तो यह आने वाली पीढ़ियों के लिए न्यायसंगत और टिकाऊ भविष्य की नींव रख सकता है।
Reuters के अंग्रेजी लेख पर आधारित
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