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Cracking UPSC Mains Through Current Affairs Analysis

करंट अफेयर्स में छिपे UPSC मेन्स के संभावित प्रश्न प्रस्तावना UPSC सिविल सेवा परीक्षा केवल तथ्यों का संग्रह नहीं है, बल्कि सोचने, समझने और विश्लेषण करने की क्षमता की परीक्षा है। प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) तथ्यों और अवधारणाओं पर केंद्रित होती है, लेकिन मुख्य परीक्षा (Mains) विश्लेषणात्मक क्षमता, उत्तर लेखन कौशल और समसामयिक घटनाओं की समझ को परखती है। यही कारण है कि  करंट अफेयर्स UPSC मेन्स की आत्मा माने जाते हैं। अक्सर देखा गया है कि UPSC सीधे समाचारों से प्रश्न नहीं पूछता, बल्कि घटनाओं के पीछे छिपे गहरे मुद्दों, नीतिगत पहलुओं और नैतिक दुविधाओं को प्रश्न में बदल देता है। उदाहरण के लिए, अगर अंतरराष्ट्रीय मंच पर जलवायु परिवर्तन की चर्चा हो रही है, तो UPSC प्रश्न पूछ सकता है —  “भारत की जलवायु नीति घरेलू प्राथमिकताओं और अंतरराष्ट्रीय दबावों के बीच किस प्रकार संतुलन स्थापित करती है?” यानी, हर करंट इवेंट UPSC मेन्स के लिए एक संभावित प्रश्न छुपाए बैठा है। इस लेख में हम देखेंगे कि हाल के करंट अफेयर्स किन-किन तरीकों से UPSC मेन्स के प्रश्न बन सकते हैं, और विद्यार्थी इन्हें कैसे अपनी तै...

Bridging the Justice Gap: Insights from the India Justice Report 2025

यहाँ India Justice Report 2025 के आधार पर एक विश्लेषणात्मक हिंदी लेख प्रस्तुत है, जिसे UPSC और समसामयिक अध्ययन के दृष्टिकोण से उपयोगी बनाया गया है:


न्याय की खाई को पाटने की ज़रूरत

प्रसंग:
इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 देश की विधिक सहायता व्यवस्था पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न प्रस्तुत करती है। रिपोर्ट के अनुसार, 2023–24 में केवल 15.5 लाख लोगों ने निःशुल्क विधिक सहायता प्राप्त की, जबकि देश की लगभग 80% आबादी इसके लिए पात्र थी। यह आंकड़ा महज़ प्रशासनिक अक्षमता नहीं, बल्कि न्याय की संरचनात्मक पहुँच में मौजूद गहरी असमानता को उजागर करता है।


संवैधानिक वचन और वास्तविकता के बीच अंतर

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 39(क) स्पष्ट करता है कि न्याय किसी व्यक्ति को आर्थिक या अन्य अक्षमता के कारण वंचित नहीं कर सकता। लेकिन न्याय की यह संवैधानिक अवधारणा जमीनी हकीकत में दूर की कौड़ी प्रतीत होती है।

राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) और राज्य स्तरीय संस्थाएं (SLSA) इस उद्देश्य के लिए गठित की गई थीं, परंतु यह आंकड़े दर्शाते हैं कि न तो इन संस्थाओं की पहुँच व्यापक हुई है, न ही गुणवत्ता भरोसेमंद रही है। अधिकांश जरूरतमंद लोगों को यह तक ज्ञात नहीं कि वे विधिक सहायता पाने के पात्र हैं।


बाधाओं की बहुआयामी प्रकृति

विधिक सहायता से वंचित रहने के पीछे कई कारण हैं:

  • जागरूकता की कमी: वंचित वर्ग, जैसे महिलाएं, अनुसूचित जाति/जनजाति, गरीब और ग्रामीण समुदायों में विधिक अधिकारों की जानकारी न्यूनतम है।
  • बजट का कम उपयोग: कई राज्यों ने NALSA को मिले बजट का 50% से भी कम खर्च किया, जो संस्थागत निष्क्रियता को दर्शाता है।
  • अप्रशिक्षित या असंवेदनशील वकील: कई मामलों में विधिक सहायता वकील न तो समय पर उपस्थित होते हैं, न ही आवश्यक तैयारी के साथ। यह “न्याय” को केवल औपचारिकता बना देता है।
  • भाषाई और तकनीकी दूरी: ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में भाषा, इंटरनेट और डिजिटल साक्षरता की बाधाएं हैं।

सुधार की संभावनाएँ और नीतिगत दिशा

India Justice Report न केवल आलोचना करती है, बल्कि सुधार की संभावनाओं को भी इंगित करती है:

  • सामुदायिक जागरूकता: विधिक सहायता को गाँव-गाँव तक पहुँचाने के लिए स्थानीय स्तर पर परामर्श शिविर, मोबाइल विधिक सेवा वाहन, और विद्यालयों में विधिक शिक्षा का प्रसार किया जाना चाहिए।
  • डिजिटल विस्तार: स्थानीय भाषाओं में AI आधारित विधिक चैटबॉट, मोबाइल एप्स, और टोल-फ्री हेल्पलाइन से डिजिटल अंतर कम किया जा सकता है।
  • गुणवत्ता मूल्यांकन: विधिक सेवा की स्वतंत्र ऑडिट प्रणाली से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि सेवाएं केवल "उपलब्ध" नहीं, बल्कि "प्रभावी" भी हैं।
  • पैरा लीगल वॉलंटियर्स: स्थानीय समुदायों से प्रशिक्षित स्वयंसेवकों की भागीदारी से सेवा को मानवीय और संवेदनशील बनाया जा सकता है।

निष्कर्ष: एक चेतावनी और अवसर

न्याय तक समान पहुँच कोई वैकल्पिक सुविधा नहीं, बल्कि एक संवैधानिक उत्तरदायित्व है। यदि भारत “कानून के समक्ष समानता” और “न्याय के सार्वभौमिक अधिकार” जैसे आदर्शों पर खरा उतरना चाहता है, तो विधिक सहायता की पुनर्रचना समय की मांग है।

India Justice Report 2025 को केवल आंकड़ों की रिपोर्ट नहीं, बल्कि एक चेतावनी के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। यह अवसर है उस खाई को भरने का, जो आज भी न्याय को कुछ वर्गों तक सीमित कर देती है। जैसा कि न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर ने कहा था —
"विधिक सहायता कोई दया नहीं, बल्कि राज्य का कर्तव्य है।"
अब इस कर्तव्य को केवल कागज़ों में नहीं, ज़मीनी हकीकत में निभाने का समय है।


लेखक: अरविंद कुमार सिंह
स्रोत: India Justice Report 2025, NALSA Annual Data, नीति आयोग रिपोर्ट्स,संविधान अनुच्छेद 39A.



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