Right to Live-In Relationships for Young Adults: A Critical Analysis of the Rajasthan High Court Verdict
विवाह योग्य आयु से कम दो वयस्कों के लाइव-इन संबंध का अधिकार: राजस्थान हाईकोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय का आलोचनात्मक विश्लेषण
सार
राजस्थान हाईकोर्ट ने 5 दिसंबर 2025 को एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए स्पष्ट किया कि दो सहमति देने वाले वयस्क, भले ही वे विवाह योग्य आयु (पुरुष—21 वर्ष, महिला—18 वर्ष) तक न पहुँचे हों, फिर भी लाइव-इन संबंध में रहने का पूर्ण संवैधानिक अधिकार रखते हैं। न्यायमूर्ति अनूप धंड ने इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता, गरिमा और निजता—जो अनुच्छेद 19(1)(a), 21 और 21-A में निहित हैं—का अभिन्न हिस्सा बताया। कोटा के 18 वर्षीय युवती और 19 वर्षीय युवक द्वारा सुरक्षा माँगते हुए दायर याचिका पर दिया गया यह निर्णय न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुदृढ़ करता है बल्कि भारत के सामाजिक-कानूनी ढाँचे में गैर-पारंपरिक संबंधों की मान्यता को भी एक नया आयाम देता है।
भूमिका
भारत का वैवाहिक कानून लंबे समय तक विवाह संस्था को ही व्यक्तिगत संबंधों की वैधता का आधार मानता आया है। ऐसे माहौल में लाइव-इन संबंध, विशेषकर युवाओं के बीच, अभी भी परिवार और समाज की कठोर निगाहों से घिरे रहते हैं। सामाजिक प्रतिरोध, नैतिकता और “सम्मान” की अवधारणा इन संबंधों को खतरे में डालती है।
ऐसे परिदृश्य में राजस्थान हाईकोर्ट का यह निर्णय अत्यंत महत्वपूर्ण है। अदालत ने यह दो टूक कहा कि—
जब कोई व्यक्ति भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 के अनुसार 18 वर्ष की आयु पूर्ण कर लेता है, तब उसके व्यक्तिगत जीवन संबंधी निर्णय पूर्णतः उसके अपने होते हैं। विवाह योग्य आयु उसके चयन की स्वतंत्रता को सीमित नहीं कर सकती।
यह निर्णय भारतीय न्यायशास्त्र को और अधिक उदार, आधुनिक और व्यक्ति-केंद्रित बनाता है।
मामले की पृष्ठभूमि
कोटा जिले के रूढ़िवादी सामाजिक माहौल में रहने वाले एक युवक-युवती ने परस्पर सहमति से साथ रहने का निर्णय लिया। परिवार ने इसे “परंपरा-विरोधी” मानते हुए विरोध शुरू किया और लड़की के परिवार ने युवक पर अपहरण, प्रलोभन और जबरन ले जाने जैसे आरोप (धारा 363, 366 IPC) लगाए।
लड़की और लड़के ने भय व असुरक्षा की स्थिति में हाईकोर्ट में याचिका दायर की। राज्य पक्ष ने तर्क दिया कि यह संबंध बाल-विवाह निषेध अधिनियम, 2006 (PCMA) की भावना के विरुद्ध है।
न्यायमूर्ति धंड ने इन दलीलों को अस्वीकार करते हुए कहा कि—
- यह विवाह नहीं है, बल्कि सहमति से बना एक निजी संबंध है।
- PCMA का उद्देश्य शोषणकारी बाल-विवाह रोकना है, न कि वयस्कों के निजी सहवास को नियंत्रित करना।
अदालत ने दंपति की सुरक्षा के आदेश दिए, पुलिस को किसी भी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप से रोकने को कहा, तथा स्वैच्छिक सहमति सुनिश्चित करने हेतु काउंसलिंग का निर्देश दिया।
कानूनी विश्लेषण
1. संवैधानिक आधार
निर्णय का मूल आधार अनुच्छेद 21 है—जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता, गरिमा, निजता और जीवन के अधिकार को संरक्षित करता है। पुट्टस्वामी (2017) के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि व्यक्तिगत संबंधों की स्वतंत्रता संविधान द्वारा संरक्षित है।
अदालत ने स्पष्ट किया—
- साथी चुनना
- उसके साथ रहना
- अपनी निजी अभिरुचि के अनुसार जीवन जीना
ये सभी अधिकार “मौलिक” हैं और सामाजिक नैतिकता के आधार पर छीने नहीं जा सकते।
अनुच्छेद 19(1)(a) को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विस्तृत अर्थ में पढ़ते हुए, अदालत ने निजी जीवन संबंधी विकल्पों को भी उसकी परिधि में माना।
2. विधिक व्याख्या और पूर्ववर्ती निर्णय
अदालत ने अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णयों का हवाला दिया—
- S. Khushboo (2010) — पूर्व-सहजीवन (premarital) और लाइव-इन संबंधों को अपराध नहीं माना जा सकता।
- Indra Sarma (2013) — लाइव-इन संबंधों को घरेलू हिंसा कानून में अर्ध-वैवाहिक दर्जा मिला।
- Puttaswamy (2017) — निजता और स्वायत्तता व्यक्तिगत जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं।
PCMA तथा POCSO की व्याख्या करते हुए अदालत ने कहा कि:
- 18 वर्ष से ऊपर व्यक्ति वयस्क है।
- सहमति से सहवास अपराध नहीं है।
- विवाह योग्य आयु और वयस्कता अलग-अलग अवधारणाएँ हैं।
3. निर्णय की खूबियाँ और कमियाँ
खूबियाँ
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता को स्पष्ट और दृढ़ सुरक्षा देता है
- सामाजिक नैतिकता को कानून के ऊपर स्थान नहीं देता
- पुलिस को संरक्षण की जिम्मेदारी सौंपता है
- परस्पर सहमति की पुष्टि हेतु काउंसलिंग—एक संतुलित कदम
कमियाँ
- ग्रामीण राजस्थान जैसे क्षेत्रों में “सम्मान हत्याओं” और खाप दबाव से वास्तविक सुरक्षा अभी भी कठिन
- आर्थिक रूप से निर्भर युवतियों की सुरक्षा और अधिकारों का विस्तार नहीं किया गया
- परिवारों द्वारा दायर fabricated (झूठे) मामलों पर दिशानिर्देशों की कमी
- PCMA और युवा सहजीवन के बीच स्पष्ट कानूनी अपवाद बनाने की आवश्यकता पर मौन
सामाजिक और नीतिगत प्रभाव
यह निर्णय भारतीय समाज के उस ढांचे को चुनौती देता है जहां विवाह ही संबंधों की सर्वमान्य इकाई माना जाता है।
1. युवाओं के अधिकारों पर प्रभाव
- अपनी पसंद से संबंध चुनने का आत्मविश्वास
- अंतरजातीय/अंतरधर्मीय संबंधों को अतिरिक्त सुरक्षा
- युवाओं पर परिवार द्वारा थोपे गए विवाह के दबाव में कमी
2. कानून-व्यवस्था पर प्रभाव
पुलिस प्रायः परिवार के दबाव में युवक पर अपहरण/बलात्कार के आरोप आरोपित कर देती है।
अब अदालत के इस निर्णय के बाद—
- “सहमति” केंद्र में आएगी
- युवतियों और युवकों को संरक्षण मिलेगा
- मनमाने FIR का दुरुपयोग घटेगा
3. सामाजिक चिंताएँ
- रूढ़िवादी समुदायों में प्रतिरोध
- “परिवार के सम्मान” की अवधारणा से उत्पन्न हिंसा
- शहरी-ग्रामीण सामाजिक विभाजन में और गहराई
4. नीति सुझाव
- PCMA में संशोधन कर सहमति देने वाले वयस्कों हेतु अपवाद निर्मित करना
- विद्यालयों में “व्यक्तिगत अधिकार और स्वायत्तता” पर पाठ्यक्रम तैयार करना
- लाइव-इन याचिकाओं के लिए एकरूप SOP तैयार करना
- सुरक्षित आश्रय-गृहों (Safe Houses) की संख्या बढ़ाना
निष्कर्ष
राजस्थान हाईकोर्ट का यह निर्णय भारतीय संवैधानिकता को एक नई व्याख्या देता है—जहाँ स्वतंत्रता, गरिमा और निजता को विवाह जैसी पारंपरिक संस्थाओं के अधीन नहीं रखा जा सकता। यह स्पष्ट करता है कि—
वयस्कता = स्वायत्तता।
विवाह योग्य आयु ≠ व्यक्तिगत निर्णय की सीमा।
यह सिर्फ एक युवक-युवती के अधिकारों की रक्षा नहीं, बल्कि भारत में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की दिशा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। निर्णय समाज को चुनौती देता है कि वह “नैतिकता” के बजाय “गरिमा” और “स्वतंत्रता” को प्राथमिकता दे।
इस निर्णय की वास्तविक सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि—
- पुलिस कितना संवेदनशील बनती है
- समाज कितना उदार होता है
- और विधायिका कितनी जल्दी कानूनों में आवश्यक स्पष्टता लाती है
यह निर्णय भारतीय विधि-व्यवस्था को आधुनिकता और संवैधानिक मूल्यों के बीच सेतु बनाता है—एक ऐसा सेतु, जिसकी आवश्यकता आज के युवाओं के स्वतंत्र जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है।
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