शाह बानो केस: लिंग न्याय, धार्मिक स्वायत्तता और भारतीय धर्मनिरपेक्षता के द्वंद्व का एक अध्ययन
परिचय
1985 का शाह बानो केस भारतीय संवैधानिक इतिहास की उन दुर्लभ घटनाओं में से है, जिसने धर्मनिरपेक्षता, न्यायिक सक्रियता और लिंग समानता के बीच गहन विमर्श को जन्म दिया। एक 62 वर्षीय मुस्लिम महिला का भरण-पोषण का अधिकार धीरे-धीरे एक राष्ट्रीय राजनीतिक बहस में बदल गया, जिसने भारतीय लोकतंत्र के चरित्र को चुनौती दी और समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code - UCC) की बहस को पुनर्जीवित कर दिया।
हाल ही में आई फिल्म हक (2025) ने इस ऐतिहासिक केस को मानवीय दृष्टिकोण से पुनः प्रस्तुत किया है—जहां एक साधारण स्त्री की न्याय के लिए लड़ाई, भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे की सीमाओं और संभावनाओं दोनों को उजागर करती है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
शाह बानो बेगम का जन्म मध्य प्रदेश के इंदौर में हुआ था। उन्होंने 1932 में मोहम्मद अहमद खान नामक वकील से विवाह किया और पाँच बच्चों की माँ बनीं। चार दशकों तक चले वैवाहिक जीवन के बाद, 1975 में उनके पति ने दूसरी शादी कर ली और शाह बानो को घर से निकाल दिया।
शाह बानो को उनके पति द्वारा मात्र 200 रुपये का भरण-पोषण दिया जा रहा था, जो कुछ वर्षों बाद बंद कर दिया गया। तब उन्होंने 1978 में दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के अंतर्गत इंदौर न्यायालय में याचिका दायर की—यह वह धारा है जो किसी भी धर्म से परे, ऐसी स्त्री को भरण-पोषण का अधिकार देती है जो स्वयं निर्वाह में असमर्थ हो।
निचली अदालत ने शाह बानो के पक्ष में निर्णय दिया और 25 रुपये प्रतिमाह भरण-पोषण का आदेश दिया। अपील में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह राशि बढ़ाकर 179.20 रुपये कर दी। किंतु मोहम्मद अहमद खान ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, यह कहते हुए कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार तलाक के बाद केवल ‘इद्दत अवधि’ (लगभग तीन माह) तक ही भरण-पोषण देना आवश्यक है, और वे पहले ही महर की राशि देकर अपना दायित्व पूरा कर चुके हैं।
यह मामला अंततः पाँच न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष पहुँचा—मुख्य न्यायाधीश वाई. वी. चंद्रचूड़, डी. ए. देसाई, ओ. चिन्नप्पा रेड्डी, ई. एस. वेंकटरामैया और रंगनाथ मिश्रा की अध्यक्षता में।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय: धर्मनिरपेक्ष न्याय का विस्तार
23 अप्रैल 1985 को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। कोर्ट ने कहा कि धारा 125 सीआरपीसी सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होती है, चाहे वे किसी भी धर्म के अनुयायी हों।
मुख्य न्यायाधीश वाई. वी. चंद्रचूड़ ने अपने निर्णय में लिखा कि इस्लाम की मूल भावना में भी स्त्री के प्रति न्याय और करुणा का भाव निहित है, अतः तलाकशुदा महिला को केवल इद्दत अवधि तक सीमित सहायता नहीं दी जा सकती। उन्होंने यह भी कहा कि "धर्मनिरपेक्ष विधि का उद्देश्य किसी धर्म में हस्तक्षेप नहीं, बल्कि समानता सुनिश्चित करना है।"
इस फैसले में न्यायालय ने अनुच्छेद 44 (समान नागरिक संहिता के निर्देश सिद्धांत) का हवाला देते हुए यह संकेत दिया कि भारतीय राज्य को ऐसे कानूनों की ओर बढ़ना चाहिए जो सभी नागरिकों को समान नागरिक अधिकार प्रदान करें।
इस निर्णय ने भारतीय न्यायपालिका को “सामाजिक सुधारक” की भूमिका में स्थापित कर दिया — एक ऐसा निर्णय जिसने महिलाओं के अधिकारों को संवैधानिक समानता के स्तर पर रखा।
राजनीतिक प्रतिक्रिया और विवाद
शाह बानो का निर्णय अदालत में जीता गया मामला था, लेकिन सड़क पर यह पराजित हुआ।
फैसले के तुरंत बाद मुस्लिम संगठनों और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए। उनका आरोप था कि यह फैसला इस्लामी शरीयत में न्यायपालिका द्वारा अनुचित हस्तक्षेप है।
राजीव गांधी सरकार, जो शुरू में इस फैसले का समर्थन कर रही थी, धार्मिक और राजनीतिक दबाव के आगे झुक गई। 1986 में उसने “मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम” पारित कर दिया, जिसके तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिला को भरण-पोषण केवल इद्दत अवधि तक ही सीमित कर दिया गया।
इस विधेयक ने शाह बानो केस के सार को निष्प्रभावी कर दिया। विपक्षी दलों ने इसे “मुस्लिम तुष्टिकरण” कहा, वहीं महिलाओं के संगठनों ने इसे लिंग भेदभावपूर्ण करार दिया।
प्रख्यात विचारक मकरंद परांजपे ने इसे “कांग्रेस की छद्म धर्मनिरपेक्षता” कहा—जहां धार्मिक स्वायत्तता की आड़ में महिला अधिकारों की बलि दी गई।
राजनीतिक स्तर पर यह निर्णय भारतीय राजनीति के ध्रुवीकरण का एक बड़ा मोड़ बना। इसी कालखंड में बाबरी मस्जिद आंदोलन ने भी जोर पकड़ा।
फ्लोरा एडिसन केशिया जैसी विद्वानों ने इसे “लिंग न्याय बनाम अल्पसंख्यक अधिकारों” का द्वंद्व बताया, जिसमें राज्य ने अल्पसंख्यक स्वायत्तता को प्राथमिकता दी, किंतु इससे महिलाओं की संवैधानिक सुरक्षा कमजोर हुई।
अकादमिक विश्लेषण: लिंग, धर्म और न्याय का त्रिकोण
शाह बानो केस भारतीय संवैधानिकता में उस बिंदु का प्रतिनिधित्व करता है जहां स्त्री अधिकार, धार्मिक पहचान और राज्य शक्ति तीनों परस्पर टकराते हैं।
फ्लोरा एडिसन केशिया (1991) ने अपनी थीसिस The Shah Bano Controversy: Gender versus Minority Rights in India में कहा कि यह मामला भारतीय धर्मनिरपेक्षता की सीमाओं को उजागर करता है, जहाँ राज्य ने अल्पसंख्यक धार्मिक स्वायत्तता की रक्षा के नाम पर महिलाओं के समान अधिकारों को बलिदान कर दिया।
स्त्रीवादी विश्लेषण इस केस को ‘राजनीतिक पुरुष सत्ता’ के औजार के रूप में देखते हैं, जहाँ महिलाओं की वास्तविक आवाज़ सत्ता की सौदेबाजी में गुम हो गई।
लॉ ब्लेंड (2025) जैसे समकालीन नारीवादी अध्ययन इस निर्णय को “राज्य, धर्म और लिंग के अंतर्संबंधों का अध्ययन” मानते हैं—जहाँ न्यायपालिका ने नैतिकता और समानता को सर्वोपरि रखा, परंतु विधायिका ने उसे राजनीतिक यथार्थ से दबा दिया।
डैनियल लतीफी बनाम भारत संघ (2001) जैसे बाद के फैसलों ने 1986 के अधिनियम की सीमित व्याख्या कर शाह बानो की भावना को पुनर्जीवित किया—यह कहते हुए कि भरण-पोषण केवल इद्दत तक सीमित नहीं, बल्कि आजीविका सुनिश्चित करने तक है। इस प्रकार, न्यायपालिका ने परोक्ष रूप से शाह बानो को पुनः न्याय दिलाया।
फिल्म ‘हक’ (2025): न्याय की विरासत और सांस्कृतिक पुनर्पाठ
निर्देशक सुपर्ण एस. वर्मा की फिल्म हक शाह बानो की कहानी का पुनर्निर्माण है। यामी गौतम धर इसमें “शाजिया बानो” की भूमिका निभाती हैं—एक ऐसी महिला जो अपने पति (इमरान हाशमी) से तलाक के बाद न्याय की मांग करती है। फिल्म संवेदनशीलता से 1978 से 1985 तक की उस यात्रा को दिखाती है, जो एक न्यायिक लड़ाई से आगे जाकर सामाजिक आंदोलन बन जाती है।
फिल्म में भावनात्मक तीव्रता के साथ-साथ संवैधानिक प्रश्नों की गहराई भी दिखाई देती है—क्या व्यक्तिगत कानूनों को समान नागरिक संहिता के अनुरूप बनाया जाना चाहिए? क्या धर्म और न्याय साथ चल सकते हैं?
फिल्म का अंतिम दृश्य, जिसमें ट्रिपल तलाक पर 2019 के प्रतिबंध का उल्लेख किया गया है, यह संकेत देता है कि शाह बानो की लड़ाई व्यर्थ नहीं गई। उनका संघर्ष आधुनिक भारत में लिंग न्याय के पुनर्निर्माण का आधार बन गया।
शुभ्रा गुप्ता की समीक्षा में हक को “एक स्पष्ट दृष्टि वाली संवेदनशील कथा” कहा गया है—जो भावुकता से परे जाकर भारतीय समाज के अंतर्विरोधों को उजागर करती है।
समकालीन प्रासंगिकता और निष्कर्ष
शाह बानो केस केवल एक अदालत का निर्णय नहीं था; यह भारतीय समाज के आत्ममंथन की प्रक्रिया थी। इसने यह प्रश्न उठाया कि क्या धर्मनिरपेक्षता का अर्थ केवल सभी धर्मों को समान सम्मान देना है, या सभी नागरिकों को समान अधिकार देना भी उतना ही आवश्यक है?
आज जब समान नागरिक संहिता (UCC) पर पुनः बहस हो रही है, शाह बानो केस उसकी बौद्धिक और नैतिक नींव बन चुका है। ट्रिपल तलाक के उन्मूलन (2019) और महिलाओं के संपत्ति अधिकारों के विस्तार जैसे कदम उसी संवैधानिक आदर्श की निरंतरता हैं।
शाह बानो का संघर्ष इस बात का प्रमाण है कि एक अकेली महिला भी संवैधानिक परिवर्तन का सूत्रपात कर सकती है।
हालाँकि 1986 का अधिनियम उस प्रगतिशील निर्णय पर अस्थायी परदा डाल गया, पर न्याय की भावना अंततः विजयी हुई।
यह केस आज भी हमें यह सिखाता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता और समानता का संतुलन केवल कानून से नहीं, बल्कि समाज की नैतिक चेतना से सुनिश्चित होता है।
और हक जैसी फिल्में हमें याद दिलाती हैं कि इतिहास में सबसे बड़ी क्रांतियाँ अक्सर सबसे साधारण आवाज़ों से शुरू होती हैं।
निष्कर्ष वाक्य:
“शाह बानो का संघर्ष केवल न्याय के लिए नहीं था, बल्कि उस भारत के लिए था, जहाँ किसी भी स्त्री को धर्म, जाति या पितृसत्ता के नाम पर न्याय से वंचित न किया जाए।”
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