एससी/एसटी आरक्षण में ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा : सामाजिक न्याय की नई चुनौती
(मौलिक, प्रवाहपूर्ण एवं विश्लेषणात्मक लेख)
प्रस्तावना
भारतीय संविधान सामाजिक और शैक्षिक रूप से वंचित समुदायों को समान अवसर सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण को एक सुधारात्मक उपाय (affirmative action) के रूप में मान्यता देता है। अनुच्छेद 15(4), 16(4) और 335 के तहत अनुसूचित जाति (SC) एवं अनुसूचित जनजाति (ST) समुदायों को शिक्षा, नौकरियों और पदोन्नति में आरक्षण प्रदान किया गया है। परंतु समय के साथ यह प्रश्न उभर कर सामने आया है कि क्या इन समुदायों के भीतर भी एक ऐसा आर्थिक-सामाजिक रूप से उन्नत वर्ग विकसित हो चुका है, जो आरक्षण के वास्तविक उद्देश्य से परे है और जिसके कारण अत्यंत वंचित उप-जातियाँ पीछे रह जा रही हैं?
नवंबर 2025 में मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गावई—जो स्वयं एक अनुसूचित जाति समुदाय से आते हैं—ने खुलकर कहा कि एससी/एसटी आरक्षण में भी ‘क्रीमी लेयर’ को बाहर करना चाहिए ताकि लाभ वास्तविक रूप से वंचित वर्गों तक पहुँच सके। यह टिप्पणी उस बड़े संवैधानिक विमर्श को नई दिशा देती है, जिसकी शुरुआत सुप्रीम कोर्ट ने 2024 के उप-वर्गीकरण फैसले से की थी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : न्यायिक व संवैधानिक विकास
भारत में क्रीमी लेयर का सिद्धांत पहली बार इंद्रा साहनी केस (1992) में ओबीसी आरक्षण के संदर्भ में सामने आया, जहाँ यह माना गया कि आरक्षण का लाभ समाज के सबसे पिछड़े तबकों को मिलना चाहिए, न कि आर्थिक रूप से मजबूत समूहों को।
इसके बाद न्यायपालिका ने कई बार इस सिद्धांत पर विचार किया:
- ई.वी. चिन्नैया (2004) — एससी/एसटी के भीतर उप-वर्गीकरण को असंवैधानिक माना गया।
- जर्नैल सिंह (2018) — सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिया कि एससी/एसटी में भी क्रीमी लेयर लागू करने की संभावनाओं पर विचार होना चाहिए।
- दावणगेरे उप-वर्गीकरण केस (2024) — 7-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने उप-वर्गीकरण को वैध ठहराया और कहा कि राज्यों को सबसे वंचित उप-जातियों की पहचान का अधिकार है।
- नवंबर 2025 में CJI गावई की टिप्पणी — यह कहा कि यदि एससी/एसटी के भीतर सक्षम वर्ग लाभ लेता रहा तो वास्तविक लक्ष्य—सबसे पिछड़े को अधिकार देना—अधूरा रह जाएगा।
क्रीमी लेयर लागू करने के पक्ष में तर्क
1. समानता का सिद्धांत (अनुच्छेद 14)
जब एक ही समुदाय के अंदर कुछ परिवार पीढ़ियों से सरकारी नौकरियों और सुविधाओं का लाभ लेते हैं, तो अवसरों का लोकतांत्रिक वितरण बाधित होता है।
2. सामाजिक गतिशीलता के प्रमाण
स्वतंत्रता के 75 वर्षों में अनेक एससी/एसटी परिवार आर्थिक रूप से सक्षम, शिक्षित और व्यवस्थित रूप से उन्नत हुए हैं। कई परिवारों में दो-दो पीढ़ियाँ प्रशासनिक सेवा, चिकित्सा, शिक्षा और उद्योगों में स्थापित हो चुकी हैं।
3. डेटा-समर्थित असमानताएँ
- केंद्रीय सेवाओं में 70% से अधिक एससी/एसटी अधिकारी उन्हीं परिवारों से आते हैं जिनके माता-पिता पहले ही सरकारी सेवा में थे।
- कुछ उप-जातियाँ (जैसे महाराष्ट्र में महार, दक्षिण में माला-परयार) बार-बार आरक्षण का सबसे अधिक लाभ लेती रही हैं।
- दूसरी ओर उत्तर भारत की चमार, वाल्मीकि, मूसहर जैसी उप-जातियाँ अब भी अत्यंत वंचित हैं।
4. डॉ. आंबेडकर का नैतिक दृष्टिकोण
आंबेडकर ने आरक्षण को मूल रूप से एक अस्थायी उपाय बताया था जिसका उद्देश्य केवल अत्यंत वंचितों को आगे लाना था, न कि किसी वर्ग को स्थायी विशेषाधिकार देना।
क्रीमी लेयर के विरोध में तर्क
1. जाति आधारित भेदभाव का निरंतर अस्तित्व
आर्थिक उन्नति के बावजूद जातिगत अपमान, सामाजिक बहिष्करण और भेदभाव के उदाहरण निरंतर सामने आते हैं। एक दलित आईएएस अधिकारी भी अपने गांव में सामाजिक अपमान से मुक्त नहीं है — यह दर्शाता है कि जाति आधारित वंचना आय पर निर्भर नहीं है।
2. आर्थिक मानदंड की सीमाएँ
सामाजिक पिछड़ापन केवल आय से तय नहीं होता। कई सक्षम दिखने वाले परिवार सामाजिक पूँजी, नेटवर्क और सुरक्षा के अभाव में फिर भी कमजोर स्थिति में रहते हैं।
3. संवैधानिक व्याख्या
अनुच्छेद 16(4) में “पिछड़े वर्ग” का अर्थ केवल आर्थिक पिछड़ापन नहीं बल्कि सामाजिक–शैक्षिक पिछड़ापन है। इसलिए केवल आय के आधार पर किसी को आरक्षण से बाहर करना संवैधानिक रूप से जटिल प्रश्न है।
4. राजनीतिक व सामाजिक प्रतिक्रिया की आशंका
तमिलनाडु, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में इस प्रस्ताव के खिलाफ व्यापक विरोध है। कई समुदाय इसे अपने अधिकारों में कटौती के रूप में देखते हैं।
वर्तमान स्थिति (नवंबर 2025)
- केंद्र सरकार ने अभी तक कोई आधिकारिक आय सीमा तय नहीं की है।
- सुप्रीम कोर्ट राज्यों से उप-जाति आधारित डेटा और सामाजिक सूचकांक का विस्तृत विवरण मांग चुका है।
- कई विशेषज्ञों का सुझाव है कि ओबीसी (8 लाख वार्षिक आय) की तुलना में एससी/एसटी के लिए लगभग 12–15 लाख रुपये वार्षिक आय सीमा अधिक उपयुक्त हो सकती है।
यह बहस अब नीति निर्माण के निर्णायक चरण में है।
आगे का रास्ता : संवैधानिक और व्यावहारिक समाधान
1. डेटा आधारित उप-वर्गीकरण
तमिलनाडु के “अरुणथथियार कोटा” या तेलंगाना के “मादिगा–माला वर्गीकरण” की तर्ज पर सबसे वंचित उप-समुदायों की पहचान कर लक्षित लाभ देना आवश्यक है।
2. सामाजिक + आर्थिक मानदंड का संयुक्त मॉडल
सामाजिक उत्पीड़न, ऐतिहासिक वंचना, पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा स्तर और आय — इन सभी को मिलाकर बहु-आयामी वंचना सूचकांक तैयार किया जा सकता है।
3. शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता
नौकरी आरक्षण से पहले शिक्षा में अवसर सुनिश्चित हों — छात्रवृत्ति, विशेष आवासीय विद्यालय, उच्च शिक्षा में सीटें — इससे आरक्षण की गुणवत्ता और प्रभाव दोनों बढ़ेंगे।
4. समयबद्ध समीक्षा तंत्र
डॉ. आंबेडकर की इच्छा के अनुरूप, हर 10 वर्ष में आरक्षण नीति की पुनरीक्षा अनिवार्य होनी चाहिए, ताकि बदलते सामाजिक-आर्थिक समीकरणों के अनुसार नीतियाँ अद्यतन रह सकें।
निष्कर्ष
एससी/एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू करने का विचार भारतीय सामाजिक न्याय की यात्रा का एक नया चरण है। यह न तो आरक्षण की समाप्ति है और न ही किसी वर्ग को वंचित करने का प्रयास; बल्कि यह कोशिश है कि संविधान द्वारा प्रदत्त अवसर वास्तविक रूप से उन तक पहुँचें जिन्होंने अभी तक विकास का स्वाद नहीं चखा।
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गावई की टिप्पणी यह याद दिलाती है कि आरक्षण का उद्देश्य केवल प्रतिनिधित्व बढ़ाना नहीं, बल्कि जातिगत दमन और ऐतिहासिक अन्याय को समाप्त करना है। यदि सक्षम और समृद्ध समूह लगातार लाभ लेता रहेगा तो अत्यंत कमजोर उप-जातियाँ और पीछे धकेली जाएँगी — यही असली सामाजिक अन्याय होगा।
इसलिए, वैज्ञानिक डेटा, पारदर्शी मानदंड और संवैधानिक मूल्यों के आधार पर क्रीमी लेयर का विवेकपूर्ण उपयोग वास्तव में समानता व न्याय के आदर्शों को मजबूत ही करेगा।
उक्त टॉपिक पर पूर्व (23दिसंबर 2019) में प्रकाशित मेरा यह लेख

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