Return of the G-2 Power Axis: How the U.S.–China Rapprochement Could Marginalize India Geopolitically
जी–2 द्वंद्वाधिकार की वापसी: अमेरिका–चीन निकटता भारत को भू–राजनीतिक रूप से हाशिए पर धकेल सकती है
परिचय
विश्व राजनीति में कभी–कभी इतिहास स्वयं को दोहराता है, बस परिस्थितियाँ और चेहरे बदल जाते हैं। अक्टूबर 2025 में दक्षिण कोरिया के बुसान में आयोजित एशिया–प्रशांत आर्थिक सहयोग (APEC) शिखर सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अप्रत्याशित ‘सद्भावनापूर्ण’ बैठक ने उसी ऐतिहासिक पुनरावृत्ति का संकेत दिया।
ट्रम्प द्वारा चीन को “कार्यात्मक समान” (Functional Equal) बताना केवल शब्दों का चयन नहीं था—यह वैश्विक शक्ति–संतुलन में एक संरचनात्मक मोड़ था। एक दशक तक चले शीत–संघर्ष जैसे अमेरिकी–चीनी तनावों के बाद, इस “जी–2” (G–2) अवधारणा की वापसी ने वैश्विक भू–राजनीति में नई बहस छेड़ दी है।
यह प्रश्न अब और अधिक प्रासंगिक हो गया है—क्या यह द्विपक्षीय निकटता विश्व में शक्ति–वितरण को पुनः दो ध्रुवों में बाँट देगी? और यदि ऐसा होता है, तो भारत जैसी ‘मध्यम शक्ति’ (Middle Power) के लिए इसका अर्थ क्या होगा?
जी–2 की अवधारणा: एक संक्षिप्त पृष्ठभूमि
“जी–2” का विचार नया नहीं है। इसकी जड़ें 2008–09 के वैश्विक वित्तीय संकट में हैं, जब अमेरिकी नीति–निर्माताओं और कुछ चीनी रणनीतिक विचारकों ने यह प्रस्ताव रखा कि विश्व–व्यवस्था की स्थिरता के लिए अमेरिका और चीन को “साझा प्रबंधन” (Co-Management) करना चाहिए।
प्रख्यात चीनी कूटनीतिज्ञ ज़ूमिंग जियाबाओ ने इसे “सह–नेतृत्व” की अवधारणा कहा था, जहाँ दोनों राष्ट्र वैश्विक अर्थव्यवस्था, जलवायु नीति और सुरक्षा ढांचे पर साझा जिम्मेदारी निभाएँ।
परंतु उस समय इस विचार को अमेरिकी विश्लेषकों ने ‘अवास्तविक और खतरनाक’ करार दिया। अमेरिकी विदेश नीति प्रणेता हेनरी किसिंजर ने चेतावनी दी थी कि “शक्ति–साझेदारी तभी टिकती है जब परस्पर भरोसा और समानता की स्वीकृति हो; अन्यथा यह प्रतिस्पर्धा को जन्म देती है।”
अब 2025 में, ट्रम्प का यह कदम इसी भूतपूर्व विचार का पुनर्जीवन है—बस इस बार पृष्ठभूमि अलग है: चीन आर्थिक रूप से पहले से अधिक शक्तिशाली है, अमेरिका का व्यापारिक संतुलन अस्थिर है, और भारत क्वाड जैसे बहुपक्षीय ढांचे के केंद्र में है।
ट्रम्प–शी बैठक: शांति का मुखौटा या रणनीतिक लेन–देन?
बुसान शिखर सम्मेलन में हुई यह बैठक सतह पर ‘शांति और सहयोग’ की भाषा में ढकी थी। अमेरिका ने चीन पर लगाए गए कुछ टैरिफ घटाने का संकेत दिया और बदले में चीन ने फेंटेनाइल नियंत्रण(चीन का वादा कि वह अमेरिका में पहुँचने वाले जहरीले ड्रग्स के स्रोत को बंद करेगा), दुर्लभ पृथ्वी खनिजों के निर्यात और अमेरिकी कृषि उत्पादों की खरीद के लिए ठोस प्रतिबद्धताएँ दीं।
ट्रम्प ने इसे “वैश्विक स्थिरता के लिए जी–2 का नया युग” कहा—यह बयान इतना सरल नहीं था जितना प्रतीत होता है।
दरअसल, यह अमेरिकी नीति में एक गहरी पुनर्संरचना का प्रतीक है। ट्रम्प की विदेश नीति लंबे समय से Transactional Diplomacy पर आधारित रही है—जहाँ वैचारिक निष्ठा से अधिक सौदेबाजी को महत्व दिया जाता है। चीन के साथ यह निकटता उसी दृष्टिकोण की अगली कड़ी है:
अमेरिका अपनी आपूर्ति श्रृंखला और आर्थिक दबाव को स्थिर करना चाहता है, जबकि चीन अमेरिका के साथ न्यूनतम टकराव रखकर ताइवान और दक्षिण चीन सागर में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहता है।
लेकिन इस समीकरण का तीसरा कोण—भारत—कहाँ फिट बैठता है?
भारत: रणनीतिक स्वायत्तता की परीक्षा
भारत के लिए यह परिदृश्य एक ‘रणनीतिक दुविधा’ (Strategic Dilemma) उत्पन्न करता है।
एक ओर, भारत क्वाड, IPEF और इंडो–पैसिफिक साझेदारी जैसे मंचों पर अमेरिका का प्रमुख सहयोगी है; वहीं दूसरी ओर, भारत की आर्थिक और ऊर्जा निर्भरता चीन और रूस दोनों से जुड़ी है।
ट्रम्प प्रशासन द्वारा अप्रैल 2025 में भारत पर “रूसी तेल खरीद” के कारण लगाए गए 50% पारस्परिक टैरिफ ने इस असंतुलन को और उजागर किया। भारत की निर्यात–निर्भर विनिर्माण इकाइयों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, जबकि चीन ने इस दौरान दक्षिण एशियाई बाजारों में अपने निवेश बढ़ाए।
सुरक्षा दृष्टि से भी यह स्थिति जटिल है।
क्वाड की भूमिका घटने से भारत का इंडो–पैसिफिक में ‘केंद्रबिंदु’ दर्जा कमजोर हुआ है। ऑस्ट्रेलिया और जापान अब अमेरिका–चीन संवाद की ओर झुक रहे हैं, जबकि दक्षिण–पूर्व एशियाई राष्ट्र चीन के साथ नए व्यापारिक समझौते कर रहे हैं।
यह भारत के लिए “रणनीतिक स्वायत्तता” (Strategic Autonomy) का असली परीक्षण है—वह सिद्धांत जिसे भारत ने शीत युद्ध के बाद से अपनी विदेश नीति का आधार बनाया है।
यथार्थवादी दृष्टिकोण से परिदृश्य का विश्लेषण
राजनीति–शास्त्र के यथार्थवादी सिद्धांत के अनुसार (John Mearsheimer, 2001), विश्व व्यवस्था में महाशक्तियाँ अपने प्रभाव–क्षेत्र (Spheres of Influence) को परिभाषित करती हैं और मध्यम शक्तियाँ उनके बीच अपनी स्थिति को सुरक्षित करने की कोशिश करती हैं।
इस सिद्धांत की रोशनी में देखें तो ट्रम्प–शी निकटता “सहयोग नहीं, बल्कि प्रभाव–वितरण” का एक उदाहरण है।
अमेरिका एशिया–प्रशांत में चीन के प्रभाव को सीमित करने की बजाय, उसे Share of Power दे रहा है—यानी “तुम अपने क्षेत्र में प्रभुत्व रखो, मैं अपने क्षेत्र में।”
परंतु इस प्रकार की ‘स्थायी द्विध्रुवीयता’ (Structured Bipolarity) से भारत जैसी उभरती शक्ति के लिए कूटनीतिक अवसर सिमटते हैं।
भारत पर संभावित प्रभाव
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क्वाड की प्रासंगिकता में गिरावट:
जब अमेरिका और चीन सीधे संवाद में हों, तो क्वाड जैसे मंच अपनी रणनीतिक धार खो देते हैं। इससे भारत की समुद्री सुरक्षा और तकनीकी सहयोग योजनाएँ कमजोर हो सकती हैं। -
आर्थिक दबाव और व्यापार असंतुलन:
2025 में भारत–चीन व्यापार $135 बिलियन तक पहुँच गया, पर भारत का निर्यात अमेरिकी बाजार में घटकर $65 बिलियन रह गया। यह भारत के निर्यात–आधारित उद्योगों पर सीधा असर डालता है। -
भू–राजनीतिक हाशियाकरण:
अमेरिका–चीन सहयोग से एशिया की प्राथमिकता बदलती है। दक्षिण एशिया अब उनके प्रत्यक्ष संवाद के परे धकेला जा सकता है, जिससे भारत का प्रभाव सीमित होगा। -
आंतरिक नीति–निर्माण पर दबाव:
चीन के साथ सीमावर्ती तनाव (जैसे यारलुंग त्संग्पो बांध परियोजना) और अमेरिका के साथ अस्थिर व्यापारिक संबंधों के बीच भारत को अपनी नीतियों में संतुलन साधना कठिन हो जाएगा।
संभावित रणनीतिक विकल्प
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क्वाड को आर्थिक और प्रौद्योगिकीय साझेदारी में रूपांतरित करना:
सुरक्षा से आगे बढ़कर, भारत को क्वाड के भीतर Supply Chain Resilience और Digital Economy पर ध्यान देना चाहिए, ताकि इसका महत्व अमेरिका–चीन समीकरण से परे बना रहे। -
चीन के साथ संवाद के नए चैनल:
सीमावर्ती तनावों के बावजूद, सीमित आर्थिक–सुरक्षा संवाद बनाए रखना भारत के लिए व्यावहारिक होगा। 2025 में सीमा व्यापार की आंशिक बहाली इसी दिशा में एक सकारात्मक संकेत थी। -
अमेरिका के साथ द्विपक्षीय समझौते का पुनर्संरचना:
भारत को अमेरिका से ऐसे व्यापार–सौदे की आवश्यकता है, जो ऊर्जा निर्भरता और तकनीकी सहयोग दोनों को संतुलित करे। -
रूस–भारत साझेदारी को रणनीतिक गहराई देना:
रूस अभी भी भारत की सैन्य स्वायत्तता का आधार है। इस संबंध को संतुलित रूप में बनाए रखना भारत के दीर्घकालिक हित में है।
निष्कर्ष
जी–2 की वापसी केवल अमेरिका–चीन के बीच एक क्षणिक सामंजस्य नहीं है—यह अंतरराष्ट्रीय शक्ति–संतुलन के पुनर्गठन की घोषणा है।
भारत के लिए यह एक ऐसी परीक्षा है जिसमें संतुलन, लचीलापन और दीर्घ–दृष्टि की आवश्यकता है।
यदि भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को बनाए रखते हुए बहुपक्षीय मंचों को पुनर्जीवित कर सके, तो यह परिदृश्य उसके लिए अवसर में भी बदल सकता है।
जैसा कि किसिंजर ने कहा था—“प्रतिस्पर्धा अनिवार्य है, लेकिन सह–विकास विकल्प नहीं, आवश्यकता है।”
भारत को अब इसी सह–विकास की राह पर अपनी उपस्थिति दृढ़ करनी होगी, क्योंकि 21वीं सदी की वैश्विक राजनीति में जो देश द्विपक्षीयता से ऊपर उठेगा, वही भविष्य का केंद्र बनेगा।
संदर्भ
- Mearsheimer, John J. (2001). The Tragedy of Great Power Politics. W.W. Norton.
- Kissinger, Henry (2011). On China. Penguin.
- Keohane, Robert O. (1984). After Hegemony. Princeton University Press.
- Green, Michael & Serravalla, Daniel (2020). The Quad and the Indo-Pacific Strategy. CSIS.
- Ganguly, Shashank (2019). India-China Relations: Borders and Beyond. Harvard University Press.
- Pant, Harsh V. (2025). Trump–Xi Equation and India's Strategic Dilemma. Indian Express.
- Major, Mark J. (2025). Stabilizing US–China Rivalry. RAND Corporation.
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