Nitish Kumar’s Rise, Resilience and Revival: A Comprehensive Analysis of Bihar Politics from 2000 to 2025
नीतीश कुमार: बिहार की राजनीति में एक अटल ब्रांड का उदय और पुनरुत्थान
सारांश
बिहार के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार ने पिछले ढाई दशकों में प्रदेश की राजनीति को जिस प्रकार आकार दिया है, वह भारतीय लोकतंत्र में एक अनोखी मिसाल है। 2000 से 2025 तक का उनका सफर कई नाटकीय गठबंधन परिवर्तनों, असंख्य चुनौतियों और बार-बार के पुनरुत्थान से भरा रहा। ‘सुशासन बाबू’ की उनकी ब्रांडिंग, ईबीसी-वोट बैंक की सामाजिक इंजीनियरिंग और अलग-अलग गठबंधनों में सहजता से फिट होने की क्षमता ने उन्हें बिहार राजनीति का स्थायी केंद्र बनाया। 2025 के विधानसभा चुनावों में जेडीयू की अप्रत्याशित वापसी ने इस राजनीतिक ब्रांड की मजबूती और विस्तार दोनों को प्रदर्शित किया।
परिचय
भारत के संघीय ढांचे में कुछ नेता अपनी कार्यशैली, निर्णय क्षमता और जनविश्वास से अपनी पहचान स्थापित कर लेते हैं। नीतीश कुमार उसी श्रेणी के नेता हैं—न टकराववादी, न करिश्माई, लेकिन अत्यंत व्यावहारिक और रणनीतिक। 1951 में जन्मे नीतीश कुमार राजनीति में आए तो एक तकनीकी-मन वाले, शांत स्वभाव के नेता के रूप में। इंजीनियरिंग की पढ़ाई, जयप्रकाश आंदोलन से जुड़ाव, जनता दल से करियर की शुरुआत, और फिर 1994 में जॉर्ज फर्नांडिस के साथ समता पार्टी का गठन—ये सभी चरण उनके राजनीतिक विकास की नींव बने।
2000 के बाद बिहार की राजनीति में जो कुछ बड़ा हुआ, उसके केंद्र में लगभग हर बार नीतीश कुमार मौजूद रहे। नौ बार मुख्यमंत्री बनना उनकी राजनीतिक उपयोगिता, adaptability और सत्ता के समीकरणों को पढ़ने की क्षमता को दर्शाता है।
1. मुख्यमंत्री पद की शुरुआत: अस्थिरता से स्थिरता की ओर
मार्च 2000 में पहली बार मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार को सात दिनों में इस्तीफा देना पड़ा। बहुमत न जुटा पाने की यह विफलता बिहार की जटिल जातीय-सामाजिक राजनीति का संकेत मात्र थी। परंतु 2005 में परिस्थितियाँ बदलीं—लालू-राबड़ी शासन के खिलाफ जनता में असंतोष स्पष्ट था, जिसे एनडीए ने पूँजी में बदल दिया।
2005 में जब नीतीश कुमार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने, तो उनका शासन ‘अपराध-मुक्त बिहार’ और ‘विकास की राजनीति’ के वादे के साथ शुरू हुआ। 2010 के चुनावों में मिली ऐतिहासिक जीत ने यह स्पष्ट कर दिया कि बिहार परिवर्तन की राह पर चलने को तैयार है।
2. गठबंधन परिवर्तनों की राजनीति: अवसरवाद या राजनीतिक यथार्थवाद?
नीतीश कुमार की राजनीति का सबसे चर्चित पहलू है—बार-बार गठबंधन बदलने की क्षमता। यही कारण है कि उन्हें विरोधियों ने 'पलटू राम' कहा, लेकिन उनके समर्थकों के लिए यह बदलते परिस्थितियों के अनुसार लिया गया ‘यथार्थवादी निर्णय’ था।
2013 में नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद दावेदारी का विरोध करते हुए जेडीयू ने एनडीए छोड़ा।
2015 में वे आरजेडी-कांग्रेस के साथ महागठबंधन में आ गए—और चुनाव भारी बहुमत से जीता।
2017 में भ्रष्टाचार के आरोपों पर तेजस्वी यादव का समर्थन छोड़कर वे फिर एनडीए में लौट आए।
2022 में एक बार फिर एनडीए से अलग होकर महागठबंधन में शामिल हुए।
2024 में उन्होंने पुनः एनडीए का दामन थाम लिया और नौवीं बार मुख्यमंत्री बन गए।
इन परिवर्तनों को आलोचक अवसरवाद कहते हैं, लेकिन नीतीश कुमार खुद इसे ‘बिहार की सामाजिक वास्तविकताओं के अनुसार निर्णय’ बताते रहे। उनका फोकस सत्ता पर नहीं, स्थिरता और सुशासन पर होने का दावा लगातार किया गया।
3. शासन, सुधार और सुशासन की राजनीति
नीतीश कुमार की लोकप्रियता की असली नींव उनके शासन में हुए ठोस बदलावों में निहित है।
कानून-व्यवस्था में सुधार
- विशेष सहायक पुलिस (SAP) की तैनाती
- स्पीडी ट्रायल
- हथियार और अपराध मामलों के लिए विशेष अदालतें
- भ्रष्टाचार नियंत्रण के लिए विशेष सतर्कता इकाई
इन कदमों ने ‘जंगल राज’ वाली छवि को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
महिलाओं और वंचित वर्गों का सशक्तिकरण
- पंचायतों में 50% आरक्षण
- प्राथमिक और उच्च शिक्षा में लड़कियों के लिए साइकिल-स्कॉलरशिप योजना
- जीविका परियोजना के माध्यम से ग्रामीण महिलाओं का आर्थिक उत्थान
शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार
बड़ी संख्या में शिक्षकों की नियुक्ति, पीएचसी में डॉक्टरों की उपलब्धता, और विद्यालय व्यवस्थाओं में पारदर्शिता के कारण शिक्षा-स्वास्थ्य के आंकड़ों में सुधार देखा गया।
बुनियादी ढांचा और आर्थिक विकास
- गांवों का विद्युतीकरण
- सड़कों का विस्तार
- कृषि व श्रमिक आय में वृद्धि
- राजगीर स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स जैसे आधुनिक प्रोजेक्ट
नीतीश कुमार ने विकास को राजनीतिक मुद्दा बनाया और यह उनकी चुनावी शक्ति की रीढ़ बन गया।
4. सामाजिक इंजीनियरिंग और वोट-बैंक का पुनर्संयोजन
नीतीश कुमार का सबसे बड़ा राजनीतिक योगदान यह है कि उन्होंने बिहार की जाति-आधारित राजनीति में नई सामाजिक संरचना खड़ी की।
उनका मुख्य आधार:
- कुर्मी-कोएरी (ओबीसी)
- अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी)
- महादलित
- महिलाएं
ईबीसी को सत्ता संरचना में अधिक प्रतिनिधित्व दिलाकर उन्होंने एक नया सामाजिक-राजनीतिक गठजोड़ विकसित किया, जिसने उन्हें तीन दशकों तक प्रासंगिक बनाए रखा।
5. 2025 बिहार चुनाव: ‘टाइगर जिंदा है’ का प्रमाण
2020 में जेडीयू के 43 सीटों तक सिमटने के बाद माना गया कि नीतीश कुमार की राजनीति पर sunset शुरू हो गया है। लेकिन 2025 ने यह धारणा बदल दी।
जेडीयू ने 101 सीटों में से 85 सीटों पर बढ़त लेते हुए न सिर्फ शानदार वापसी की, बल्कि यह भी साबित किया कि नीतीश कुमार का राजनीतिक ब्रांड जीवित ही नहीं—मजबूत भी है।
उनके पुनरुत्थान के कारण:
- ईबीसी और महिलाओं का मूल समर्थन
- सुशासन की स्मृति
- विरोधियों की विश्वसनीयता में गिरावट
- भाजपा के साथ तालमेल
- जाति सर्वेक्षण के बाद बनाए गए सामाजिक समीकरण
यह चुनाव इस बात का संकेत था कि सत्ता बदलती है, लेकिन कुछ राजनीतिक ब्रांड समय के साथ और भी मजबूत होते जाते हैं।
निष्कर्ष
नीतीश कुमार की राजनीति अवसरवाद और सुशासन का एक अद्भुत मिश्रण है—कभी पहलवान की तरह दांव बदलते हुए, तो कभी संस्थान-निर्माता की तरह शांत और स्थिर। बिहार को 2005 के बाद जिस तरह स्थिरता, विकास और सामाजिक न्याय का नया ढांचा मिला, उसमें उनके नेतृत्व की निर्णायक भूमिका रही।
2025 में जेडीयू की वापसी यह बताती है कि:
- उनकी राजनीतिक प्रासंगिकता समाप्त नहीं हुई
- ‘सुशासन बाबू’ की ब्रांडिंग अभी भी प्रभावी है
- बिहार के जातीय-सामाजिक समीकरणों को वे सबसे बेहतर समझते हैं
भविष्य में चुनौतियाँ अवश्य हैं—स्वास्थ्य, उम्र, उत्तराधिकार का प्रश्न, और नई राजनीतिक शक्तियों का उदय—लेकिन आज की स्थिति में नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के एक स्थायी स्तंभ और अध्ययन का विषय बने हुए हैं।
वे भारतीय राजनीति के उन विरले नेताओं में से हैं, जिनकी राजनीतिक यात्रा यह सिद्ध करती है कि—
“आदमी नहीं, ब्रांड चुनाव जीतता है; और नीतीश कुमार एक राजनीतिक ब्रांड हैं—अटल, अनुकूल और टिकाऊ।”
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