ईरान का जल-संकट: आत्मनिर्भरता की कीमत और भविष्य की दिशा
मध्य पूर्व की भू-राजनीति में ईरान हमेशा ऊर्जा, तेल और क्षेत्रीय प्रभाव के कारण सुर्खियों में रहा है। लेकिन आज देश एक ऐसे संकट से जूझ रहा है जो न तो जटिल कूटनीति से हल हो सकता है, न ही कठोर प्रतिबंधों से—यह है पानी की तेज़ी से घटती उपलब्धता। नवंबर 2025 तक स्थिति इतनी दयनीय हो चुकी है कि देश के कई बड़े बाँध लगभग सूख चुके हैं और 15 मिलियन आबादी वाला तेहरान अभूतपूर्व पेयजल संकट के द्वार पर खड़ा है। राष्ट्रपति द्वारा राजधानी को आंशिक रूप से खाली करने की संभावना तक पर विचार किया जाना इस त्रासदी की भयावहता को उजागर करता है।
कहाँ चूका ईरान?
ईरान का यह संकट अचानक नहीं आया; यह दशकों से तैयार हो रही वह आपदा है जो जलवायु परिवर्तन और नीतिगत भूलों के संगम से विस्फोटित हुई है।
1. सूखा—लेकिन केवल मौसम की गलती नहीं
पिछले पाँच वर्षों में औसत वर्षा सदी के न्यूनतम स्तर पर पहुँच गई। कुछ क्षेत्रों में बारिश सामान्य से आधी रह गई। लेकिन यदि ईरान का जल-तंत्र पहले से सुदृढ़ होता तो यह कमी इस कदर विनाशकारी साबित न होती। असली समस्या संरचनात्मक है—जिसे अनदेखा किया गया।
2. आत्मनिर्भरता की नीति—राष्ट्रीय सुरक्षा या संसाधनों का अवमूल्यन?
1979 की क्रांति के बाद खाद्य आत्मनिर्भरता को देश ने अपना ध्येय बना लिया। परंतु इस महत्वाकांक्षा ने धीरे-धीरे जल-सुरक्षा को पीछे धकेल दिया। सूखे इलाकों में भी गेहूँ और चावल जैसी पानी-खपत वाली फसलों की खेती बढ़ती रही। भूजल से सिंचित खेत एक समय के लिए तो उत्पादक दिखे, लेकिन लंबे समय में यही रणनीति विनाशक सिद्ध हुई। दो लाख से बढ़कर नौ लाख तक पहुँच चुके सिंचाई-कुएँ सिर्फ कृषि उत्पादन नहीं बढ़ा रहे थे—वे भविष्य को खोखला भी कर रहे थे।
3. बाँध—विकास की रफ्तार या पारिस्थितिकी की कीमत?
पिछले चार दशकों में निर्मित सैकड़ों बाँधों ने नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को विकृत कर दिया। वैज्ञानिक अध्ययन के बिना किए गए इन निर्माणों ने पारिस्थितिक तंत्र को नष्ट किया, दलदली क्षेत्रों को सुखाया और डाउनस्ट्रीम समुदायों को पानी से वंचित कर दिया। विकास की यह मॉडल आज दम तोड़ती नदियों का पर्याय बन चुका है।
तभी तो आज समाज में उभर रहे हैं घाव
पानी का 90% से अधिक खर्च करने वाला कृषि क्षेत्र अर्थव्यवस्था को मात्र 11% योगदान देता है। शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में पानी की राशनिंग आम हो चुकी है। ग्रामीण युवा बड़े पैमाने पर पलायन कर रहे हैं। 2024–25 के आंदोलन इस बात के संकेतक हैं कि यह संकट सामाजिक स्थिरता को भी निगल सकता है।
अब समाधान केवल तकनीकी नहीं—राजनीतिक साहस की भी माँग
ईरान के सामने सबसे बड़ी चुनौती है—क्या वह अपनी लंबे समय से चली आ रही आर्थिक-राजनीतिक प्राथमिकताओं का पुनर्मूल्यांकन कर पाएगा?
1. कृषि का जल-तंत्र बदलना ही होगा
यदि देश 40% तक कृषि जल-उपयोग कम करने में सफल होता है, तभी शहरों और उद्योगों के लिए जल-आपूर्ति स्थिर बन पाएगी। इसके लिए वर्चुअल वॉटर आयात—अर्थात अनाज आयात—अनिवार्य विकल्प बन सकता है।
2. सूखा-सहिष्णु फसलें और आधुनिक सिंचाई तकनीक
ड्रिप सिंचाई को अनिवार्य बनाना और फसलों को क्षेत्रीय जल-वास्तविकताओं के अनुरूप चयनित करना अब विलासिता नहीं, आवश्यकता है।
3. भूजल पर कठोर नियंत्रण
अवैध कुओं का बंद होना और भूजल दोहन पर सीमा लगना देश के भविष्य की सुरक्षा का न्यूनतम शर्त है।
4. नदियों को “जिंदा” रहने देना
पर्यावरणीय प्रवाह को कानूनी दर्जा मिलना चाहिए, ताकि नदियाँ बाँधों की गुलाम न बनें।
5. पानी को कीमत देना—सुधार का सबसे कठिन लेकिन जरूरी कदम
सस्ते पानी की संस्कृति ने दुरुपयोग को जन्म दिया है। जब तक पानी का मूल्य उसकी महत्ता को प्रतिबिंबित नहीं करेगा, तब तक संकट दूर नहीं होगा।
निष्कर्ष: क्या कुछ बदल सकता है?
ईरान का जल-संकट आज दुनिया के लिए भी चेतावनी है। आत्मनिर्भरता की नीति यदि प्राकृतिक संसाधनों की सीमाओं को नज़रअंदाज़ कर दे तो वह स्थिरता नहीं, संकट पैदा करती है। आज ईरान अपने ही बनाए निर्णयों के दायरे में बँधा खड़ा है।
यदि साहसिक नीतिगत निर्णय नहीं लिए गए, तो एक प्राचीन सभ्यता का भूगोल ही नहीं, उसका सामाजिक ताना-बाना भी खतरे में पड़ सकता है।
यह संकट याद दिलाता है कि खाद्य सुरक्षा और जल सुरक्षा प्रतिस्पर्धी नहीं, भागीदार हैं—और दोनों का संतुलन ही किसी भी राष्ट्र के स्थायी भविष्य की नींव है।
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