China’s Expanding Nuclear Arsenal: Modernization, Strategic Ambitions and Global Security Implications
चीन की परमाणु हथियार योजना: विस्तार, आधुनिकीकरण और वैश्विक निहितार्थ
(भारत-केंद्रित विश्लेषण)
प्रस्तावना
इक्कीसवीं सदी का अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था-विमर्श पारंपरिक सैन्य शक्ति से आगे बढ़कर परमाणु, साइबर और अंतरिक्ष क्षमताओं पर केंद्रित हो चुका है। इस संदर्भ में चीन की तेज़ी से बढ़ती परमाणु क्षमता वैश्विक रणनीतिक परिदृश्य के सबसे निर्णायक परिवर्तनों में से एक है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) के अनुसार, चीन के पास लगभग 600 परमाणु हथियार हैं—जो संख्या अमेरिका और रूस से कम है—परंतु वृद्धि की गति इसे वैश्विक शक्ति-संतुलन हेतु एक मुख्य चुनौती बनाती है।
चीन ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा प्रस्तावित किसी भी "त्रिपक्षीय हथियार नियंत्रण समझौते" में शामिल होने से इनकार किया है। इससे स्पष्ट है कि बीजिंग अपनी परमाणु रणनीति को अमेरिकी दबाव से अलग रखकर स्वयं की विशिष्ट भू-राजनीतिक आकांक्षाओं के अनुरूप आकार दे रहा है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: ‘न्यूनतम प्रतिरोध’ से ‘सक्रिय प्रतिरोध’ तक
चीन ने 1964 में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया और इसके बाद दशकों तक उसने न्यूनतम प्रतिरोध नीति (Minimum Deterrence) अपनाए रखी—अर्थात् केवल उतने हथियार, जो प्रथम प्रहार के बाद भी प्रतिघात सुनिश्चित कर सकें।
परंतु 2010 के बाद, विशेषकर
- अमेरिकी मिसाइल-रक्षा प्रणाली (THAAD),
- एशिया-प्रशांत में सैन्य घेराव का चीन का आकलन,
- ताइवान जलडमरूमध्य में बढ़ता तनाव,
- और तकनीकी आत्मनिर्भरता का उभार
ने चीन को इस नीति से आगे बढ़ाकर “सक्रिय और विस्तृत परमाणु मुद्रा” अपनाने के लिए प्रेरित किया है।
बीजिंग का यह बदलाव केवल संख्यात्मक वृद्धि नहीं, बल्कि रणनीतिक सोच का पुनर्गठन है—एक ऐसा पुनर्गठन, जो भविष्य के वैश्विक शक्ति-संयोजन को प्रभावित करता है।
चीन की वर्तमान क्षमता: संख्या से अधिक, गुणवत्ता में छलांग
साल 2020 में लगभग 300 हथियारों की क्षमता कुछ ही वर्षों में 600 से अधिक हो चुकी है—अर्थात् दोगुना विस्तार। यह वृद्धि तीन प्रमुख आयामों में दिखाई देती है:
1. इंटरकॉंटिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइलें (ICBMs)
2025 की बीजिंग सैन्य परेड में चीन ने बड़ी संख्या में साइलो-आधारित ICBM प्रदर्शित कीं, जो अमेरिकी मुख्यभूमि तक मार करने में सक्षम हैं।
- DF-41 मिसाइल,
- मल्टीपल वॉरहेड (MIRV) तकनीक,
- और स्वचालित मिसाइल साइलो
चीन की आक्रामक क्षमता में बुनियादी परिवर्तन लाते हैं।
2. परमाणु पनडुब्बियाँ और SLBM
टाइप-094 और आगामी टाइप-096 पनडुब्बियाँ तथा JL-3 जैसी लॉन्ग-रेंज SLBM मिसाइलें चीन की Second-Strike Capability को मजबूत करती हैं—जो किसी भी परमाणु त्रयी का सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ होता है।
3. वायु आधारित क्षमता
- H-6K
- और विकासाधीन H-20 स्टेल्थ बॉम्बर
चीन को परमाणु त्रयी का एक मजबूत वायु-आधारित पैर प्रदान करते हैं।
इसके अतिरिक्त, हाइपरसोनिक ग्लाइड व्हीकल्स (HGV)—जैसे DF-ZF—अमेरिकी मिसाइल-रक्षा को अप्रभावी करने की दिशा में क्रांतिकारी बदलाव माने जा रहे हैं।
परमाणु परीक्षण अवसंरचना का विस्तार
लोप नूर परीक्षण परिसर में
- नई सुरंगों का निर्माण,
- भूमिगत प्रयोगों की तैयारी,
- और उच्च-गोपनीय गतिविधियाँ
इस बात का संकेत देती हैं कि चीन भविष्य में नई पीढ़ी के कम, हल्के और अधिक सक्षम वॉरहेड्स विकसित करने के लिए सक्रिय रूप से आधार तैयार कर रहा है।
अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण की पारदर्शिता से इनकार चीन की वास्तविक क्षमता पर शंका पैदा करता है। कई विश्लेषकों का मानना है कि चीन की वास्तविक परमाणु संख्या आधिकारिक अनुमान से अधिक भी हो सकती है।
वैश्विक निहितार्थ: त्रिपक्षीय संतुलन की चुनौती
चीन का परमाणु विस्तार तीन प्रमुख स्तरों पर असर डालता है:
1. अमेरिका–रूस–चीन: त्रिकोणीय असंतुलन
अमेरिका–रूस के बीच 'New START' जैसी संधियाँ पहले ही डगमगा रही हैं।
चीन का इन संधियों में भाग ना लेना वैश्विक हथियार नियंत्रण व्यवस्था को लगभग अप्रासंगिक बना देता है।
यह त्रिपक्षीय असंतुलन भविष्य में
- नए हथियारों की दौड़,
- अंतरिक्ष-आधारित हथियारों की प्रतिस्पर्धा,
- और मिसाइल-रक्षा प्रणालियों के सैन्यीकरण
को तेज़ कर सकता है।
2. एशिया-प्रशांत में सैन्य तनाव
चीन का परमाणु विस्तार सीधे जुड़ा है:
- ताइवान,
- दक्षिण चीन सागर,
- जापान,
- और ऑस्ट्रेलिया
के आसपास के तनाव से।
AUKUS साझेदारी और जापान की बढ़ती सैन्य भूमिका इसी संदर्भ में समझी जानी चाहिए।
3. दक्षिण एशिया में प्रभाव: भारत के लिए दोहरी चुनौती
चीन की बढ़ती क्षमता का सीधा असर भारत की सामरिक योजना पर पड़ना स्वाभाविक है क्योंकि भारत दो परमाणु-सशस्त्र पड़ोसियों—चीन और पाकिस्तान—से घिरा हुआ है।
- चीन–पाकिस्तान रणनीतिक साझेदारी
- CPEC तथा काराकोरम क्षेत्र में सैन्य उपस्थिति
- और PLA की आक्रामक सीमाई नीति
भारत को डुअल-फ्रंट डिटरेंस की ओर धकेलती है।
भारत के दृष्टिकोण से चिंताएँ
भारत की परमाणु नीति—No First Use (NFU)—स्थिरता प्रदान करती है, लेकिन चीन की छलांग निम्न क्षेत्रों में रणनीतिक पुनर्मूल्यांकन की मांग करती है:
1. मजबूत Second-Strike Capability
परमाणु त्रयी का सुदृढ़ीकरण—विशेषकर
- Arihant-Class पनडुब्बियाँ
- लंबी दूरी की SLBM (K-5, K-6)
भारत के लिए अनिवार्य हो रहा है।
2. हाइपरसोनिक और मिसाइल-रक्षा एकीकरण
चीन के HGVs भारत की मौजूदा रक्षा प्रणाली (जैसे PAD, AAD) को चुनौती देते हैं।
इसलिए
- AD-1 / AD-2,
- लेजर आधारित इंटरसेप्शन,
- और क्वांटम-रडार शोध
भारत के दीर्घकालिक सुरक्षा ढांचे में महत्वपूर्ण हो रहे हैं।
3. रणनीतिक स्वायत्तता और इंडो-पैसिफिक साझेदारी
भारत को दो संतुलनों का ध्यान रखना है:
- एक तरफ अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया जैसे साझेदार,
- दूसरी तरफ अपनी पारंपरिक ‘रणनीतिक स्वायत्तता’।
भारत की इंडो-पैसिफिक भूमिका केवल सामरिक नहीं, बल्कि भू-आर्थिक और तकनीकी नेतृत्व से भी जुड़ी है।
निष्कर्ष
चीन का परमाणु विस्तार केवल एक सैन्य आधुनिकिकरण कार्यक्रम नहीं है—यह 21वीं सदी की वैश्विक शक्ति-समीकरण का निर्णायक पुनर्संयोजन है।
600 से अधिक हथियारों के साथ चीन अभी अमेरिका-रूस के समकक्ष नहीं, किंतु जिस गति और निरंतरता से वह आगे बढ़ रहा है, वह अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर चेतावनी है।
भारत के लिए यह परिस्थिति
- सामरिक आत्मनिर्भरता,
- तकनीकी नवाचार,
- और विश्वसनीय प्रतिरोध क्षमता
को तेजी से उन्नत करने की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
अंततः परमाणु हथियार केवल भौतिक शक्ति नहीं—इनका प्रबंधन एक कूटनीतिक, तकनीकी और नैतिक चुनौती भी है।
इस चुनौती का उत्तर पारदर्शिता, बहुपक्षीय वार्ता और संतुलित शक्ति-संरचना के माध्यम से ही संभव है।
संदर्भ
1. वाशिंगटन पोस्ट. (2025). "What to know about China’s newly modernized nuclear arsenal."
2. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट (एसआईपीआरआई). (2025). "SIPRI Yearbook: Armaments, Disarmament and International Security."
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