जाति जनगणना: सामाजिक न्याय से डेटा न्याय की ओर
प्रस्तावना
भारतीय लोकतंत्र की जड़ों में यदि कोई तत्व सबसे गहराई तक व्याप्त है, तो वह है जाति। यह केवल सामाजिक पहचान का नहीं, बल्कि आर्थिक अवसरों, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और संसाधनों की पहुंच का निर्धारक रही है। स्वतंत्र भारत में सामाजिक न्याय की अवधारणा ने समानता और समावेशन का लक्ष्य रखा, परंतु यह लक्ष्य अब भी अधूरा है।
मंडल आयोग (1980) की सिफारिशों के बाद आरक्षण नीति ने वंचित वर्गों को सशक्त किया, किंतु इसकी आधारशिला 1931 की जनगणना पर टिकी रही — यानी ऐसे डेटा पर जो आज की सामाजिक वास्तविकता से मेल नहीं खाता।
इसी संदर्भ में प्रख्यात विचारक आनंद तेलतुंबड़े ने अपनी नवीनतम पुस्तक Caste con census में यह तर्क रखा कि अब समय आ गया है जब भारत को सामाजिक न्याय से आगे बढ़कर "डेटा न्याय" की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए। द हिंदू के साथ बातचीत में उन्होंने कहा —
“Caste census is not social justice, but data justice.”
यह कथन मात्र वैचारिक नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के भविष्य की दिशा तय करने वाला बिंदु है।
सामाजिक न्याय से डेटा न्याय: तेलतुंबड़े का दृष्टिकोण
तेलतुंबड़े का मानना है कि सामाजिक न्याय तभी सार्थक है जब उसके पीछे सटीक, अद्यतन और वैज्ञानिक डेटा मौजूद हो। भारत में पिछड़ेपन और असमानता की जो नीतियाँ आज लागू हैं, वे 90 वर्ष पुराने अनुमानों पर आधारित हैं।
1931 के बाद समाज में जो परिवर्तन हुए —
- नई जातियों और उपजातियों का उदय,
- शहरीकरण और पेशागत गतिशीलता,
- शिक्षा व निजी क्षेत्र में अवसरों का विस्तार —
उन सबने जातिगत संरचना को बदल दिया है।
ऐसे में, बिना वास्तविक आँकड़ों के तैयार की गई कोई भी नीति केवल राजनीतिक प्रतीकवाद बनकर रह जाती है।
तेलतुंबड़े का “डेटा न्याय” इस तथ्य पर बल देता है कि अब सामाजिक नीति का आधार अनुभवजन्य साक्ष्य (empirical evidence) होना चाहिए, न कि ऐतिहासिक धारणाएँ।
डेटा न्याय का आशय है —
ऐसे सटीक आँकड़े जिन पर आधारित नीतियाँ सामाजिक समानता, आर्थिक अवसर और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के बीच संतुलन बना सकें।
जाति जनगणना और भाजपा की राजनीतिक दुविधा
तेलतुंबड़े के विश्लेषण का एक महत्वपूर्ण आयाम भारतीय राजनीति में इसके प्रभाव से जुड़ा है।
बिहार और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में जाति राजनीति का मुख्य निर्धारक रही है।
बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने 2024 के चुनावों के दौरान जाति जनगणना को एक लोकप्रिय मांग बना दिया। बढ़ते दबाव के बीच केंद्र सरकार ने 2025 में इसकी घोषणा की, जिसे तेलतुंबड़े ने भाजपा की सामरिक मजबूरी बताया।
हिंदुत्व की राजनीति अक्सर “जाति-विहीन समाज” की बात करती रही है, किंतु वास्तविक राजनीति में उसे जातिगत समीकरणों की अनदेखी संभव नहीं।
तेलतुंबड़े के शब्दों में यह भाजपा का “प्रैग्मेटिक सरेंडर” है — वैचारिक नहीं, बल्कि वोट-बैंक गणित का परिणाम।
यह स्थिति मिचेल फूको की अवधारणा के अनुरूप है, जहाँ सत्ता के समीकरण तब बदलते हैं जब सबाल्टर्न समूह अपनी जनसांख्यिकीय शक्ति को संगठित करते हैं। जाति जनगणना उसी शक्ति का उपकरण बनती जा रही है, जो राजनीतिक विमर्श की धुरी को पुनर्परिभाषित कर रही है।
नीतिगत निहितार्थ और शैक्षणिक विमर्श
1. डेटा की विश्वसनीयता और सत्यापन
जाति कोई स्थिर जैविक पहचान नहीं, बल्कि एक सामाजिक संरचना है।
जनगणना के दौरान स्व-रिपोर्टिंग में आइडेंटिटी इन्फ्लेशन (ऊँची जाति के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करना) और पॉलिटिकल मोबिलाइजेशन (नई जातियों का राजनीतिक निर्माण) जैसी प्रवृत्तियाँ सामने आ सकती हैं।
अतः जनगणना के लिए आवश्यक है —
- आधार-लिंक्ड पहचान सत्यापन,
- बहु-स्रोत क्रॉस-चेक,
- और स्वतंत्र वैधानिक निगरानी तंत्र।
2. आरक्षण नीति की पुनर्संरचना
नए आँकड़ों से यदि यह स्पष्ट हो कि कुछ जातियाँ आर्थिक रूप से सशक्त हो चुकी हैं (जैसे महाराष्ट्र में मराठा या बिहार में कुर्मी समुदाय), तो आरक्षण नीति में क्रीमी लेयर की परिभाषा को पुनः निर्धारित करना आवश्यक होगा।
साथ ही, जिन समुदायों की सामाजिक स्थिति अभी भी कमजोर है, उनके लिए सब-क्वोटा प्रणाली लागू करनी पड़ सकती है।
इससे आरक्षण का उद्देश्य — “समान अवसर के लिए असमानता का औचित्य” — और अधिक सटीक रूप में लागू हो सकेगा।
3. सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव
जाति जनगणना से जातिगत पहचान को नया बल मिलेगा, जो आइडेंटिटी पॉलिटिक्स को प्रोत्साहित कर सकता है।
परंतु तेलतुंबड़े का तर्क है कि इससे संवाद और सुधार की प्रक्रिया भी शुरू होगी।
यदि डेटा सार्वजनिक किया जाए, तो विश्वविद्यालयों, नीति आयोग, और स्वतंत्र शोधकर्ताओं के लिए एक साक्ष्य-आधारित सामाजिक सुधार एजेंडा तैयार करना संभव होगा।
यह पारदर्शिता लोकतंत्र को और सशक्त बनाएगी।
व्यापक परिप्रेक्ष्य: लोकतंत्र में डेटा की राजनीति
तेलतुंबड़े का यह तर्क केवल जाति तक सीमित नहीं है। यह भारत की संपूर्ण नीति-निर्माण प्रक्रिया की समीक्षा करता है।
आज नीति का आधार यदि डेटा-संचालित गवर्नेंस है, तो सामाजिक न्याय का आधार भी डेटा-संचालित न्याय होना चाहिए।
भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में असमानता की सटीक पहचान तभी संभव है जब हम यह स्वीकार करें कि
“लोकतंत्र में डेटा ही नया शक्ति-स्रोत है।”
जाति जनगणना इस शक्ति के पुनर्वितरण की दिशा में पहला कदम है।
यह सरकार को जवाबदेह बनाती है, समाज को आत्मनिरीक्षण का अवसर देती है, और वंचितों को अपनी आवाज़ साक्ष्य के साथ प्रस्तुत करने का अधिकार।
निष्कर्ष
जाति जनगणना केवल आँकड़े जुटाने का उपक्रम नहीं, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक पुनर्निर्माण की प्रक्रिया है।
आनंद तेलतुंबड़े ने इसे सामाजिक न्याय से आगे बढ़कर “डेटा न्याय” कहा है — और वास्तव में यह एक पैराडाइम शिफ्ट है।
यह पहल तभी सार्थक होगी जब
- आँकड़े वैज्ञानिक और पारदर्शी हों,
- उनका उपयोग केवल चुनावी गणित नहीं, बल्कि नीति सुधार के लिए किया जाए,
- और डेटा को सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनाया जाए।
भारत को अब यह निर्णय लेना है कि क्या वह अब भी 1931 के भारत के आँकड़ों पर नीतियाँ बनाना चाहता है,
या फिर 2025 के भारत के लिए वास्तविक सामाजिक-आर्थिक डेटा पर आधारित न्यायपूर्ण नीतियों की दिशा में आगे बढ़ना चाहता है।
संदर्भ:
- Teltumbde, Anand. (2025). Caste con census. [Publisher TBD]
- The Hindu Interview:
- Mandal Commission Report (1980)
- Census of India (1931, 2011)
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