COP30 Stalemate in Belém: Why Fossil Fuel Phase-Out and $1 Trillion Climate Finance Are Stuck Without the US
कोप-30: वैश्विक जलवायु नेतृत्व का संकट और आगे की चुनौती
ब्राज़ील के बेलेम में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन कोप-30 (2025) ऐसे समय में हो रहा है जब दुनिया चरम जलवायु संकट झेल रही है, लेकिन वैश्विक राजनीति जलवायु कार्रवाई को निर्णायक रूप से आगे बढ़ाने में विफल होती दिख रही है। सम्मेलन के दो केंद्रीय मुद्दे—जीवाश्म ईंधन का चरणबद्ध समाप्ति (phase-out) और विकासशील देशों के लिए पर्याप्त जलवायु वित्त—स्पष्ट रूप से गतिरोध में फंसे हैं। इसकी मुख्य वजह है दुनिया के सबसे बड़े ऐतिहासिक उत्सर्जक और अब तक के महत्वपूर्ण जलवायु सहयोगी संयुक्त राज्य अमेरिका का सम्मेलन से व्यावहारिक रूप से बाहर होना और निष्क्रियता दिखाना।
1. जीवाश्म ईंधन phase-out पर खींचतान
दुबई में हुए कोप-28 (2023) में पहली बार जीवाश्म ईंधन से “transitioning away” को आधिकारिक भाषा में शामिल किया गया था। उम्मीद थी कि कोप-30 इस भाषा को और कठोर बनाएगा तथा स्पष्ट “phase-out” शब्द को अपनाएगा।
लेकिन वास्तविकता उलटी दिशा में जा रही है:
- सऊदी अरब, रूस और अन्य तेल-निर्भर देश phase-out का कड़ा विरोध कर रहे हैं।
- अमेरिकी नेतृत्व की अनुपस्थिति ने इन देशों को और अधिक आक्रामक बना दिया है।
- कई विकसित देशों के प्रतिनिधि यह संकेत दे रहे हैं कि कोप-30 में कोई नई सख्त भाषा शामिल होना लगभग असंभव है।
इसके चलते यह आशंका बढ़ गई है कि अंतिम दस्तावेज़ कोप-28 की ही अस्पष्ट भाषा को दोहराने पर मजबूर हो जाएगा।
2. जलवायु वित्त: बढ़ती ज़रूरतें, घटती प्रतिबद्धताएँ
2009 में विकसित देशों ने प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर देने का जो वादा किया था, वह भी वर्षों तक अधूरा रहा और 2023 में जाकर मुश्किल से पूरा हुआ।
आज स्थिति बिल्कुल अलग है:
- विकासशील देशों की मांग है कि नई क्वांटिफाइड गोल (NCQG) के तहत कम-से-कम 1 ट्रिलियन डॉलर प्रति वर्ष की राशि तय की जाए।
- इन देशों का तर्क है कि जलवायु अनुकूलन, हानि-हानि (loss & damage), और कम-कार्बन विकास के लिए इतनी राशि अनिवार्य है।
- इसके विपरीत, विकसित देश केवल 300–400 अरब डॉलर की राशि पर बात कर रहे हैं—वह भी स्पष्ट अनुदान नहीं, बल्कि ऋण एवं मिश्रित वित्त पर आधारित।
एक बड़ा मोड़ यह भी है कि विकसित देश—विशेषकर यूरोपीय संघ—चीन को भी दाता देश के रूप में शामिल करने की वकालत कर रहे हैं, जिसे अधिकांश विकासशील देश अनुचित बताते हैं।
3. अमेरिका की अनुपस्थिति: वैश्विक नेतृत्व का शून्य
ट्रंप प्रशासन की वापसी के बाद अमेरिका:
- फिर से पेरिस समझौते से बाहर निकलने के रास्ते पर है,
- जलवायु वित्त में कोई ठोस योगदान देने को तैयार नहीं,
- और दुनिया का सबसे बड़ा तेल-गैस उत्पादक बनने की दिशा में अग्रसर है।
पिछले वर्षों में अमेरिका ने भले ही मिश्रित भूमिका निभाई हो, लेकिन उसकी उपस्थिति वैश्विक वार्ताओं में एक स्थिर संतुलन बनाए रखती थी। अब उसकी गैरहाज़िरी से:
- विकसित देशों के बीच नेतृत्व का अभाव दिख रहा है,
- विकासशील देशों का भरोसा कमजोर पड़ा है,
- और तेल-निर्भर देशों का विरोध और मजबूत हुआ है।
4. संभावित परिणाम: महत्वाकांक्षा की जगह न्यूनतम सहमति
बेलेम से आने वाली रिपोर्टों के अनुसार कोप-30 का अंतिम परिणाम कुछ इस प्रकार हो सकता है:
- जीवाश्म ईंधन phase-out पर कोई नई कठोर भाषा नहीं, बल्कि पूर्व की अस्पष्ट भाषा की पुनरावृत्ति।
- जलवायु वित्त के लिए 300–400 अरब डॉलर जैसी कमजोर प्रतिबद्धता, जो वास्तविक जरूरतों से बहुत कम है।
- नई NDC जमा करने की समय-सीमा को आगे बढ़ाना, जिससे कार्रवाई और देर से शुरू होगी।
इन सबके चलते दुनिया 1.5°C तापमान लक्ष्य से और दूर हो सकती है।
5. निष्कर्ष: जलवायु कार्रवाई अभी भी राजनीति की कैदी
कोप-30 यह स्पष्ट करता है कि वैश्विक जलवायु कार्रवाई अभी भी राष्ट्रीय हितों, तेल-गैस की राजनीति और शक्तिशाली देशों की प्राथमिकताओं की बंधक बनी हुई है।
अमेरिका की अनुपस्थिति ने न केवल वार्ताओं को कमज़ोर किया है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय विश्वास को भी गहरा झटका दिया है। इस सम्मेलन से भले ही कोई न्यूनतम सहमति निकल आए, परंतु स्पष्ट है कि यह जलवायु विज्ञान की मांगों के अनुरूप नहीं होगी।
दुनिया के सामने अब सवाल यह है कि क्या वैश्विक नेतृत्व की यह रिक्ती जगह कोई भर पाएगा? और क्या अगले कुछ वर्षों में अंतरराष्ट्रीय समुदाय जलवायु संकट की वास्तविकता को देखते हुए अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति बढ़ा पाएगा?
कोप-30 के परिणाम संकेत दे रहे हैं कि यह लड़ाई अब केवल कूटनीति की नहीं, बल्कि वैश्विक विश्वास और नैतिक जिम्मेदारी की भी है।
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